Sunday, September 11, 2022

क्या मेधा पाटकर ने आदिवासियों को ठगा, जैसा स्वामीनाथन कहते हैं?

स्वामीनाथन एस अंकलेसरिया अय्यर प्रतिष्ठित पत्रकार,  अर्थशास्त्री व समाजशास्त्री हैं। उनके लेख और वक्तव्य अक्सर विभिन्न माध्यमों में पढ़ने-सुनने को मिलते रहते हैं। उनका शोध-अध्ययन प्रभावित करता है। अर्थशास्त्र के कई सिद्धांत और तर्क ठीक से समझ में न आने के बावजूद उन्हें पढ़ना अच्छा लगता है। कुछ समझ बढ़ती है। टाइम्स ऑफ इण्डिया के उनके नियमित साप्ताहिक स्तम्भ में पिछले दो रविवारों के लेखों में उन्होंने नर्मदा बचाओ आंदोलन से विश्व भर में ख्यात और अत्यंत लोकप्रिय एवं सम्मानित जमीनी नेता मेधा पाटकर को आंदोलन को भटकाने-भरमाने और झूठे दावे करने वाली साबित करने की कोशिश की है। इसके लिए उन्होंने एक शोध-अध्ययन के आंकड़े और जमीनी हकीकतपेश किए हैं।

हमारे मन में मेधा पाटकर की छवि एक ऐसे जमीनी नेता-कार्यकर्ता की है जिन्होंने नर्मदा बचाओ आंदोलन के माध्यम से बड़े बांधों की जन-उजाड़ू और घोर विकास-विरोधी असलियत तो दुनिया भर के सामने रखी ही, विस्थापित आदिवासियों-ग्रामीणों को जागरूक कर उनके हक में ऐसी लड़ाई लड़ी, जो अब भी लड़ी जा रही है, जिसने आदिवासी समाज को सामाजिक-राजनैतिक ताकत दी, विस्थापन के बदले नकद मुआवजे के साथ पर्याप्त जमीन भी बसने को दी, जमीन के साथ-साथ नदी और जंगल को भी आदिवासियों-ग्रामीणों के जीवन के लिए अनिवार्य साबित किया। मेधा पिछले तीस साल से आदिवासियों के बीच झोपड़-पट्टी में उन्हीं की तरह रहती हैं, विस्थापितों को साथ लेकर देस-विदेश में उनकी आवाज उठाने गई हैं, सर्वोच्च न्यायालय में उनके साथ खड़ी रही हैं, विश्व बैंक की टीम ने भी उनके तर्क माने थे, आदि-आदि। हाल ही में नवारुण प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक नर्मदा घाटी से बहुजन गाथाएंपढ़कर मेधा के प्रति सम्मान और भी बढ़ा। यह किताब आम ग्रामीणों-आदिवासियों के मुंह से आंदोलन की वह कहानी कहती है जिसमें मेधा ने अकेले अपने को आगे नहीं किया, बल्कि पूरे डूब-प्रभावित क्षेत्र की आम जनता में से जुझारू नेता विकसित किए। इसी कारण मेधा के बारे में स्वामीनाथन की टिप्पणी आसानी से पचती नहीं है लेकिन उनके तर्कों-आंकड़ों को खारिज करना भी सहज नहीं है। यह जानना भी जरूरी है कि एक दौर में स्वयं स्वामीनाथन मेधा पाटकर से प्रभावित थे और नर्मदा परियोजना का विरोध करते थे।

