Monday, March 08, 2021

प्रवासियों की नई पीढ़ी में लोप होता लोक

इन दिनों लखनऊ के सांस्कृतिक जगत में उत्तराखण्ड की लोक संस्कृति की धूम मची रहती है. दो दर्ज़न से ज़्यादा पर्वतीय संस्थाओं में से कोई न कोई आए दिन सांस्कृतिक प्रस्तुतियां करती रहती है. साल में दस-दस दिनी दो बड़े मेले भी लगते हैं- 'उत्तरायणी कौतिक' और 'उत्तराखण्ड महोत्सव', जहां लखनऊ ही के नहीं, 'उत्तराखण्ड के सुदूर इलाकों से आए लोक-नर्तक-गायक' भी अपनी प्रस्तुतियां देते हैं। यह अलग बात है कि इनमें लोक के नाम पर घालमेल ही ज़्यादा रहता है. लोक को वास्तविकता में समझने और सीखने की ललक कम ही दिखाई देती है. इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि हमारी नई पीढ़ी की जड़ें उत्तराखण्ड में हैं ही नहीं. यहां की दो-तीन बड़ी उत्तराखण्डी संस्थाएं अल्मोड़ा-पिथौरागढ़-देहरादून-पौड़ी, आदि से भी सांस्कृतिक दल बुलाकर प्रवासियों को अपने लोक नृत्य-गीतों से रू-ब-रू कराने का प्रयास करती हैं. इन प्रस्तुतियों देख कर अफसोस ज़्यादा होता है कि पहाड़ में भी सांस्कृतिक प्रदूषण बहुत तेज़ी से फैला है और लोक-संस्कृति को सिर्फ भुनाया ही जा रहा है. लेकिन एक दौर था जब प्रवासियों में अपनी लोक-संस्कृति के प्रति ज़बर्दस्त लगाव था और लोक को उसकी सम्पूर्णता में जानने-समझने और सहेजने की कोशिश होती थी.

सन 1952-53 से आकाशवाणी, लखनऊ ने अपने सांस्कृतिक समारोहों में उत्तराखण्डी संस्कृति की कुछ महत्वपूर्ण प्रस्तुतियां लखनऊवासियों के समक्ष प्रदर्शित करना शुरू किया था. आकाशवाणी के तत्वावधान में 1952 में अल्मोड़ा की संस्था यूनाइटेड आर्टिस्ट्‍स ने एक खुले मंच पर कुमाऊं का बहुप्रसिद्ध नृत्य-गीत 'बेड़ू पाको बारा मासा....' लखनऊ में पहली बार प्रस्तुत किया था जिसमें प्रख्यात लोक संस्कृतिकर्मी मोहन उप्रेती ने पद्मा तिवारी के साथ नृत्य किया था. इस लोकगीत का पुनर्लेखन बृजेन्द्र लाल साह ने किया और धुन बनार्इ थी स्वयं मोहन उप्रेती ने. यहां यह उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा कि यद्यपि उत्तराखण्ड के सांस्कृतिक इतिहास में क्रांतिकारी भूमिका निभाने वाली संस्था लोक कलाकार संघ का तब तक जन्म नहीं हुआ था लेकिन सांस्कृतिक राजधानी कहलाने वाले अल्मोड़ा में गहन सांस्कृतिक मंथन और आलोड़न-विलोड़न चल रहा था. प्रख्यात नर्तक उदय शंकर के बड़े भार्इ देवेन्द्र शंकर से नृत्य की शिक्षा लेकर अल्मोड़ा में स्कूल आफ माडर्न इंडियन डांसिंग खोलने वाले तारादत्त सती ने एक नए 'घसियारी नृत्य की रचना करके (उदय शंकर का रचा घसियारी नृत्य अलग था) हलचल मचा रखी थी, गीत-संगीत के क्षेत्र में मोहन उप्रेती और बृजेन्द्र लाल साह की जोड़ी चर्चित हो रही थी और अलख नाथ उप्रेती एवं बांके लाल साह जैसे मंच निर्देशकों का सहयोग इनके साथ था. नतीजतन,  वहां यूनाइटेड आर्टिस्ट्स और अल्मोड़ा कल्चर सेण्टर जैसी संस्थाएं जन्मी जो अंतत: 1955 में 'लोक कलाकार संघ के उदय का आधार बनीं.

