1970-80 के दशक की बात है। आकाशवाणी, लखनऊ से प्रसारित होने वाले 'उत्तरायण’ कार्यक्रम में कुमाऊंनी कविता, कहानी या वार्ता पढ़ने न जाना हो तो भी हम वहां अक्सर पहुंच जाते थे। जिज्ञासु जी, जरधारी जी और दूसरे रचनाकारों के साथ बैठकी जमती। ‘उत्तरायण एकांश’ की मेजों पर श्रोताओं की फरमाइशी चिट्ठियों का ढेर लगा होता। ये चिट्ठियां सुदूर पहाड़ी शहरों-कस्बों-गांवों से आती थीं और सबसे ज्यादा सीमांतों पर तैनात पहाड़ी फौजियों की बटालियनों से। मैं अपने वरिष्ठों की बातचीत सुनने के साथ-साथ इन फरमाइशी पोस्टकार्डों को पलटता रहता था, जो गीतों-गायक-गायिकाओं के नाम से छांट कर अलग-अलग़ ढेरियों में रखे रहते थे। फरमाइशी चिट्ठियों का सबसे बड़ा ढेर ‘ओ परुआ बौज्यू, चप्पल के ल्याछा यास, फटफटै नी हुनी चप्पल के लाछा यास!’ गीत की होती थीं, जो शेरसिंह बिष्ट ‘अनपढ़’ का लिखा और वीना तिवारी का गाया हुआ था। उसके बाद जिन गीतों को सुनने की फरमाइश सबसे अधिक होती थी उनमें ‘आ लिली बाकरी लिली छ्यू-छ्यू’, ‘रंगीलि बिंदी घाघरि काइ, धोती लाल किनारि वाइ, हाय-हाय रे मिजाता..’, ‘बुरुशी का फूलों को कुमकुम मारो, डाना-काना छाजी गे बसंती नारंगी’, ‘आज पनी जौं-जौं, भोल पनी जौं, पोरखिन त नैही जौंला...’ जैसे लोकप्रिय गीतों का नम्बर आता था।
हीरा सिंह राणा का नाम और उनके गीत मैंने तभी सुने थे। वीना
तिवारी ‘उत्तरायण’ की बहुत मीठी, सुरीली और जानी-पहचान आवाज रही हैं। शेरदा का ‘ओ परुआ
बौज्यू...’ से लेकर राणा जी के ‘आ लिली
बाकरी..’ और ‘रंगीलि बिंदी घाघरी काइ..’
जैसे गीत उनकी सुरीली-मीठी की आवाज में बजते थे तो उत्तरायण के स्टूडियो
में या ड्यूटी रूम में जिज्ञासु जी का इंतजार करते हुए हम ही मुग्ध नहीं होते थे,
बल्कि पहाड़ी गांवों-कस्बों से लेकर सीमांतों में तैनात उत्तराखण्डी
फौजी भी कभी नराई और कभी हास्य-विनोद से तरंगित हो जाया करते थे। उत्तराखण्ड से
बहुत से गायक-कवि ‘उत्तरायण’ में अक्सर
लखनऊ बुलाए जाते थे। सो, उनसे परिचय और घनिष्ठता भी होती गई।
हीरा सिंह राणा का आना बहुत कम होता था क्योंकि दिल्ली में होने के कारण उनकी
रिकॉर्डिंग आकाशवाणी के दिल्ली केंद्र से मंगवा ली जाती थी। ऐसा ही नियम था। तो भी
वे कभी विशेष अवसरों पर आमंत्रित श्रोताओं के समक्ष कविता पाठ के लिए बुलाए जाते
थे। तब हमने अपनी ‘आंखर’ संस्था के मंच
पर उनकी प्रस्तुति भी कराई थी जिसमें उन्होंने अपने कुछ लोकप्रिय गीतों के अलावा
अन्य गीत भी अपनी लोक में पगी बुलंद आवाज में सुनाए थे। ‘आंख्रर’
की कई सांस्कृतिक संध्याओं में हमने ‘आ लिलि,
बाकरी लिली छ्यू-छ्यू’ गीत की नृत्य-प्रस्तुति
की थी, जिसमें कई बालक-बालिकाओं के साथ मैंने भी कलाकार
यतींद्र जखमोला जी के बनाए बकरियों के मुखौटे पहन कर मंच पर चौपाया दौड़ते हुए
ग्वाले के सिकड़े खाए और घुटने-कुहनियां छिलवाए थे। बाद में भी राणा जी का विभिन्न
कार्यक्रमों में लखनऊ आना होता रहा था।
आज कई वर्ष बाद ‘लस्का कमर बांदा’ पुस्तक
