Sunday, June 19, 2022

अपने समाज, इतिहास और राजनीति के बारे में जो पढ़ना मना है- 1

'इंडियन एक्सप्रेस' दायित्वपूर्ण पत्रकारिता की भूमिका निभाता रहा है। गहन शोध के बाद दूरगामी प्रभाव वाली खबरें लाने का काम जिस दौर में  हमारे पत्रकार भूलते जा रहे हैंं, उस समय 'इण्डियन एक्सप्रेस' कई खोजपूर्ण खबरें देता है। रविवार, 18 जून के अंक से उसने यह खोजपूर्ण शृंखला शुरू की है कि 2014 में केंद्र में सत्तारूढ़ होने के बाद से एनडीए सरकार ने स्कूली पाठ्यक्रम में  क्या-क्या और कैसे बदलाव किए हैं। अब तक तीन बार स्कूलों का पाठ्यक्रम बदला या संशोधित किया गया है। ताजा बदलाव 2019 में किए गए। कक्षा छह से बारह तक पढ़ाई जाने वाली इतिहास, समाजशास्त्र और अन्य कुछ विषयों की किताबों के पाठों में जगह-जगह कुछ विषय हटा दिए गए हैं। ये परिवर्तन NCERT ने 'पाठ्यक्रम को युक्तिसंगत बनाने के लिए' किए हैं। बिल्कुल ताज़ा बदलाव 'कोविड काल के बाद छात्रों को पढ़ाई पूरी करने के भारी दबाव से राहत देने के लिए' भी किए जा रहे हैं। 

'छात्रों पर पढ़ाई' का बोझ कम करने के नाम पर जो संशोधन किए गए हैं उनमें पिछले कुछ दशकों की महत्त्वपूर्ण सामाजिक-राजनैतिक घटनाओं/संदर्भों को हटा दिया गया है। छात्रों को अब 2002 में गुजरात के दंगों, 1975-77 के क्रूर आपातकाल, नर्मदा बचाओ आंदोलन, चिपको आंदोलन, दलित पैंथर्स और भारतीय किसान यूनियन के आंदोलन समेत विभिन्न सामाजिक प्रतिरोधी आंदोलनों, आदि अनेक महत्वपूर्ण मुद्दों, उनके कारणों, समाज पर उनके पड़े प्रभाव और लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए उनसे निकली सीखों के बारे में नहीं पढ़ाया जाएगा। यह भी नहीं पढ़ाया जाएगा कि भारतीय समाज में दलितों और अल्पसंख्यकों की स्थिति कैसी है। पुस्तकों के विभिन्न पाठों से ऐसे प्रसंग हटा दिए गए हैं जिनमें यह बताया गया था कि दलितों और स्त्रियों को वेद पढ़ने की मनाही रही है, कि बहुसंख्यक समाज द्वारा राजनैतिक ताकत हासिल करके शासकीय तंत्र के इस्तेमाल से अल्पसंख्यकों के धार्मिक और सांस्कृतिक संस्थानों को दबाए जाने का खतरा बना रहता है, आदि-आदि। 

'इण्डियन एक्सप्रेस' में प्रकाशित हो रही इस खोजपूर्ण समाचार शृंखला के महत्त्वपूर्ण हिस्सों का सार मैं यहां प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूं ताकि वह हिंदी के व्यापक पाठक समुदाय तक भी पहुंच सके और वे इस पर अपनी राय बना सकें। इस जिम्मेदार अखबार ने कक्षा छह से बारह तक की इतिहास, समाजशास्त्र और राजनीति विज्ञान की 21 पाठ्य पुस्तकों में किए जा चुके या किए जा रहे परिवर्तनों का अध्ययन किया है।

