Saturday, March 06, 2021

लखनऊ अब नए मिज़ाज का शहर है

कभी हम दिल्ली शहर की उज्जडई देखकर हतप्रभ रह जाते थे। अब अपने ही शहर में हैरान होने लगे हैं। तहज़ीब का शहर लखनऊ अब किताबों में रह गया है। पिछले एक दशक में इसका हवा-पानी पूरी तरह बदल गया है। पिछले तीन-चार दशकों में जो पीढ़ियां बड़ी हुईं या बाहर से आईं, उनकी जीवन शैली में लखनऊ की पुरानी पहचान तलाश करना व्यर्थ होगा। अब बात-बात में तू-तड़ाक होता है, मुक्का-लात होती है और बतर्ज़ भगवती बाबू, ‘लाशें गिर जाएंगी, उस्तादसिर्फ कहा नहीं जाता, देखते-देखते सचमुच लाशें बिछ जाती हैं। रोड रेजकभी दिल्ली की शब्दावली थी। अब वह लखनऊ की तहज़ीब को नंगा कर रही है।

खाया-पीया-अघाया एक वर्ग है जिसकी मस्ती को न कोरोना वायरस रोक सका है, न ही नोटबंदी से लेकर देशबंदी तक ने उनके राग-रंग पर असर डाला। देर शाम घर से निकलकर आधी रात के बाद खा-पी कर और हंगामा करते हुए लौटना उनके लिए अनिवार्य फनहै। और, यह सब सिर्फ पुरुषों का ही आनंद नहीं रह गया। महिलाओं ने यह पुरुष-दुर्ग भी तोड़ दिया है। किसी बार में या उसके नीचे सड़क पर आप उन्हें बराबर हाथापाई और जूतम पैजार करते देख सकते हैं।      

पिछले दिनों गोमती नगर की दो बड़ी आवासीय सोसायटी के निवासियों ने पुलिस कमिश्नर से शिकायत की है कि आस-पास खुले शराबखानों (बार) से निकलने वाले महिला-पुरुष आधी रात बाद तक सड़कों पर जो नंग-नाच करते हैं, उससे उनका बाहर निकलना, रहना-सोना मुश्किल हो गया है। ये आवासीय सोसायटी वाले, जिनके आस-पास करीब एक दर्ज़न बार खुल गए हैं, अक्सर वीडियो बनाकर प्रसारित करते हैं जिनमें युवक-युवतियां बार या सड़क पर गुत्थम-गुत्था, एक दूसरे को मारते-पीटते, बाल नोचते और कपड़े फाड़ते दिखाई देते हैं। कई बार पुलिस बुलाई जाती है। इज्जतदारलोग थाने में समझौता करके लौट जाते हैं।

विभूति खण्ड के समिट टावरमें खुले कई शराबखाने पिछले दिनों इसी कारण कुछ दिन के लिए बंद भी कराए गए थे। अब वहां एक अस्थाई पुलिस चौकी खोली जा रही है। पहले शरीफ लोगोंकी शिकायत होती थी कि मुहल्ले के पास खुली शराब की दुकान और जगह-जगह खड़ी गाड़ियों में पीने वालों के कारण बहू-बेटियों का आना-जाना दुश्वार हो गया है। अब शिकायतों की प्रकृति बदल गई है। शराब की दुकानें परचून की दुकानों की तरह आम हो गई हैं। बारनया चलन हैं। हां, देर रात वहां से निकलने वाली मस्तानों की टोली का व्यवहार अभी शरीफ जनता पचा नहीं पा रही।

चंद दिन पहले एक बार से निकलकर सड़क पर एक दूसरे के कपड़े फाड़ते महिला-पुरुष को जनता की शिकायत पर पुलिस थाने ले गई। पुलिस के अनुसार वे लिव इनजोड़ा निकले और समझौता करके साथ-साथ चले गए। पुलिस भी उनसे विशिष्ट जन की तरह व्यवहार करती है। आम जनता होती तो डंडे पड़ते, गालियां खाते और रात हवालात में काटनी पड़ती। शहर के नए मिज़ाज़ लोगों से कैसा व्यवहार करना है, पुलिस को पता है।

महीनों से किसान आंदोलन चल रहा है या पेट्रोल-डीजल की कीमतों में आग लगी है, इस वर्ग को क्या चिंता है? इनके लिए लोकतंत्र और संविधान बेरोक-टोक आउटिंगतक सीमित है। यही इनके लिए आज़ादी है। उनकी कार कहीं भी खड़ी हो, कोई टोके नहीं। कोई यह गिला न करे कि चलती कार से आपने जो अधखाया बर्गर फेंका था, वह किसी स्कूटर वाले के मुंह पर जा लगा। कभी उनकी कार फुटपाथ पर सो रहे मजदूरों पर जा चढ़े या सड़क पार करते किसी बूढ़े को कुचल दे तो मामले को बहुत तूल न दिया जाए। इट वाज जस्ट एन अक्सीडेंट!

(सिटी तमाशा, नभाटा, 06 मार्च, 2021)

          

 

         

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