“मुझे ग्यारह रन और बनाने हैं
सिर्फ ग्यारह रन
एक छक्का एक चौका और एक रन
या दो चौके और तीन एकल रन
मेरा शतक पूरा हो जाएगा
थका नहीं हूं अभी मैं
डटा रहूंगा मैदान में
पूरे दमखम के साथ”
अपने जीवन के 89 वर्ष पूरे कर लेने पर शेखर जोशी जी ने ‘नवें दशक की दहलीज पर’ शीर्षक से जो कविता लिखी थी, ये उसकी शुरुआती पंक्तियां हैं। अक्सर वे कहते भी थे कि मुझे सैकड़ा लगाना है। बिल्कुल स्वस्थ थे, सीधे और ठसक से चलते हुए, आवाज में माधुर्य और दृढ़ता दोनों, स्मृति इतनी अच्छी कि अपनी और पसंदीदा कवियों की कविताएं बिना अटके सुना जाते, अपने समकालीनों की एक-एक बात तारीख के साथ याद थी। बस, एक असाध्य बीमारी के कारण आंखें बहुत कमजोर हो गई थीं। चेहरे भी पहचान नहीं पाते थे। तो भी लिखना-पढ़ना नहीं छोड़ा था। डॉक्टर ने उन्हें एक आतिशी शीशा दिया था जिससे छपे अक्षर बड़े तो दिखते ही हैं, उस यंत्र के भीतर से आती रोशनी में चमकते भी हैं। उसी यंत्र को एक आंख पर चिपकाए वे धीरे-धीरे कोई कहानी या कविता या लेख पढ़ लेते थे। यह तकलीफदेह प्रक्रिया थी, आंखों में दर्द होने लगता था लेकिन कहते थे- “इसी के सहारे तो चल रहा हूं।” कहानी लिखने का श्रम नहीं हो पाता था लेकिन कविताएं लिख रहे थे। अंगुलियों के सहारे कलम घसीट कर लिखते, फिर आकारवर्धक शीशे से पढ़ते और ठीक करते और किसी से टाइप करवाते। इन दिनों मुख्य रूप से कुमाऊंनी में कविताएं और रोचक किस्से लिख रहे थे जिन्हें मुझे भेजते और फोन पर बताते कि क्या लिखा है। मेरा काम उन्हें टाइप करके पत्रिकाओं को भेजना होता था। साहित्यिक लेखन से उनके अद्यतन रहने का ताजा उदाहरण यह है कि अंतराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार से सम्मानित गीतांजलि श्री के उपन्यास ‘रेत समाधि’ का अंग्रेजी संस्करण (जो उनकी पोती ले आई थी) न केवल ‘उलटा-पुलटा’ एवं उसका कथासार जाना, बल्कि गीतांजलि श्री और डेजी रॉकवेल के बारे में जानकारी भी हासिल कर ली। गीतांजलि श्री को बधाई देते हुए उन्होंने यह भी पूछा था कि “जब डेजी रॉकवेल ने वर्षों पहले भीष्म साहनी के ‘तमस’ का अंग्रेजी अनुवाद किया था, तो वह पुरस्कार समिति के संज्ञान में क्यों नहीं आया?”
यह सब देखते-जानते हमें उनके दमखम और शतक लगा लेने की
जिजीविषा पर कोई संदेह नहीं था। नब्बे पार करते ही वे एकाएक चले गए। इसका कोई मलाल
उन्हें नहीं होगा। हमें दुख होना स्वाभाविक है लेकिन संतोष है कि वे खूब रचनात्मक
सक्रियता, उपलब्धियों और कीर्तिमानों के साथ पैवेलियन लौटे। अपनी उपर्युक्त
कविता में वे लिख भी गए हैं-
“यह तो खेल है
प्रतिपक्ष का
कोई फिरकी गेंदबाज
यदि मेरा
विकेट गिरा दे
या कोई शातिर
फील्डर
बाउण्ड्री पार
करती गेंद को लपक ले
और मेरा शतक
अधूरा रह जाए
तो भी मुझे
अफसोस न होगा
मैं मुस्कराता
हुआ पैवेलियन लौट जाउंगा...”