कक्षा बारह की पाठ्य पुस्तक 'स्वतंत्रता के पश्चात भारत में राजनीति' में 2002 के गुजरात दंगों के घटनाक्रम के बारे में बताया गया था कि किस तरह कारसेवकों से भरी ट्रेन में आग लगाई गई, जिसके बाद मुसलमानों के खिलाफ व्यापक हिंसा हुई और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने हिंसा रोकने में विफलता के लिए कैसे तत्कालीन गुजरात सरकार की आलोचना की। हटाए गए अंश में यह भी लिखा था कि  "गुजरात का उदाहरण हमें बताता है कि राजनीतिक उद्देश्य के लिए धार्मिक भावनाओं के उपयोग के क्या खतरे हैं। यह लोकतांत्रिक राजनीति के लिए भी खतरा प्रस्तुत करता है।" तत्कालीन प्रधानमंंत्री अटल बिहारी बाजपेई ने  गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को 'राजधर्म निभाने' की जो सलाह दी थी, वह प्रसंग भी पाठ से हटा दिया गया है। अटल जी ने मार्च 2002 में अहमदाबाद की प्रेस कांफ्रेंस में कहा था - "मुख्यमंत्री को मेरी एक ही सलाह है कि वे राजधर्म निभाएं। एक शासक को धर्म, जाति, नस्ल के आधार पर अपनी जनता में भेदभाव नहीं करना चाहिए।" उस प्रेस कांफ्रेंस में नरेंद्र मोदी अटल जी की बगल में बैठे हुए थे। 

कक्षा बारह की समाज शास्त्र की पुस्तक में 'साम्प्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्र-राज्य' नामक पाठ से भी गुजरात दंगों का संदर्भ हटा दिया गया है। हटाए गए अंश में बताया गया था कि "साम्प्रदायिकता एक समुदाय के लोगों को अपना गौरव और ग़ृह क्षेत्र बचाने के नाम पर दूसरे समुदाय के लोगों से बलात्कार, हत्या और लूट के लिए उकसाती है।... किसी दूसरी जगह या भूतकाल में अपने धर्म के लोगों की हत्या या अपमान का बदला लेने के नाम पर इसका औचित्य ठहराया जाता है। कोई भी धर्म किसी न किसी प्रकार की साम्प्रदायिक हिंसा से पूरी तरह मुक्त नहीं है। हर धर्म ने कम या अधिक ऐसी हिंसा झेली है, यद्यपि तुलनात्मक रूप से अल्पसंख्यल्क समुदायों पर अत्याचार अधिक होता है। यहां तक कि साम्प्रदायिक हिंसा के लिए सरकारों को भी दोषी ठहराया जा सकता है। कोई भी पार्टी या सत्तारूढ़ दल इस मामले में दोषमुक्त नहीं है। बल्कि, हाल के वर्षों में साम्प्रदायिक हिंसा की दो बड़ी घटनाएं दो बड़े राजनैतिक दलों की सरकारों के अधीन हुईं। 1984 के सिख विरोधी दंगे कांग्रेस सरकार में हुए। 2002 में मुसलमानों के विरुद्ध अभूतपूर्व हिंसा भाजपा सरकार के दौरान हुई।" 

आपातकाल-प्रसंग

कक्षा बारह की राजनीति शास्त्र की किताब 'स्वतंत्रता के पश्चात भारत में राजनीति'  के अध्याय छह में पांच पेज कम कर दिए गए हैं। 'लोकतांंत्रिक व्यवस्था के संकट' नामक अध्याय में देश में 1975 में आपातकाल लगाने के विवादित निर्णय और उस दौरान इंदिरा गांधी की तत्कालीन सरकार द्वारा सत्ता के दुरुपयोग और भ्रष्टाचारों का उल्लेख हटा दिया गया है। इसमें राजनीतिक नेताओं की गिरफ्तारियों, प्रेस पर अंकुश, हिरासत में अत्याचार और मौतें, जबरन नसबंदी और बड़े पौमाने पर गरीब बस्तियों को उजाड़ने का जिक्र था। हटाए गए हिस्सों में जनता पार्टी की सरकार द्वारा इंदिरा सरकार की अनियमितताओं की जांच के लिए मई 1977 में गठित शाह आयोग का उल्लेख भी था।

कक्षा बारह की समाज शास्त्र की पाठ्यपुस्तक 'भारतीय समाज' के अध्याय छह (सांस्कृतिक विविधता की चुनौतियां) से भी क्रूर आपातकाल के संदर्भ हटा दिए गए हैं। इसमें पढ़ाया जाता था कि "जून 1975 से  जनवरी 1977 तक भारतीय जनता को अधिनायकवादी शासन के संक्षिप्त दौर से गुजरना पड़ा। संसद स्थगित कर दी गई थी और सरकार ने सीधे नए कानून बनाए। नागरिक अधिकार स्थगित कर दिए गए और राजनीतिक रूप से सक्रिय लोगों को गिरफ्तार करके बिना मुकदमा  चलाए जेलों में बंद कर दिया गया। प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी गई और सरकारी अधिकारियों को बिना उचित प्रक्रिया अपनाए बर्खास्त किया जा सकता था। सरकारी कर्मचारियों पर दबाव था कि वे सरकार के कार्यक्रम लागू करें और तत्काल परिणाम दें। सबसे कुख्यात था पुरुषों की जबरन नसबंदी जिसमें ऑपरेशन की गड़बड़ियों के कारण बड़ी संख्या में मौतें भी हुईं। जब 1977 की शुरुआत में चुनाव कराए गए तो जनता ने एकजुट होकर कांग्रेस सरकार के खिलाफ मतदान किया।" यह जरूरी इतिहास और सबक अब विद्यार्थियों को नहीं पढ़ाया जाएगा। 