बहरहाल, 1952 में यूनाइटेड आर्टिस्ट्स की बेडू‌ पाको...प्रस्तुति के बाद 7-8 फरवरी, 1953 को तारादत्त सती के प्रयासों से तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविन्द बल्लभ पंत के संरक्षण में लखनऊ में अल्मोड़ा कल्चर सेण्टर का बड़ा कार्यक्रम हुआ. इसके लिए 13 महिलाओं समेत 50 कलाकारों का दल लखनऊ आया था जिसमें स्वयं तारादत्त सती, बांके लाल साह, लेनिन पंत, बृजेन्द्र लाल साह, मोहन उप्रेती और नर्इमा खान भी थे. मोहन उप्रेती ने अपने संस्मरणों में इस कार्यक्रम को मजेदार ढंग से याद किया है- हमें लखनऊ आने पर पता चला कि कार्यक्रम कैपिटल सिनेमाघर में पेश करना है और वह हमें सिनेमा का मैटिनी शो छूटने के बाद 6 बजे मिलेगा जबकि कार्यक्रम का समय शाम 6.30 बजे था. नतीजा यह हुआ कि जब 6.15 पर मुख्यमंत्री आए तो हमारे मंच निर्देशक बांके लाल साह मंच पर सफेद पर्दा अटकाने में लगे थे और ग्रीन रूम में कोर्इ कलाकार तैयार नहीं था. 6.30 पर राज्यपाल महोदय भी आ गए थे. 6.45 पर राज्यपाल ने कहला भेजा कि अब भी कार्यक्रम शुरू नहीं हुआ तो वे चले जाएंगे. खैर, जैसे-तैसे कार्यक्रम पेश किया गया. हम सभी लोग खिसियाए हुए थे कि क्यों बिना मंच रिहर्सल के कार्यक्रम देने को तैयार हो गए. दूसरे दिन कार्यक्रम बढि़या रहा. अल्मोड़ा लौटने से पहले मुख्यमंत्री जी ने चाय पिलार्इ मगर यह कहना नहीं भूले कि मणी और रिहर्सल करि बेर ऊना. (कुछ मीठी यादें कुछ तीती--मोहन उप्रेती, पृष्ठ 66-67) लोक कलाकार संघ के गठन के बाद उसे भी समय-समय पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए लखनऊ बुलाया जाता रहा।

देश पर चीनी हमले के बाद सीमांत क्षेत्रों को भावनात्मक रूप से देश की मुख्य धारा में और सघनता से जोड़ने के लिए अक्टूबर, 1962 में आकाशवाणी, लखनऊ से सुदूर सीमांत तक सुना जाने वाला  उत्तरायण कार्यक्रम कुमाऊँनी-गढ़वाली बोली में शुरू हुआ. इसके साथ ही लखनऊ के पर्वतीयों को एक नया साहित्यिक-सांस्कृतिक मंच मिला. कुमाऊँनी-गढ़वाली बोली में कहानी-कविता-गीत-वार्ता लिखने-बोलने और लोकगीत गाने वालों की तलाश शुरू हुर्इ. वंशीधर पाठक 'जिज्ञासु और जीत जरधारी (अब स्व.) की जोड़ी सुदूर पहाड़ों में लगने वाले प्रसिद्ध मेलों, जैसे- बागेश्वर का उत्तरायणी मेला, द्वाराहाट का स्याल्दे-बिखौती मेला, जौलजीवी का मेला, आदि से पारम्परिक लोक गीतों की रिकॉर्डिंग करके लाते थे. उत्तरायणके संग्रह में कभी उत्तराखण्ड के लगभग सभी प्रसिद्ध लोक गायकों की रिकॉर्डिंग मौज़ूद थी. इससे यहां कई सारे गायक-गायिकाओं ने लोक गीतों की मूल धुनें सीखीं. इस तरह लखनऊ में पर्वतीय रामलीलाओं के समानान्तर पर्वतीय नृत्य-गीतों के मंचीय कार्यक्रमों की शुरुआत भी हो गर्इ। मुरलीनगर, महानगर, गणेशगंज, नरही, डालीगंज, आदि के रामलीला मंचों के अलावा भी रवीन्द्रालय, बंगाली क्लब, नाट्य कला केन्द्र, आदि मंचों पर पर्वतीय लोक गीत-संगीत और नृत्य प्रमुखता से गूंजने लगे. सांस्कृतिक संस्थाओं का पृथक अस्तित्व भी धीरे-धीरे उभरने लगा. 'उत्तरायण के तत्वावधान में यदा-कदा होने वाली लोक भाषा कवि गोष्ठियों ने लखनऊ में कुमाऊँनी-गढ़वाली बोलियों के साहित्य को प्रेरित किया. सामान्य नृत्य-गीतों की परम्परा से हटकर लखनऊ में उत्तराखण्डियों की सबसे पुरानी संस्था कुमाऊँ परिषद ने पहला महत्वपूर्ण कार्यक्रम मालूशाही नृत्य नाटिका के रूप में सन 1968 में प्रस्तुत किया. कुमाऊं के लोक संगीत पर आधारित इस नृत्य नाटिका का आलेख और संगीत रचना प्रद्युम्न सिंह के थे और नृत्य निर्देशन था पूर्णिमा जोशी का जो कालांतर में कथक नर्तकी पूर्णिमा पाण्डे के नाम से प्रसिद्ध हुईं और भातखण्डे संगीत महाविद्यालय (अब डीम्ड विश्वविद्यालय) की प्राचार्य बनीं.