पांच अक्टूबर की सुबह वसुंधरा, गाजियाबाद स्थित उनके छोटे बेटे संजय जोशी के घर से जब उनकी देह एक मेडिकल कॉलेज को उनकी इच्छानुसार दान की जा रही थी तो वहां जुटे परिवारी जन, सम्बंधी और चाहने वाले इसी कविता का पाठ कर रहे थे। वहां रोना-धोना नहीं मचा था, बल्कि ‘शेखर जोशी, अमर रहें’ और ‘लाल सलाम’ के नारे लगाए जा रहे थे। उस समय वे निश्चय ही मुस्करा रहे होंगे। एक बार मुझसे कहा भी था- “यार नबू, चार कंधों पर बिसूरता हुआ नहीं जाउंगा।” एक स्वाभिमानी, सचेत, समर्पित और प्रतिबद्ध लेखक की विदाई ऐसी ही होनी चाहिए। अब वे पैवेलियन में अपने अग्रज खिलाड़यों के साथ बैठे होंगे, जिनसे उन्होंने बहुत कुछ सीखा था। अब उनसे सीखने की बारी हमारी है।
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शेखर जोशी ने पहली कहानी ‘राजे खत्म हो गए’ शीर्षक से
1952 या 53 में लिखी थी। दूसरी कहानी ‘आदमी और कीड़े’ उन्हीं
दिनों ‘धर्मयुग’ की कहानी प्रतियोगिता
में प्रथम चुनी गई थी। तीसरी कहानी ‘दाज्यू’ (1954) ने उन्हें कहानीकार के रूप में प्रसिद्धि दिलाई। यह कहानी नंद किशोर
नौटियाल के कहने पर दिल्ली में ‘होटल वर्कर्स यूनियन’
और ‘पर्वतीय जन विकास समिति’ की पत्रिका ‘पर्वत जन’ के
वार्षिकांक के लिए लिखी गई थी। तब शेखर जोशी सेना की ईएमई ट्रेनिंग के लिए दिल्ली
में थे। 1955 में उन्हें नैनी (इलाहाबाद) की आयुध फैक्ट्री में तैनाती मिली। तब का
इलाहाबाद हिंदी साहित्य का प्रसिद्ध गढ़ था। निराला, महादेवी,
पंत, फिराक तो थे ही, अमृत
राय, भैरव प्रसाद गुप्त, उपेंद्र नाथ
अश्क, शमशेर बहादुर सिंह, आदि
प्रगतिशील लेखकों का जमावड़ा था। परिमल ग्रुप में जगदीश गुप्त, जयदेव नारायण साही, रामस्वरूप चतुर्वेदी, लक्ष्मीकांत वर्मा, आदि। नए लेखकों में दुष्यंत,
मार्कण्डेय, कमलेश्वर, अमरकांत,
ज्ञान प्रकाश, उमाकांत मालवीय, वगैरह। कॉफी हाउस में बैठने वालों का ‘शनीचरी ग्रुप’
था। साहित्यिक गोष्ठियां होती थीं। पूरा शहर साहित्यिक माहौल में
रंगा हुआ था। भैरव जी के सम्पादन में निकलने वाली ‘कहानी’
पत्रिका की धूम थी। भैरव जी के आग्रह पर एक दिन शेखर जोशी ने अमृत
राय के घर पर हो रही गोष्ठी में ‘दाज्यू’ कहानी पड़ी। उसकी खूब प्रशंसा हुई और अश्क जी ने वहीं उनसे उसकी प्रति लेकर
अपने सम्पादन में ‘संकेत’ संकलन में शामिल
किया। ‘संकेत’ में छपने के बाद उसकी
व्यापक चर्चा हुई और शेखर जोशी अच्छे युवा कथाकारों में गिने जाने लगे।
फिर एक संयोग से ही भैरव जी के कहने पर शेखर जी ने कामगार
जगत की कहानियां लिखनी शुरू कीं। (भैरव जी की सलाह पर ही वे अपना पूरा नाम चंद्र
शेखर जोशी की बजाय सिर्फ शेखर जोशी लिखने लगे) आयुध कारखाने में दिन भर श्रमिकों
के साथ काम करते थे और उनसे बहुत अच्छे रिश्ते बन गए थे। इस क्रम में पहली कहानी ‘उस्ताद’
लिखी गई। फिर अमृत राय ने कहा कि हमारे संकलन के लिए इससे भी अच्छी
कहानी लिखो। तब ‘बदबू’ कहानी की रचना
