Wednesday, October 25, 2023

आज के गांव-गिराम-किसान की प्रामाणिक कथा - अगम बहै दरियाव

शिवमूर्ति जी का नया उपन्यास 'अगम बहै दरियाव' पढ़कर जितना उद्विग्न हूं उतना ही प्रसन्न भी। 

उद्विग्न इसलिए हूं कि भारतीय ग्रामीण-कस्बाई समाज, हमारी प्रशासनिक व्यवस्था, जातीय शिकंजे और राजनीति के विद्रूप का जैसा सच्चा एवं निर्मम चित्रण उन्होंने किया है, वह देखा-भाला व सुना-सुनाया होकर भी 'स्वतंत्रता के अमृतकाल' में इतनी तीव्रता से भेदता है कि आह भी नहीं निकल पाती। प्रसन्नता इसलिए कि हिंदी में गांव और किसान और दलित-पिछड़ी जातियों के संघर्षों के प्रामाणिक लेखन की बड़ी कमी को यह उपन्यास पूरा करता है। शिवमूर्ति जी को बहुत-बहुत बधाई। वैसे, उपन्यास पढ़ना समाप्त करने के तत्काल बाद उन्हें फोन करके बधाई देने से अपने को रोक न सका था। 

'अगम बहै दरियाव' पढ़ना शुरू करने के साथ ही 'गोदान', 'मैला आँचल', 'राग दरबारी', 'धरती धन न अपना', 'कब तक पुकारूं, और 'बेदखल' व 'पाहीघर' जैसे उपन्यास साथ चलने लगते हैं। यह इस उपन्यास की कमजोरी नहीं, खूबी है कि यह उन सबके मुद्दों को नए संदर्भों एवं वर्तमान स्थितियों में उठाता है और उनसे आगे निकल जाता है। 'गोदान' 1935 में आया था अर्थात स्वतंत्रता से पूर्व और यहां उल्लिखित अन्य उपन्यास  स्वतंत्रता के पश्चात लेकिन, अगर मैं गलत नहीं हूं तो, 1970-75 से पहले लिखे गए थे। उसके बाद भारतीय समाज में बहुत बड़ा बदलाव आ गया है। राजनीति से लेकर आर्थिक नीतियों तक में भारी उलट-पुलट हो गई। विकास कहते हैं जिसे, वह भी अपनी अन्तर्निहित बर्बादियों के साथ खूब नमूदार हुआ है। गांव और खेती-किसानी भी बदले हैं लेकिन किसानों के शोषण, उपेक्षाओं और अनेकानेक संकटों का शिकंजा कतई ढीला नहीं हुआ है। खेती घाटे का पेशा ही नहीं है, अगर सीमांत या लघु किसान हैं तो पूरी मरन है। 'अगम बहै दरियाव' 1970 के दशक से लेकर आज तक के उत्तर भारतीय ग्रामीण समाज की प्रामाणिक कथा है, जिसके केंद्र में आम किसान हैं जो अपने कष्ट और संकट सीधे होरी और गोबर के समय विरासत में पाए चले आ रहे हैं। 