चार सितम्बर को प्रकाशित पहला स्तम्भ स्वामीनाथन ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा नर्मदा का पानी गुजरात के कच क्षेत्र में पहुंचाने वाली नहर के उद्घाटन पर दिए गए भाषण के संदर्भ में लिखा है, जिसमें उन्होंने मेधा पाटकर और उनके अर्बन नक्सल दोस्तोंकी तीखी आलोचना की थी। स्वामीनाथन लिखते हैं कि वास्तव में नर्मदा परियोजना का बहुत व्यापक विरोध हुआ था और विरोध करने वालों में विश्व बैंक का मोर्स कमीशन भी था, जो किसी भी रूप में अर्बन नक्सलनहीं था। वे आगे लिखते हैं कि मेधा और उनके साथी आलोचक पूरी तरह गलत साबित हुए हैं। वे लिखते हैं कि 1989 में मैंने मेधा पाटकर और आर्क’ (एक्शन रिसर्च इन कम्युनिटी हेल्थ एंड डेवलपमेंट) की सरदार सरोवर बांध (नर्मदा पर पहला बांध) विरोधी बातें सुनी और सहमत हुआ था कि सरकारें और अन्य राजनैतिक दल जो दावे कर रहे हैं, वे सच नहीं हैं, बांधों के पानी का लाभ बड़े किसान उठाते हैं, नर्मदा का पानी कभी भी सौराष्ट्र, कच और राजस्थान तक नहीं पहुंच पाएगा, आदिवासी उजड़ जाएंगे और उनकी महिलाएं वेश्यावृत्ति को मजबूर हो जाएंगी, आदि-आदि। आंदोलन के राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय दबाव में न्यायाधिकरण ने विस्थापितों को नकद मुआवजे के अलावा प्रति वयस्क व्यक्ति पांच-पांच एकड़ जमीन दी। स्वामीनाथन लिखते हैं कि पांच-पांच एकड़ जमीन पाने वाले विस्थापित आज करोड़पति बन गए हैं, उनके पास पक्के मकान, बिजली-पानी, स्कूल, मोटर सायकिल, बैंक खाते, स्मार्ट फोन और अन्य सुविधाएं हैं। नर्मदा का पानी भी कबके सौराष्ट्र, कच और राजस्थान तक पहुंच चुका है, जिससे लाखों लोगों को लाभ हुआ है।

उन्होंने लिखा है- “मेधा का समर्थन कर मैंने गलती की। उन्होंने न केवल मुझे बल्कि, हजारों सचेत लोगों को बेवकूफ बनाया, जिन्हें आज क्रोधित होना चाहिए। ... मैंने बांध से विस्थापित ग्रामीणों के कष्टों-संघर्षों के बारे में पढ़ा था लेकिन कई लोग कहते थे कि पुनर्वास बहुत सफल रहा। इसका परीक्षण करने के लिए मैंने और कोलम्बिया विश्वविद्यालय के नीरज कौशल ने एक शोध परियोजना शुरू की, जिसका खर्च लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स ने उठाया। हमने विस्थापित होकर पुनर्वास स्थल पर बस गए आदिवासियों के जीवन स्तर का तुलनात्मक अध्ययन उन लोगों के जीवन स्तर से किया जो अब भी अपने जंगलों या डूब से बचे इलाकों में डटे हैं यानी जिन्होंने पुनर्वास स्वीकार नहीं किया। यह अध्ययन आंख खोलने वाला रहा। पुनर्वास स्थल पर रह रहे आदिवासी आज बहुत बेहतर हालात में हैं। उनके पास जमीन है, ट्रेक्टर हैं, नलकूप हैं, टीवी, मोटर सायकल, फोन और कई अन्य सुविधाएं तथा सरकारी दफ्तरों तक पहुंच है। उन्होंने अपनी आदिवासी संस्कृति को भी बचा रखा है। फिर भी इनमें से 54 फीसदी आदिवासी कहते हैं कि हम अब भी जंगलों में रहना चाहेंगे। उनके लिए भौतिक सुख-सुविधाएं ही सब कुछ नहीं हैं। जो पुनर्वास स्थल पर नहीं गए हैं, हमने उनसे भी पूछा कि क्या आप उसी राहत पैकेज के साथ विस्थापित होना चाहेंगे तो 51 प्रतिशत ग्रामीणों और 31 फीसदी आदिवासियों ने हांकहा। पुनर्वास स्थलों में मिली जमीन की कीमत 2019 में तीस लाख रु प्रति एकड़ हो गई थी। पांच एकड़ वाले करोड़पति हो गए हैं।”