हुई। इन कथाओं की इतनी चर्चा हुई कि शेखर जोशी प्रसिद्ध हो गए। फिर ‘मेण्टल’, ‘सीढ़ियां’, ‘हेड
मासिंजर मंटू’, ‘जी हजूरिया’ जैसी
कथाओं से शुरू करके रिटायर होने के बाद ‘आशीर्वचन’ जैसी कहानी लिखने तक यह सिलसिला चलता रहा।
प्रसिद्धि मिल जाने के बावजूद उन्होंने कहानियां लिखने में
कोई तेजी या जल्दबाजी नहीं दिखाई। एक तो उनके
पास समय कम रहता था। सुबह से शाम तक कारखाने की नौकरी थी। नैनी आने-जाने में काफी
वक्त लगता था। दूसरे, वे शुरू से ही बहुत धैर्यवान, लोकप्रियता
में न बहने वाले और ‘थोड़ा लिखना, बहुत
समझना’ वाले अंदाज़ के थे। ऐसा ही उनका व्यक्तित्व भी था, धीर-गम्भीर-सरल और विनम्र। उन्होंने 1952 में पहली और 1992 के आसपास
अंतिम कहानी ‘छोटे शहर के बड़े लोग’ लिखी।
इन चालीस वर्षों में उन्होंने कुल साठ कहानियां लिखीं। शेखर जोशी जैसे सक्रिय और
चर्चित कहानीकार के खाते में यह बहुत ही कम कहानियां कही जाएंगी लेकिन कमाल यह है
कि उनकी करीब एक दर्जन ऐसी कहानियां हैं जिनकी चर्चा किए बिना आज भी हिंदी कहानी
पर विमर्श पूरा नहीं होता। पिछले तीस साल से उन्होंने कोई कहानी नहीं लिखी थी
लेकिन हम कह सकते हैं कि वे हिंदी कथा साहित्य के परिदृश्य पर लगातार छाए रहे। यह
विरल उपलब्धि है।
उनकी स्कूली पढ़ाई अधिक नहीं हुई। बचपन में ही माता के निधन के बाद उन्हें पढ़ने के लिए मामा के पास सुदूर अजमेर के निकट केकड़ी कस्बे में भेज दिया गया था। इण्टर पास करने के बाद वे सेना की ‘कोर ऑफ इलेक्ट्रिकल एण्ड मैकेनिकल इंजीनियर्स’ में प्रशिक्षण के लिए चुन लिए गए। चार साल दिल्ली में प्रशिक्षण के बाद नैनी में तैनात हो गए। वे बताते थे कि अकादमिक पढ़ाई की इस कमी को मैंने स्वाध्याय से पूरा किया। इलाहाबाद में वरिष्ठ साहित्यकारों की संगत में बहुत कुछ सीखा लेकिन लिखने से अधिक पढ़ने पर ध्यान दिया। बहुत सारा देसी-विदेशी साहित्य पढ़ा। इस अध्ययन-मनन से उन्होंने अपने लिखने के लिए विशिष्ट शैली चुनी। बहुत चुपके से, कम शब्दों में, बिना चौंकाए या चमत्कार पैदा किए बड़ी कहानी कह जाना। ध्यान दीजिए कि उन्होंने श्रमिकों की, कारखानों की और उनमें जाग्रत होती वर्ग चेतना की कहानियां लिखीं। विचारों से मार्क्सवादी थे लेकिन उनकी श्रम जगत की कहानियों में कोई क्रांति नहीं होती, नारे नहीं लगते, हड़तालें नहीं होतीं, और तो और वे गेट मीटिंग का जिक्र भी नहीं करते। इसके बावजूद उनकी कहानियां श्रमिकों के शोषण, प्रबंधकों-मालिकों के अत्याचारों और क्रमश: फैलती वर्ग चेतना को पूरे प्रभाव से दर्ज कर जाती हैं। यही उनकी कथाओं, भाषा और शैली की विशेषता है। यही उनकी कहानियों को यादगार बनाता है।
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शेखर जी की लगभग साठ कहानियों को तीन विशिष्ट वर्गों में
रखा जा सकता है। पहला- पहाड़ की कहानियां। कुमाऊं के श्रम-साध्य, सरल,
अभावग्रस्त, सामंती संस्कारों में जकड़े,