1980-90 के दशकों के बाद भारतीय समाज में विदेशी पूंजी आई, बाजार विकराल हुए और दलित पिछड़े समाज में अपने शोषण-उत्पीड़न के विरुद्ध राजनैतिक-सामाजिक चेतना भी आई। मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद पिछड़ों को सभी क्षेत्रों में ताकत मिली। दलित राजनैतिक चेतना के विकास ने दलित जातियों को आवाज उठाने की हिम्मत दी और सत्ता का स्वाद चखाया, हालांकि यह परिवर्तन भी नव-सामंतवाद और ब्राह्मणवाद का शिकार होता गया। किसान के हिस्से क्या आया? एम एस पी का दिखावा, बीजों व उर्वरकों की आड़ में ठगी, ऋण का जाल और ऋण-माफी की राजनैतिक चालें। समर्थन मूल्य पर अनाजों की ठीक-ठाक खरीद की भी व्यवस्था 'अमृत काल' तक पहुंच चुकी आज़ादी नहीं दिला सकी। देश भर में पिछले दशकों में किसान आत्महत्याओं का भयावह आंकड़ा क्या बताता है? 'अगम बहै दरियाव' में एक पांड़े जी हैं, बैंक वाले जिन्हें सपने दिखाकर ट्रैक्टर के लिए ऋण दिलवाते हैं और अपने खेतों की नीलामी से लेकर क्या-क्या नरक नहीं झेलकर पांड़े जी अंतत: अपने प्यारे महुए के पेड़ की डाल से धोती का फंदा कसकर लटक जाते हैं।  ये पांड़े जी तो बाभन थे लेकिन थे तो किसान ही! और जो बाभन नहीं हैं और कहने  भर को किसान हैं लेकिन मजूरी से किसी तरह नमक-रोटी खा पाते हैं, उनका तो जीवन हर ओर से घुट रहा है। ठाकुर छत्रधारी की साजिशों के चलते छोटी-छोटी जोत वाले किसानों के एकाध खेत भी उनके कब्जे में जा रहे हैं और एक संतोखी हैं जो छत्रधारी के खास थे लेकिन उसने उनका भी खेत हड़प लिया तो वे ठान लेते हैं मर जाएंगे लेकिन अदालत से न्याय पाकर छत्रधारी से अपना खेत छुड़वाएंगे। छोटी से लेकर बड़ी अदालत तक संतोखी के पक्ष में फैसला देती हैं और 28 साल बद वह दिन आता है जब प्रशासन खेत में कब्जा भी दिला देता है लेकिन संतोखी को तो कब्जा नहीं मिलता क्योंकि छत्रधारी के बंदूकची खेती करने दें तब तो! थाना ही नहीं, पूरा प्रशासन और समाज का ऊपरी तबका छत्रधारी के साथ है। अदालत की भी नहीं मानी जाने पर संतोखी की शिकायत पर थाना प्रभारी कहते हैं कि यह बंदूक सबसे बड़ी अदालत है। आखिर बत्तीस साल बाद खेत संतोखी के कब्जे में तब आता है जब जंगू 'डकैत' छत्रधारी को धमकी देता है। और, यह जंगू कौन है? वह भी छत्रधारी का सताया-उजाड़ा दीन-हीन दलित है जिसने फूलन की राह पर चलकर गरीबों-शोषितों को न्याय दिलाने की ठानी है लेकिन जो राजपूतों-ब्राह्मणों की सरकार के निशाने पर है। मान्यवर और बहनजी के राजनैतिक पटल पर आगमन के बाद दलित समाज में जो उत्साह पैदा होता है,और जो एकता दिखती है और उनके सत्ता पाने के बाद जो हौसले बुलंद होते हैं और उसके विरुद्ध जो विष-वमन होता है, उस सबका बेहतरीन चित्रण शिवमूर्ति करते हैं और फिर यह भी कि 'हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा-विष्णु-महेश' है वाले बेमेल राजनैतिक गठबंधन के बाद और टिकट व जन्मदिनों के बहाने भारी वसूली अभियानों के कारण किस तरह दलित जनता का मोहभंग होता है। तूफानी जैसा चरित्र इस उत्थान-पतन का जीवंत गवाह है।

'अगम बहै दरियाव' विशाल कलेवर का उपन्यास है, 586 पेजों में बहुत सारे चरित्र हैं और उतनी ही कथाएं जो किसी न किसी सूत्र से अंतर्गुम्फित हैं। एक गांव के बहाने यह पूरा भारत है, कम से उत्तर भारत का आज का ग्रामीण समाज तो यह है ही। विशाल आकार और व्यापक फलक वाले इस उपन्यास की उपयोगिता इसे पढ़कर ही जानी जा सकती है और इसे खूब पढ़ा जाना चाहिए।