चार सितंबर को लिखे स्तम्भ के लिए स्वामीनाथन की काफी आलोचना हुई। इसलिए स्वामीनाथन ने 11 सितम्बर को अपने स्तम्भ में फिर यही सब बातें  कुछ और तथ्यों के साथ लिखीं। वे मानते हैं कि मेधा पाटकर की इसलिए खूब तारीफ की जानी चाहिए कि प्रारम्भ में उन्होंने आदिवासी हितों के लिए खूब लड़ाई लड़ी। जमीन के बदले सिर्फ नकद मुआवजा नहीं, बल्कि जमीन भी मिले, यह आंदोलन सराहनीय था। लेकिन बाद में उन्होंने पलटा खाया। आदिवासी हितैषी होने का दावा करते हुए वे उन्हें आधुनिक सुविधाओं से वंचित रखना चाहती हैं। वास्तव में, उन्होंने गरीब आदिवासियों को जमीन का करोड़पति मालिक बनने से रोका, शिक्षा से वंचित रखना चाहा। क्या यह आदिवासी हितैषी होना था?” मेधा को कटघरे में खड़ा करते हुए स्वामीनाथन एनजीओ आर्चकी खूब सराहना करते हैं। उसे असली हीरो बताते हैं “जिसने आदिवासियों के सामुदायिक स्वास्थ्य, चौतरफा विकास के लिए बिना प्रचार के लिए काम किया।”

स्वामीनाथन एस अंक्लेसरिया अय्यर जैसे अध्ययेता की कलम से यह सब पढ़ना स्तब्धकारी है, इसलिए  कि नर्मदा बचाओ आंदोलन के लिए मेधा पाटकर का संघर्ष लगभग आदर्श माना गया है। नर्मदा घाटी के आंदोलनकारी ग्रामीण और आदिवासी उन्हें तीस साल बाद भी बहुत आदर देते हैं। वह उनके बीच रच-बस गई हैं। उनका मुख्य उद्देश्य बड़े बांधों का विरोध और विस्थापितों के वाजिब हकों के लिए लड़ना रहा जिनमें वे जमीन के बदले जमीन, जंगल के बदले जंगल और नदी के लिए नदी को अत्यंत महत्त्वपूर्ण मानती रही हैं। उन्होंने विकल्प के तौर पर छोटे बांध बनाकर दिखाए, आदिवासियों के लिए स्कूल खोले, और उनकी जीवन-संस्कृति को बचाए रखने के जतन किए। यह आरोप गले से नीचे नहीं उतरता कि मेधा ने आदिवासियों को करोड़पति जमीन मालिक बनने से या शिक्षा से वंचित रखने की कोशिश की। बांध प्रभावितों के यथासम्भव बेहतर पुनर्वास की उनकी लड़ाई काफी हद तक सफल मानी जाती है। टिहरी बांध में राहत और पुनर्वास के तमाम झगड़े आज तक जारी हैं जिसके लिए सुंदर लाल बहुगुणा तक विवादित हुए और अकेले पड़ गए थे। मेधा के तर्कों को विश्व बैंक के जांच दल और सर्वोच्च न्यायालय ने भी काफी हद तक माना था।

मेधा पाटकर से असहमत आदिवासी भी हो सकते हैं और दूसरे कार्यकर्ता और संगठन भी लेकिन नर्मदा घाटी के प्रभावित अधिकसंख्य आदिवासी कहते हैं- “कई बार लोग पूछते हैं- संघर्ष से क्या हासिल हुआबांध तो बन गयाहमारा विश्लेषण इतना सामान्यीकरण वाला भी नहीं होना चाहिए कि चूंकि बांध बन गयाइसलिए आंदोलन असफल हो गया। आंदोलन ने विकास के मापदण्डों को नया आयाम दिया है। अब यह सिर्फ बांध विरोधी संघर्ष नहीं है, बल्कि अब यह सामाजिक परिवर्तन का संघर्ष है। इसने तमाम छोटे संघर्षों जैसे महिलाओं और किसानों के मुद्दों के संघर्षों को प्रेरणा दी है। (रेहमत, चिखल्दा, मध्य प्रदेश)

बहरहाल, स्वामीनाथन की टिप्पणियां विकास के सरकारी मानदण्डों पर नए सिर से बहस मागती हैं।

-न. जो, 12 सितम्बर, 2022

              

   

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