उसे ही नियति माने बैठे या मुक्ति के लिए छटपटाते, विस्थापन झेलते जन-जीवन का जैसा यथार्थ चित्रण उन्होंने किया है, वह अद्वितीय है। दूसरा- कामगार जीवन की कथाएं। श्रमिकों के जीवन-संघर्ष,
पूंजीवादी जकड़न, शोषण, वर्ग
चेतना, प्रतिरोध, मशीनों एवं मानवीय
रिश्तों की ऊष्मा, गरिमा और शिल्प के सम्मान की यादगार कथाएं
लिखने वाले वे लगभग अकेले हैं। और तीसरा- ग्रामीण-कस्बाई-शहरी निम्न एवं मध्य वर्ग
की संवेदनशील कथाएं। प्रगतिशील मूल्यों के साथ प्रतीकों, बिम्बों
एवं अति सामान्य-सी लगने वाली घटनाओं से आकार में छोटी और अर्थों में बड़ी कहानियों
में वे इस वर्ग का जीवन चित्रित कर जाते हैं। पहाड़ (आज का उत्तराखण्ड) से कई लेखक
हुए और वहां के जन-जीवन पर बहुत लिखा गया है लेकिन शेखर जी के लेखन को अलग से
रेखांकित किया जा सकता है। उनकी दृष्टि हमेशा यथार्थ पर रही जिसे उन्होंने अपनी
अनोखी शैली में दर्ज किया। पहाड़ का सौंदर्य या उसकी बोली-बानी की लटक के अन्यथा
प्रदर्शन में उनकी रुचि नहीं रही। जितना कथा की पीठिका के निर्माण के लिए जरूरी
लगा, उतना ही जिक्र कर दिया, बस। उनकी
दृष्टि अपमानित-उपेक्षित शिल्पकार वर्ग तक गई तो साम्प्रदायिक ताकतों की पहचान
करना भी वे नहीं भूले।
कविताएं लिखना भी शेखर जी को पसंद था। 1952 से ही वे कभी-कभार कविताएं लिखते आए, हालांकि उनकी विशेष पहचान कथाकार की ही बनी। कई वर्ष पहले उनका एक कविता संकलन ‘उन्हें रोको नहीं, शुभा’ नाम से आया था। हाल ही में नवारुण प्रकाशन ने उनका कविता-समग्र ‘पार्वती’ नाम से छापा। उन्होंने अपने बचपन के पहाड़ की स्मृतियों को दो साल पहले आई किताब ‘मेरा ओलिया
गांव’ में दर्ज किया
है, जो सत्तर-अस्सी साल पहले के पहाड़ का सामाजिक
यथार्थ-चित्र है। पिछले दिनों वे अपने कथा-समग्र को तैयार करने में लगे थे। उनके
बेटे संजय ही इसे ‘नवारुण’ से प्रकाशित
कर रहे हैं। योजना तो इसे उनके नब्बे वर्ष पूरे होने पर ससमारोह जारी करने की थी
लेकिन कुछ विलम्ब हो गया। मुझसे इसकी भूमिका लिखने को कहा और मेरे संकोच को खारिज
किया। भूमिका पढ़कर खुश हुए थे लेकिन कहा था कि तुमने मुझे बहुत चढ़ा दिया। यह उनका
बड़प्पन और स्नेह ही था। अपनी कुमाऊंनी रचनाओं का संकलन तैयार करने की जिम्मेदारी
भी वे मुझे दे गए। अक्सर पूछते थे कि कोई कुमाऊंनी टाइप करने वाला मिला क्या?
संजय बता रहे हैं कि अस्पताल जाते हुए भी कथा-समग्र के आवरण-चित्र
के बारे में पूछ रहे थे। वे अपने लेखन की तरह ही प्रस्तुतीकरण को लेकर भी बहुत
सतर्क रहते थे।
हम उन्हें ‘दाज्यू’ कहते थे यानी
बड़ा भाई। वास्तव में, वे ‘दाज्यू’
से भी बड़े थे हमारे लिए। उनका स्नेह, सीख-सलाह,
निर्देश, डांट-फटकार सब बहुत याद आएंगे। उनकी
रचनात्मक उपस्थिति के बावजूद एक शून्य बना ही रहेगा।
- (नया ज्ञानोदय, अक्टूबर-दिसम्बर, 2022)
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