एक और उल्लेखनीय दौर 1974 से शुरू हुआ जब शिखर-संगम का गठन हुआ और कुमाऊँनी-गढ़वाली बोली में नाटकों के मंचन का पहला प्रयास लखनऊ में किया गया. श्री जिज्ञासु, जीत जरधारी, पीताम्बर डंडरियाल, मोहन लाल नवानी, घनश्याम जोशी, आदि ने इस संस्था का गठन किया था. 23 नवंबर 1975 को बंगाली क्लब के मंच पर गढ़वाली नाटक 'एकीकरण (लेखक-ललित मोहन थपलियाल, निर्देशक-जीत जरधारी) और कुमाऊँनी नाटक 'मी यो गयूं, मी यो सटक्यूं (लेखक-निर्देशक-नंद कुमार उप्रेती) का मंचन हुआ. इसी अवसर पर श्री जिज्ञासु के सम्पादन में कुमाऊँनी-गढ़वाली बोली में हस्तलिखित साइक्लोस्टाइल्ड पत्रिका 'त्वीले धारो बोला भी प्रकाशित की गर्इ जिसका विमोचन मशहूर लेखिका शिवानी ने किया था. अपनी तरह का पहला कार्यक्रम होने के कारण इस आयोजन की बहुत तारीफ हुर्इ थी. शिवानी ने तब 'स्वतंत्र भारत अखबार के अपने साप्ताहिक स्तम्भ 'वातायन में इस कार्यक्रम की खूब सराहना की थी. उन्होंने लिखा था- संभवत: पहली ही बार लखनऊ के प्रवासी पर्वत निवासियों ने अपनी मातृभाषा में इन को नाटकों का प्रदर्शन किया. उससे भी सुखद अनुभूति हुर्इ, गढ़वाली और कुमाउंनी बंधुओं के इस अपूर्व सांस्कृतिक संगम को देख कर." (स्वतंत्र भारत, लखनऊ, 30 नवंबर, 1975) 'शिखर संगम ने अपनी दूसरी प्रस्तुति में ललित मोहन थपलियाल का ही लिखा गढ़वाली नाटक 'खाडू लापता जीत जरधारी के निर्देशन में और कुमाऊंनी के महत्वपूर्ण कवि चारु चन्द्र पाण्डे की लम्बी हास्य कविता 'पुन्तुरि का नाट्य रूपान्तर शशांक बहुगुणा के निर्देशन में मंचित किया था.