के रूप में कवि-गिदार हीरा सिंह राणा मेरे सामने हैं तो पुरानी यादें उभरने के साथ
ही उन्हें समग्रता में जानने का अवसर मिल रहा है। राणा जी के गीतों, कविताओं और नाटकों का यह ‘समग्र’ संकलन सामने लाने का श्रम-साध्य काम चारु तिवारी ने किया है, जो न केवल राणा जी के करीबी रहे, बल्कि उत्तराखंड की
राजनीतिक और सांस्कृतिक चेतना के सजग-सक्रिय सेनानी भी हैं। हिमांतर प्रकाशन ने
इसे सुरुचिपूर्ण ढंग से छापा है।
‘लस्का कमर बांदा’ में राणा जी की अब तक
प्रकाशित सभी पुस्तकों की रचनाएं भूमिकाओं और आवरण-चित्र के साथ खण्डवार प्रस्तुत
की गई हैं तो अप्रकाशित कविताओं-गीतों को भी खोजकर शामिल किया गया है। यह वास्तव
में कठिन काम है। चारु तिवारी ने अपनी विस्तृत भूमिका में लिखा है- “हीरा सिंह
राणा ने अपनी पचास वर्ष से अधिक की रचना-यात्रा में जो भी लिखा-गाया, वह लोगों तक पहुंचे, इस मंशा से इस समग्र को
प्रकाशित करने का विचार किया गया। उनकी रचनाओं को संकलित करना बहुत श्रमसाध्य काम
था। उन्होंने अपनी रचनाओं को व्यवस्थित कर नहीं रखा था।” असल में किसी रचनाकार का
समग्र साहित्य उसके समय, सोच, सरोकार,
समाज, संघर्ष, भाषा,
मान्यताएं और बदलाव को समझने का महत्त्वपूर्ण माध्यम होता है। इस
लिहाज से हीरा सिंह राणा का यह समग्र और भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है। वे उस समाज
में रचनारत थे जिसकी जड़ें अपनी परम्पराओं में गहरे जमी थीं लेकिन जो कई कोणों से
निरंतर और तेजी से बदल भी रहा था। वहां अभावों, कष्टों,
विडम्बनाओं की कमी नहीं थी, जहां प्रकृति की
अकूत सम्पदा थी लेकिन उसका कोई सदुपयोग समाज के लिए नहीं हो पा रहा था, जहां पलायन माथे पर लिखा हुआ सच था, इसके बावजूद
सपनों-आशाओं का आसमान भी चमकता था। खुद उन्होंने बड़े कष्ट में जीवन जीया, खासकर बचपन। यह सब उनकी रचनाओं में तरह-तरह से अभिव्यक्त हुआ। सम्पादक के
शब्दों में कहें तो- “इनमें पहाड़ की महिलाओं के दर्द, आम जन
की तकलीफें, प्रकृति का सौंदर्य, शृंगार
की खूबसूरती, प्रेम-विछोह की व्यथा, लोक
स्वरों की सामूहिक अभिव्यक्ति, हिमालय के संकट, व्यवस्था के खिलाफ प्रतिकार, संघर्ष की जिजीविषा,
सच से साक्षात्कार, जीवन की दार्शनिकता और इतिहास-संस्कृति
का बोध है।”
उनकी पहचान मूलत: गीतकार के रूप में हुई, क्योंकि
वे गाते भी बहुत अच्छा थे लेकिन उनकी कविताएं भी कथ्य और शिल्प की खूबियां लिए हुए
उनके सरोकारों को सामने रखती हैं। ‘गीद कस ल्येखूं’,
‘हम पीड़ लुकानै रया’, ‘हिरदी पीड़’, ‘गरीबै चेली ख्वट डबला’, ‘कौतिकौ थौ’, ‘मनखों पड़्यौव में’, ‘त्यर पहाड़-म्यर पहाड़’ जैसी कई कविताएं-गीतों में उनकी जन-प्रतिबद्धता, दृष्टि,
सम्वेदना और जन-समस्याओं की उनकी समझ साफ होती है। उनकी विज्ञान और
कृषि विषयक कविताएं अलग ही आस्वाद लिए हुए हैं। उनकी रचनाओं में विविधता है,
लोक-मुहावरा है, जन-मन में पैठने की ताकत है और
समय की नब्ज पर पकड़ है। ये खूबियां उन्हें जनता का कवि-गिदार बनाती हैं।
