'दावानल' और 'टिकटशुदा रुक्का' के बाद नवीन जोशी का तीसरा उपन्यास-'देवभूमि डेवलपर्स'। उपन्यास का नाम सहसा समझ में नहीं आता किंतु जब कथानक की एक के बाद एक परतें खुलती चली जाती हैं तो समझ में आता है कि अनेक आंदोलनों, संघर्षों को झेलते-भोगते हुए भोले और जुझारू पहाड़ियों के द्वारा देखा हुआ देवभूमि का एक सपना कैसे उनकी खुरदुरी हथेली पर आते-आते बिखर जाता है और डेवलपर्स की निष्ठुर मुट्ठी में कैद हो जाता है।
सच कहें तो देव 'भूमि डेवलपर्स' केवल उपन्यास ही नहीं है, यह एक विशिष्ट समकालीन समाज के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक इतिहास का दस्तावेज़ भी है। उपन्यास विधा में इसे एक मौलिक प्रयोग कहा जा सकता है। परंपरागत रूप से उपन्यास के कथानक का मूल तत्व गल्प (गप्प) यहां सिरे से गायब है। उसके स्थान पर जो कुछ है वह सत्य है, सांप्रतिक है और आसपास घटित हो रहा है। लेखक का लेखन कौशल है कि वह इतिहास को भी सृजनात्मक विधा में इस तरह प्रस्तुत करता है कि पाठक उसी में डूब जाता है। पाठक को लगता है वह स्वयं भी इस विस्तृत फलक का कोई न कोई पात्र है, किसी न किसी घटना का प्रत्यक्ष साक्षी है।
उपन्यास का मुख्य पात्र पुष्कर भी कथा नायक नहीं, कथा साक्षी ही है; एक रोमांटिक रिवॉल्यूशनरी आदर्शवादी, जिसमें हीरो बनने के गुण हैं लेकिन उपन्यासकार उसे हीरो नहीं, कभी-कभी महाभारत के संजय की तरह की भूमिका देता है- कथा देखो और जैसी है वैसी प्रस्तुत कर दो।
कथानक 1984 के वसंत से प्रारंभ होता है जब 'नशा नहीं, रोजगार दो' आंदोलन अपने चरम पर था। गरमपानी में शराब माफिया के एक सरदार को पीट-पीट कर निर्वस्त्र किए जाने की घटना के बीच पुष्कर कहानी में उभरता है। आंदोलन के बीच ही कविता से उसका विवाह हो जाता है और दोनों प्रमुख पात्र अनेक समस्याओं के साथ, उस दौर के लगभग सभी आंदोलनों में अनेक रूपों और भूमिकाओं में, अनेक जगहों पर दिखाई पड़ते हैं। कथानक उन पर नहीं बुना गया, वे कथा के साथ एकरस हो गए हैं। उपन्यास उत्तराखंड के राजनीतिक घटनाक्रम का चिट्ठा ही नहीं खोलता, वह पहाड़ के जनजीवन, परिवारों की बुनावट, वर्ण और वर्ग चेतना, लोकविश्वास, रूढ़ियां, समूह मनोविज्ञान, पलायनजन्य समस्याएं और न जाने कितनी बातें विश्लेषित करता जाता है।
उसे लगता है जैसे स्पष्ट राजनीतिक आर्थिक विचार के बिना चिपको आंदोलन का बिखरना तय था वैसे ही 'संघर्ष वाहिनी' का टूटना बिखरना भी निश्चित था। उसकी भी कोई साफ दिशा नहीं थी। ऐसे अनेक झगड़े टंटे थे। प्रत्येक आंदोलन में महिला शक्ति सबसे आगे थी सबसे मुखर, किंतु कहीं पुरुषों के पिछड़ जाने से, सरकारी दांवपेच और दमन के सामने विवश हो जाने से अपने संघर्ष का दुखांत भी देखती थी। प्रत्येक आंदोलन के अपने अंतर्विरोध थे। रामपुर तिराहा के मर्यादा हीन पाशविक अत्याचार को नेता भुला गए और छोटी-मोटी सुविधाओं के लिए जैसे बिछ गए। लेखक यह बताने से भी नहीं चूकता कि हर प्रकार का माफिया स्थानीय लोगों की मदद से ही आगे बढ़ता है । उनके सामने चंद रुपए फेंक कर, उन्हें दारू पानी पिलाकर वह अपना करोड़ों का व्यापार साध लेता है। सरकार चाहे जिस दल की बने, उसके हित प्रत्येक सरकार के हाथ में सुरक्षित रहते हैं और उन लोगों के हित की चिंता किसी को नहीं जिनके खून पर उत्तराखंड बना था। शाहों-चड्ढाओं के दोनों हाथों में लड्डू रहते हैं।
कथानक की आवश्यकता के अनुसार पात्रों की संख्या बहुत है। इनमें अनेक तो उसी नाम से उपस्थित हैं जिससे कथानक अधिक विश्वसनीय बन गया है। कुछ का नाम झीने से पर्दे में रखा गये हैं किंतु वे अपनी भूमिका से साफ पहचाने जा रहे हैं। एक ओर दो मुंहे नेता, रीढ़ विहीन प्रशासक, बिके हुए पत्रकार, जुल्मी पुलिस, प्लांटेड न्यूज़ और इस प्रकार के अनेक मगरमच्छ तथा दूसरी ओर उन पर सहज विश्वास करने वाले आमजन जिनके नाम पर कसमें खाई जातीं, झूठे वादे किए जाते और अमानवीय जुर्म भी उन्हीं पर ढाए जाते। इनके बीच पुष्कर-कविता जैसे कुछ लोग जो इनसे लड़ना तो चाहते हैं लेकिन विवश दिखाई पड़ते हैं।
उपन्यास की भाषा के बारे में दो शब्द कहकर अपनी बात समाप्त करना चाहूंगा। नवीन जोशी की भाषा की बुनावट मुझे चकित करती है। उसमें न कहीं बनावटीपन है न कहीं चकाचौंध करने की भावना। सीधी, सरल, देसी टकसाली हिंदी जो सब कुछ साफ़ बयाँ कर देती है। कथानक चूँकि उत्तराखंड से संबंधित है, इसलिए यथास्थान गढ़वाली-कुमाउँनी की सौंधी महक ऊर्जा देती रहती है। मुझे बार-बार लगता रहा है कि नवीन जोशी की भाषा एक स्वतंत्र शोध का विषय हो सकता है।
कुल मिलाकर उपन्यास पाठक को दिल की गहराई तक छू जाता है। बार-बार पढ़ने को मन करता है। इसका टिहरी डूबने का प्रसंग हो या तराई भाबर के अत्याचार का, या उमेश डोभाल का, या फिर पुष्कर की दीदी, बुआ, चाची का, ऐसे अनेक प्रसंग हैंं, जो पाठक को भावुक कर देते हैं, भिगो जाते हैं । यह सचमुच एक अमूल्य दस्तावेज़ है। समकालीन विकास के इतिहास का ऐसा साहित्यिक दस्तावेज़ जिसे किसी आर्काइव में सँभाले जाने की नहीं, पाठकों के द्वारा पढ़े जाने की आवश्यकता है और मुझे विश्वास है कि इसे हाथों हाथ लिया जाएगा।"
~सुरेश पंत, नई दिल्ली, 25 सितम्बर, 2022
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पुस्तक : देवभूमि डेवलपर्स (उपन्यास)
लेखक : नवीन जोशी
प्रकाशक : हिंदयुग्म, नोएडा
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