शिखर संगम संस्था जल्दी ही टूट गर्इ. तत्पश्चात जिज्ञासु जी ने 1978 में शिखर संगम के कुछ कलाकारों को लेकर 'आँखर की स्थापना की जिसने कुमाऊँनी-गढ़वाली बोली में नाटक खेलने और अपनी बोली में पत्रिका प्रकाशन के काम को आगे बढ़ाया. अगले सात-आठ सालों में 'आँखर ने मशहूर नाट्य निर्देशक देवेन्द्र राज 'अंकुर’, शशांक बहुगुणा और पियूष पाण्डे के निर्देशन में लखनऊ के अलावा भोपाल, कानपुर, मुरादाबाद, अल्मोड़ा और नैनीताल तक जाकर अपनी बोली में नाटकों के प्रदर्शन किए. प्रसिद्ध उपन्यासकार-नाटककार गोविन्द बल्लभ पंत की कहानी 'मोटर रोड (नाट्य रूपान्तरण-जिज्ञासु), चारु चन्द्र पाण्डे का 'पुन्तुरि’, दीवान सिंह डोलिया का नाटक 'ब्या है गो, गोविन्द बल्लभ पंत (नाटककार नहीं, दूसरे) का प्रहसन 'ह्यूँना पौंण, शेखर जोशी की चार कहानियों 'दाज्यू’, 'व्यतीत’, 'बोऔर 'कोसी का घटवार (सितम्बर 1981) शिवानी की कहानी 'चन्दन(सितम्बर 1979) और हिमांशु जोशी के उपन्यास 'कगार की आग (कुमाऊंनी नाट्य रूपान्तरण-नवीन जोशी) के कुमाऊँनी मंचन काफी सराहे गए और इनके कर्इ प्रदर्शन हुए. इन नाटकों में भी उत्तराखण्ड के लोक संगीत का प्रचुर प्रयोग होता था. 7-8 साल की सक्रियता के बाद 'आँखर भी विखर गई. बोली में नाट्य मंचन का सिलसिला ठप हो गया लेकिन कुमाऊँनी-गढ़वाली बोली में आँखर पत्रिका का प्रकाशन जारी रहा। वंशीधर पाठक 'जिज्ञासु और इन पक्तियों के लेखक के सम्पादन में आँखर पत्रिका एक वर्ष तक हर मास छपती रही और फिर कुछ समय त्रैमासिक रूप से भी निकली लेकिन अफसोस कि विशाल पर्वतीय आबादी वाले लखनऊ में इसके सौ नियमित ग्राहक भी नहीं बन पाए और 1995 के अंत में पत्रिका बंद ही हो गर्इ. सिर्फ संसाधनों की कमी को दोष देना ठीक नहीं, टीम की ऊर्जा और संकल्प शकित का चुक जाना बड़े कारण रहे.

सन 1978 में महानगर क्षेत्र में प्रो. मुरली धर जोशी की अध्यक्षता में 'कुमाऊंनी कला केन्द्र (कुकके) का गठन किया गया. घनानंद पाण्डे, घनानन्द उपाध्याय, डा. सुशीला तिवारी, ब्रिगेडियर उमेश चन्द्र पंत, डा. एम डी उपाध्याय और साहित्यकार गोपाल उपाध्याय, जैसे वरिष्ठ लोग उससे जुड़े. 'कुकके ने कुछ सुन्दर सांस्कृतिक प्रस्तुतियां कीं जिनमें प्रद्युम्‍न सिंह लिखित-निर्देशित नृत्य नाटिका 'मालूशाही के 1978 और 1980 में रवीन्द्रालय में हुए दो प्रदर्शन और 1983 में मंचित कुमाऊंनी नाटक 'गोपियै हरुलि (लेखक-ललित मोहन जोशी) उल्लेखनीय हैं। 'कुकके ने 'कूर्मांचल नाम से कुछ पत्रिकाएं भी प्रकाशित की थीं जिनका सम्पादन साहित्यकार गोपाल उपाध्याय ने किया था। 'कुकके के लिए प्रद्युम्न सिंह एक और संगीत-नाटिका 'हरु-हीत का भी मंचन करना चाहते थे। आलेख भी तैयार था लेकिन फिर उन्हीं के शब्दों में 'द्याप्त घरी गया अर्थात जोश ठंडा पड़ गया।

