कोविड महामारी के दो साल के डरावने दौर के बाद इस जेठ में मंगलवारों को भण्डारों की धूम मची है। मंगलवार कम पड़ जा रहे तो शनिवार को भण्डारे हो रहे हैं। लखनऊ की अनोखी इस पुरानी परम्परा में जेठ के मंगलवार ‘बड़े मंगल’ कहलाते हैं। पहले जेठ का पहला मंगल ही ‘बड़ा मंगल’ कहलाता था। किंवदंती है कि इसी दिन अलीगंज में हनुमान जी ने एक साधु को दर्शन दिए थे। बचपन में हम बच्चों-बड़ों को लाल लंगोटी पहने नंगे बदन घर से अलीगंज तक का रास्ता लेटकर नापते जाते देखते थे। अब उनकी संख्या बहुत कम हो गई है। जगह-जगह लगने वाले प्याऊ का स्थान भण्डारों ने ले लिया है। पूड़ी-सब्जी ही नहीं, कुल्फी, आइसक्रीम तक का प्रसाद बंटने लगा है। तरक्की हर क्षेत्र में दिखनी चाहिए। श्रद्धा के मानक भी बदलते हैं।
लखनऊ के हनुमान जी की बड़ी शान है। अलीगंज में दो पुराने हनुमान
मंदिर हैं। एक मंदिर लाला जाटमल ने 1783 में बनवाया, ऐसा जिक्र मिलता है। बड़े
मंगल की प्रथा इसी मंदिर से शुरू हुई। अवध के नवाबों की भी हनुमान जी में आस्था
थी। अलीगंज का दूसरा हनुमान मंदिर नवाब सआदत अली खां की मां जनाब आलिया ने बनवाया।
इस मंदिर के शिखर पर आज भी दूज का चांद टंगा देखा जा सकता है जो नवाबी सल्तनत की
निशानी है। यह मंदिर अवध की गंगा-जमुनी संस्कृति का सुंदर उदाहरण है। नवाब वाजिद
अली शाह बड़े मंगल पर हर साल भण्डारा आयोजित करते थे। यह हनुमान जी के प्रति
श्रद्धा का ही प्रतीक था कि नवाबी काल में यहां बंदरों को पकड़ने या मारने पर रोक
थी। बेगमें उनके लिए बुर्जियों पर चने रखवाया करती थीं।
बड़े मंगल की रवायत, हनुमान मंदिर के शिखर पर दूज का चांद,
रमजान में हिंदुओं का भी रोजे रखना और भोर में सहरी के लिए पुकार लगाना
हमारी खूबसूरत व कीमती साझा विरासत है। इसी गंगा-जमुनी विरासत का हिस्सा ‘पड़ाइन की मस्जिद’ भी है। आज के माहौल में यह याद
दिलाना जरूरी है कि अवध के सूबेदार सफदरजंग की बेगम खदीज़ा खानम की मुंहबोली बहन
रानी जयकुंवर ‘पड़ायन’ कहलाती थीं। उस
रानी का बाग ‘पड़ायन का बाग’ हुआ और
उसमें बेगम की बनवाई मस्जिद ‘पड़ायन’ के
नाम से जानी गई। एक नवाब हुए गाज़ीउद्दीन हैदर जिन्होंने गंगा का पानी लखनऊ की गोमती
तक लाने के वास्ते नहर बनवाई (जो हैदर कैनाल कही गई लेकिन अब ‘गंदा नाला’ है।)
बड़े मंगल की धूम-धाम और हनुमान जी के जयकारों के बीच इस
खूबसूरत विरासत की याद आज इसलिए कर लेनी चाहिए कि मंदिर-मस्जिद विवाद पैदा करके कैसा तो माहौल बना दिया गया है। सारी बहसें, चिंताएं, योजनाएं और विकास कार्य मंदिर-मस्जिद
केंद्रित हो गए हैं। ‘इतिहास को दुरस्त’ करने की जो हवा चली है उसमें कानपुर से आई खबर चौंकाने से अधिक चिंता
जगाती है। कानपुर की मेयर ने अचानक ‘मुस्लिम इलाकों’ में गली-गली घूमकर ‘मंदिरों पर कब्जे करके बिरयानी
की दुकानें’ खोले जाने का ‘रहस्योद्घाटन’
करना शुरू कर दिया है। यह सिलसिला कहां तक जाएगा?
आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने दो दिन पहले ही कहा है कि हर मस्जिद
में शिवलिंग ढूंढना गलत है। मगर बहुसंख्यक आबादी का मानस ही ऐसा बना दिया गया है कि
गली-गली विवाद खोजे-खोदे जा रहे हैं। इतिहास को पलटा नहीं जा सकता। जो हमलावर की तरह
आए उन्होंने उसी तरह व्यवहार किया। उसे याद रखना चाहिए ताकि फिर कोई हमलावर न आने पाए।
इतिहास में मंदिर तोड़े गए तो बनाए भी गए। सवाल है कि आप क्या याद रखना चाहते हो और
क्यों? सदियों में जो मिश्रित जीवन-पद्धति बनी उसकी खूबी देखिए। ‘बड़े मंगल’ की परम्परा क्या इसी का हिस्सा नहीं हैं?
(सिटी तमाशा, नभाटा, 04 जून, 2022)
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