कक्षा आठ की पाठ्यपुस्तक 'भारत में सामाजिक परिवर्तन  और विकास' के अध्याय आठ (सामाजिक आंदोलन) से भी आपातकाल में ट्रेड यूनियन गतिविधियों पर लगाए गए प्रतिबंधों का जिक्र हटा दिया गया है। 

प्रतिरोध और सामाजिक आंदोलन

कक्षा छह से बारह तक की राजनीति शास्त्र की पाठ्यपुस्तकों से वे तीन अध्याय हटा दिए गए हैं जो समसामयिक भारत में जन प्रतिरोधों से उपजे सामाजिक आंदोलनों का विवरण देते थे।  जैसे, कक्षा बारह की पुस्तक 'स्वतंत्रता के बाद भारत में राजनीति' से 'लोकप्रिय आंदोलनों का जन्म' नामक अध्याय हटा दिया गया है। इस अध्याय में 1970 के दशक में उत्तराखण्ड में हुए 'चिपको आंदोलन', महाराष्ट्र में 1970 के दशक के दलित पैंथर आंदोलन, अस्सी के दशक के किसान आंदोलन, विशेष रूप से भारतीय किसान यूनियन की अगुवाई में हुए आंदोलन की जानकारी छात्रों को दी गई थी। इसी अध्याय में शामिल रहे आंध्र प्रदेश के नशा विरोधी आंदोलन, विश्व प्रसिद्ध नर्मदा बचाओ आंदोलन, जिसने नर्मदा और उसकी सहायक नदियों पर सरदार सरोवर बांध के निर्माण का जबर्दस्त विरोध किया, और सूचना के अधिकार के लिए हुए आंदोलन के बारे में भी अब विद्यार्थियों को नहीं पढ़ाया जाएगा। 

NCERT ने कक्षा सात की राजनीति शास्त्र की पाठ्यपुस्तक से 'समानता के लिए संघर्ष' नामक अध्याय हटा दिया है जिसमें बताया गया था कि किस तरह तावा मत्स्य संघ ने  मध्य प्रदेश के सतपुड़ा जंगल के विस्थापित वनवासियों  के अधिकारों के लिए आंदोलन किया। कक्षा दस की राजनीति शास्त्र की किताब 'लोकतांत्रिक राजनीति-2' से उन लोकप्रिय आंदोलनोंं का संदर्भ हटा दिया गया है जो दबाव समूहों और आंदोलनों के माध्यम से राजनीति को प्रभावित करने के बारे में थे। इस अध्याय में नेपाल में लोकतंत्र के लिए आंदोलन, बोलीविया में पानी के निजीकरण के विरुद्ध हुए आंंदोलन केअलावा नर्मदा बचाओ आंदोलन, कर्नाटक के अहिंसक 'किट्टिको-हच्चिको' आंदोलन, कांशीराम के  'बामसेफ' अभियान और जन-आंदोलनों के राष्ट्रीय मोर्चे , जिसकी संस्थापक के रूप में मेधा पाटकर का नाम दिया गया था, के बारे में जानकारी थी। यह सब अब छात्र नहीं पढ़ेंगे। 

कक्षा 11 और 12 की समाज शास्त्र की पाठ्यपुस्तक में सामाजिक आंंदोलनोंं के बारे में जो एकमात्र अध्याय था, उसे काफी छांट दिया गया है। उसमें छात्रों के लिए एक अभ्यास था कि "हाल ही में तीन कृषि कानूनों के विरुद्ध हुए किसानों के विरोध प्रदर्शन की चर्चा कीजिए", इसे भी हटा दिया गया है। (जारी)

 -नवीन जोशी, 19 जून, 2022 

1 comment:

कविता रावत said...

चिंतनशील प्रस्तुति