उसी दौरान (1978-79) में प्रसिद्ध रंगकर्मी उर्मिल कुमार थपलियाल ने अपने दादा भवानी दत्त थपलियाल द्वारा लिखित प्रथम गढ़वाली नाटक 'प्रहलाद का गढ़वाली में ही सशक्त मंचन करके लखनऊ के पर्वतीयों को ही नहीं, सभी नाट्य प्रेमियों को भी रोमांचित किया। तत्कालीन ब्रिटिश साम्राज्य और उसके पिट्ठुओं पर तीखे कटाक्ष करने वाला यह नाटक भवानी दत्त जी ने सन 1910 में लिखा था। (भवानी दत्त जी ने 'जय विजय नाम से दूसरा गढ़वाली नाटक सन 1911 में लिखा जिसका पहला मंचन उर्मिल जी ने 1994 में देहरादून में किया था) प्रहलाद नाटक का मंचन पूरी तरह उत्तराखण्ड के लोक संगीत पर आधारित था.

लखनऊ में कुमाऊँनी-गढ़वाली बोलियों के नाटकों के मंचनों के सिलसिले पर यहीं विराम लग गया लेकिन लोक नृत्य-गीत-संगीत के बेहतरीन कार्यक्रम होते रहे. सन 1969 में देहरादून से लखनऊ आ बसे सोहन लाल थपलियाल 'उर्मिल’ (जो कालान्तर में उर्मिल थपलियाल के नाम से रंग जगत में विख्यात हुए) ने 1970-73 के बीच लखनऊ में गढ़वाली लोक संगीत और लोक नाट्‍य आधारित कुछ लोकप्रिय प्रस्तुतियाँ दी. 'फ्यूंली और रामी’, 'मोती ढांगा’ और 'संग्राम बुढ्या रम-छम’ जैसी नई प्रस्तुतियाँ प्रवासी पहाडि़यों के लिए सांस्कृतिक प्रेरक बनीं जिनमें मनु ढौंढियाल और बीना तिवारी ने सुरीले लोक गीत गाए थे।

वह सीखने–सिखाने का दौर था और प्रवासियों में अपनी जड़ों से जुड़े रहने का जुनून मौज़ूद था. 1980 के आस-पास ब्रजेंद्र लाल साह गीत एवं नाट्य प्रभाग के उप-निदेशक बनकर लखनऊ आए तो उनसे लोक-धुनें सीखने के लिए प्रवासियों की नई पीढ़ी के कलाकार लालायित रहते थे. इससे उत्साहित होकर साह जी ने शाम को नि:शुल्क लोक-संगीत कक्षा लगाना शुरू किया. शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार से सम्मानित विज्ञानी डा दीवान सिंह भाकूनी ने इसके लिए अपना ड्राइंग रूम सहर्ष दे दिया था. साह जी जब तक लखनऊ तैनात रहे यह सिलसिला चलता रहा.

लेकिन प्रवासियों की नई पीढ़ी में इस तरह का लगाव और समर्पण नहीं रहा. आज के लोक गायक-गायिकाओं को मूल धुनों या लोक संगीत से वैसा सरोकार नहीं है. दरसल, वे अपनी बोली के शब्दों का उच्चारण भी ठीक से नहीं कर पाते. आज के लखनऊ में उत्तराखण्डियों की संस्थाओं के पास सारे साधन हैं, धन की कोई कमी नहीं है, सरकारों-नेताओं से अनुदान लेने में वे माहिर हैं. उनके पास सब कुछ है लेकिन अपना लोक ही नहीं है. मई 2015 में निसर्ग सृजन संस्थान ने प्रसिद्ध लोक गायिका कबूतरी देवी को लखनऊ में गिर्दा स्मृति सम्मान दिया. इस मौके पर बुजुर्ग कबूतरी जी ने चंद पुराने लोक गीत सुनाए तो लखनऊ की गर्मी में कुमाऊंनी लोक संगीत की शीतल बयार का झोंका-सा महसूस हुआ था. ऐसे आयोजन लेकिन अब दुर्लभ ही हैं.

 

 

 

 

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