Wednesday, October 18, 2023

औरतों को अब कोई दुख नहीं हैं न!

'बनास जन' पत्रिका के माध्यम से पल्लव उल्लेखनीय और दस्तावेजी काम कर रहे हैं। दो मास पहले हरिशंकर परसाई पर उन्होंने पठनीय-संग्रहणीय अंक निकाला था। पहले भी वे कई रचनाकारों पर ऐसे अंक निकाल चुके हैं। 'बनास जन' का ताज़ा अंक (64) यूं तो 'सामान्य अंक' है लेकिन उसमें कुछ महत्त्वपूर्ण आलेख हैं। रांघेय राघव के शताब्दी वर्ष में वेंकटेश कुमार का लेख सप्रमाण बताता है कि विलक्षण प्रतिभा के धनी इस रचनाकार की साहित्यिकारों-समीक्षकों ने किस तरह उपेक्षा की। विद्यापति की चर्चित 'अश्लील दृष्टि' के विपरीत स्त्रियों की साहसिक और स्वतंत्र प्रेम-दृष्टि पर कमलानंद झा, सूरदास, बल्लभाचार्य और बल्लभ सम्प्रदाय पर माधव हाड़ा और प्रेमचंद की उपस्थिति पर उमाशंकर चौधरी के लेख ध्यान खींचते हैं लेकिन अंक अभी मिला ही है और इन्हें पढ़ा जाना है। 

'बनास जन' के इस अंक में जिन दो लम्बी कविताओं ने तत्काल ध्यान आकृष्ट किया और पढ़वा ले गईं, वे हैं आशीष त्रिपाठी की 'गहनों की दुकान पर' और प्रभात की 'नीलम मर जाएगी तो इण्डिया खाली थोड़े हो जाएगा'। अंक खोलते ही दोनों कविताओं के शीर्षकों ने पकड़ा और फिर उनकी विषय वस्तु ने। इस तात्कालिक टिप्पणी का आशय फिलहाल इन कविताओं की तनिक चर्चा करना है। 

दोनों लम्बी कविताओं का केंद्र हमारे समाज की आम लड़की या कहिए कि स्त्रियां हैं। 'गहनों की दुकान पर' में आशीष त्रिपाठी गहनों और खरीदारों से लकदक भरे एक विशाल शो रूम में अपनी बारी की प्रतीक्षा में सकुचाई बैठी मां-बेटी का बयान करते हैं, जो अपने को वहां बिल्कुल अवांछित पाते हैं लेकिन चूंकि इस बेटी की शादी तय हुई है और लड़के वालों की ओर से ठीक-ठाक मांग आई है, इसलिए अपनी औकात के बाहर के इस शोरूम से खरीदारी करना उनकी विवशता है। शोरूम में प्रतीक्षारत मां-बेटी प्रकटत: चुप बैठी हुई हैं लेकिन भीतर-भीतर अपने से संवादरत हैं और उसी से हमारे समाज में महिलाओं-लड़कियों की स्थिति, निम्न मध्यम्वर्गीय परिवारों की विवशताएं, प्रेम की आकांक्षा एवं दुविधाएं, समाज के हालात और मानव मन के अंतर्द्वंद्व खुलते हैं- "उसका ध्यान गया अपनी साड़ी की ओर/ दुकान में खरीदारी करती/ ज़्यादातर औरतों की तुलना में/ वह कितनी मामूली थी/ और उसकी सस्ती चप्पल में तो/ जैसे झलकती थी उसकी पूरी बेचारगी/ उसकी बेटी का सलवार सूट भी कितना औसत-सा था...।"  इस कविता में जो बेटी है, जिसका ब्याह तय हुआ है, उसमें बार-बार की दिखाई, होने वाले ससुरालियों की पड़ताल और दहेज की मांगों के विरुद्ध प्रतिरोधी चेतना के संकेत तो मिलते हैं लेकिन परिवार के हालात शायद उसको साहस नहीं देते और वह सब करती जा रही है जो कहा जा रहा है। उसके भीतर प्रेम की आंकाक्षा भी फड़फड़ाती दिखती है, जो विश्वविद्यालय के दिनों में एक लड़के के यह कहने पर कि तुम बिना गहनों के ही सुंदर लगती हो, मुग्ध तो होती है लेकिन कुछ पूछने या कहने का साहस नहीं कर पाती। हाल के दशकों में स्त्रियों में आई चेतना और प्रतिरोध के उनके तीखे होते स्वरों के बावजूद हमारे शहरी-कस्बाई-ग्रामीण समाज में ऐसी बेटियों की अभी बहुत बड़ी संख्या है जिनके सपने स्वयं अपने ही कदमों से कुचल दिए जाने के लिए ही कुलबुलाते हैं। यह कविता इसी समाज का मार्मिक आख्यान है।

प्रभात की कविता में नीलम, जो एक बेटे की मां भी है, मायके में परित्यक्ता का जीवन जी रही है और मां से लेकर रिश्तेदारों तक की आंखों में बहुत खटक रही है। उसका दोष मात्र इतना है कि ससुराल में सास, जेठ और पति द्वारा दासी की तरह सताई-पीटी जाती हुई उसने एक बार मायके आते हुए मात्र इतना कह दिया था, पति नाम के पुरुष से कि 'लेने आओगे तो आऊंगी' और वह कभी नहीं आया। उसका अन्यत्र ब्याह कर दिया गया। इसलिए नीलम मायके में ससुराल से भी अधिक प्रताड़ना झेलती को विवश है, इतनी कि अपनी दुसह वेदना के कारण पागल तक ठहरा दी गई और एक दिन मर गई लेकिन ऐसी स्त्रियां मरती कहां हैं! वे हर जगह पाई जाती हैं- "कुछ का कहना है वह मरी नहीं/ ना ही मरेगी कभी/ और मरी भी कभी तो/मरेगी तब मरेगी/ फिलहाल उसके मरने की कोई आस नहीं/ वह दिखती रहेगी पृथ्वी पर जहां-तहां/ आस पड़ोस में घर में अखबार में।"  नीलम के माध्यम से कवि 'औरतों के दुखों' के बारे में लिखे जाने को, विशेष रूप से कविताओं को प्रश्नांकित करता भी दिखता है- "... कवि बनना ठीक रहेगा/ जब मैं कवि बन जाऊंगी/ औरतओं के दुखों के बारे में/ ऐसा-ऐसा लिखूंगी/ कि सब सोच में पड़ जाएंगे/ औअर्तों को कभी दुख न दे पाएंगे/ .... चुपचाप वह घर के बाहर जाकर खड़ी हो जाती/ हरेक से पूछती/ अब औरतों को कोई दुख नहीं न?/ सब जानने लग गए थे उसे मुहल्ले में/ हंसते हुए कहते- 'नहीं, कोई दुख नहीं है'/ 'पता है यह कैसे हुआ/ क्योंकि मैंने औरतों के दुखों के बारे में लिखा'।"

दोनों कविताओं की विषय-वस्तु अथवा काव्य-वस्तु नई नहीं है। काव्य-शिल्प में वे प्रतीकों, बिम्बों और सांकेतिकता की अपेक्षा कहानियों जैसा वर्णनात्मक वितान लिए हुए हैं लेकिन इनमें काव्य-संवेदना अत्यंत गहन है, गहरे तक छू जाती हैं, झिझोड़ती हैं और पश्न पूछती हैं। 

'बनास जन' के इस अंक के बारे में फिलहाल इतना ही।

-न जो, 19 अक्टूबर, 2023

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