शिवमूर्ति की ग्रामीण जन-जीवन पर अद्भुत पकड़ है। इस उपन्यास के पात्र केवल ग्रामीण जन ही नहीं हैं, यहां पेड़-पौधे, फसलें, पशु-पक्षी, हवा-पानी भी पात्रों की तरह आते हैं और उनका व्यवहार मन को छू जाता है। एक-दो प्रसंगों का उल्लेख अवश्य करूंगा। भूसी चौधरी भेड़ें चरा रहे हैं और एक पेड़ के नीचे कमरी बिछाकर बैठे हैं। अब देखिए- "भेड़ें दूर तक चर रही हैं। दो भैंस थोड़ी दूर पर खड़ी हैं। एक भैंस के सींग पर बैठा कौआ उसकी बरौनियों से किलनी बीन निकाल रहा है। भैंस ने मुदित होकर पलकों को हल्के से झपका लिया है। आनंद से उसकी पूंछ तनिक उठ गई है,,, कौआ उठकर दूसरी भैंस के सींग पर बैठ गया। पहली भैंस थूथन उठाकर कौए के पास ले गई और नाक से दो बार सूं-सूं किया। यानी फिर मेरे पास आ जा। इस पर दूसरी भैंस ने गुस्से की मुद्रा बनाई और कान खड़े कर दिए, ताकि कौआ वापस न जाकर कान की किलनियां निकाले।" इसी प्रसंग आगे माठा बाबा भूसी के पास आते हैं। उन्हें एक बार भूसी के गामा नाम के सिंघाड़ा भेड़े ने ठोकर मार-मार कर गिरा लिया था लेकिन अब गामा बैकुंठ सिधार गया है। उसकी चर्चा आगे बढ़कर भेड़ों की रखवाली करते कुत्तों और घात में बैठे भेड़ियों तक जा पहुंचती है, जो अब खत्म हो गए हैं। भूसी बताते हैं कि एक बार खैरा (भेड़िया) उनके भेड़ के बच्चे को मुंह में दबा ले गया था और उन्होंने दौड़कर उसे छुड़ा लिया लेकिन... "मैंने पास जाकर देखा। बच्चे के गले पर दांत धंस गए थे। उसे मर ही जाना था। मैंने सोचा कि इसने इतना जोखिम उठाकर अकेले दम शिकार किया है। इसके मुंह का कौर छीनना ठीक नहीं। बच्चे को छोड़कर लौट आया।... भूसी थोड़ी देर तक खैरा की याद में खोए रहे। फिर बोले- "सब खतम हो गए। वे होते तो दुनिया और सुंदर होती।" 

सृष्टि के सह-जीवन के सम्मान के इस दर्शन की हमारे कथा-साहित्य में घोर अनुपस्थिति है लेकिन शिवमूर्ति के यहां यह अपने सुन्दर रूप में है। भेड़िए, बाघ, सांप, आदि मनुष्य के दुश्मन घोषित हैं और हमारे मुहावरों ने इस दृष्टि को पाला-पोषा है किंतु यह सृष्टि उनके होने से भी होती है और सुंदर होती है। 'अगम बहै दरियाव' में ऐसे कई प्रसंग हैं। एक और प्रसंग है जब पहलवान के बछड़े को कसाई खरीदने आया है। वे सोचते हैं कोई  किसान ले जाता तो बैल बनाकर खेत जोतता लेकिन अब तो खूंटे से बैल गायब ही होते जा रहे हैं। वे बेचना नहीं चाहते लेकिन मजबूरी आ पड़ी है। कसाई पगहा पकड़कर बछड़े को ले नहीं जा पा रहा। गाय अलग रंभा रही है। वह समझ रही है कि जो उसके बछड़े को ले जा रहा है, वह कम से कम किसान नहीं है। जानवर यह खूब समझते हैं, निगाह पहचान लेते हैं। तो, बछड़ा जोर लगाकर कसाई को पटककर पगहा छुड़ाकर लौट आया है। कसाई मिट्टी में सना हुआ आकर पहलवान से कहता है- "आप उसका पगहा खुद मेरे हाथ में पकड़ाइए और दूर तक हंकवा दीजिए। इससे जानवर जान जाएगा कि मालिक ने अपनी मर्जी से उसे सौंपा है। तब उसका जोर अपने आप आधा रह जाएगा। तभी उसे ले जा पाऊंगा।"

अवध क्षेत्र की कथा-भूमि वाले इस उपन्यास में शिवमूर्ति ने अवध की बोली-बानी और लुप्त होते जा रहे शब्दों का अत्यंत सुंदर-मोहक उपयोग किया है। अवधी गीतों, कहावतों और लोकगीतों का उपयोग कथा रस को आत्मीय तो बनाता ही है, जिसे कहते हैं 'चार चांद लगा देना' वैसा भी करता है। 

हिंदी समाज की कृपणता के बावजूद उम्मीद है कि शिवमूर्ति जी का यह उपन्यास चर्चित होगा और बहुत दूर तक अपनी छाप छोड़ेगा।

-न जो, 25 अक्टूबर, 2023

 


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