राणा जी को अपने मानिला (उनका जन्म अल्मोड़ा जिले में मानिला
क्षेत्र के ग्राम डढौली में 16 सितम्बर 1942 को हुआ था) से बहुत प्यार था। स्वाभाविक
ही मानिला पर उनके कई गीत हैं। बल्कि, उनके दूसरे प्रकाशित संग्रह (1976) का नाम
ही ‘मानिला डानि’ है। बाद में दिल्ली
रहते हुए भी उनके हंस-प्राण मानिला में डोलते थे। अपनी माटी से गहरे जुड़ाव ने
उन्हें अपनी बोली का विपुल शब्द भण्डार और लोक की समझ ने मोहक शिल्प दिया। उनके
गीत-कविताएं और समग्र में संकलित चार नाटक भी कुमाउनी बोली की पछाईं शैली का अद्भुत
लालित्य लिए हुए हैं। सम्पादक-प्रकाशक ने यह बहुत अच्छा काम किया कि पुस्तक के अंत
में राणा जी के गीतों में आए पछाई बोली के ठेठ शब्द ही नहीं, बल्कि स्थानीय लोक-बिम्ब और मुहावरे-कहावतें भी अर्थ खोलते हुए रख दिए हैं।
यह हमारी बोली का वह खजाना है जिसका पता खो गया है या कहिए कि प्रचलन से बाहर होता
जा रहा है। लोक जीवन के रचनाकार का एक बड़ा योगदान अपनी स्थानीयता का भाषिक सौंदर्य
सहेजना भी होता है। राणा जी की रचनाएं इस दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण हैं।
‘लस्का कमर बांदा’ एक रास्ता भी दिखाता
है। हमारी बोलियों के अन्य महत्त्वपूर्ण रचनाकारों के ‘समग्र’ भी प्रकाशित होने चाहिए। ‘पहाड़’ ने ‘गिर्दा समग्र’ पहले ही
प्रकाशित कर दिया है। शेर सिंह बिष्ट ‘अनपढ़’ का भी समग्र कुछ वर्ष पहले निकला था सुना, हालांकि
मेरे देखने में नहीं आया। नंद कुमार उप्रेती की कुमाउनी रचनाओं का संकलन डॉ प्रयाग
जोशी ने तैयार कर प्रकाशित कराया था। झुसिया दमाई पर गिर्दा ने काम किया था। भानुराम
सुकोटी की प्रमुख रचनाएं एक तारो दूर चलक्यो नाम से अनिल कार्की ने तैयार किया और ‘पहाड़’ ने छापा। पीताम्बर पाण्डे, चंद्र सिंह राही, जीत सिंह नेगी, चारु चंद्र पाण्डे, घनश्याम सैलानी, गुणानंद पथिक, केशव अनुरागी, मथुरादत्त
मठपाल, ‘शिखरों के स्वर’ में शामिल
कवियों, और भी ज्ञात-अल्प ज्ञात रचनाकारों की समस्त रचनाओं
का संकलन-विश्लेषण आना चाहिए। अब तो उत्तराखण्डी बोलियों में नियमित पत्रिकाएं
प्रकाशित हो रही है और बहुत सी पुस्तकें भी हर साल प्रकाशित होती हैं। चारु तिवारी
की तरह किसी शोधार्थी का ध्यान अपने पुरखे रचनाकारों के समग्र तैयार करने की ओर
जाना चाहिए, जिनका लेखन व्यवस्थित नहीं है। कुमाउनी बोली की पहली पत्रिका ‘अचल’ (1938-40) के सम्पादक जीवन चंद्र जोशी और
हुक्का क्लब, अल्मोड़ा के संस्थापक चंद्र लाल चौधरी जी का
लिखा खूबसूरत कुमाउनी गद्य भी संकलित होना चाहिए। कुछ भी लिखकर किताबें छपवाने की
होड़ की तुलना में बोलियों के साहित्य के लिए यह समर्पित काम अत्यंत श्लाघनीय होगा।
कवि-गिदार हीरा सिंह राणा की रचनाओं के इस समग्र संकलन के
लिए सम्पादक और प्रकाशक को साधुवाद।
- न जो
पुस्तक- ‘लस्का कमर बांदा’, सम्पादक-चारु
तिवारी, प्रकाशक- हिमांतर प्रकाशन, पृष्ठ-
458, मूल्य- रु 550/-, सम्पर्क-
8860999449
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