Wednesday, February 22, 2023

ताकि हम उम्र भर मनुष्य बनें और प्रेम करना सीखें

लम्बा अरसा हुआ, हिंदी कविता में स्त्री-चेतना की लगभग अनिवार्य उपस्थिति दर्ज़ हुए। शायद ही कोई समकालीन या पिछली दो-तीन पीढ़ियों का कवि हो जिसकी कविताओं में स्त्री-मुक्ति की तीव्र चाहना न हो। आज तो बहुत सारी कवयत्रियां लिख रही हैं और सदियों से संचित अपनी पीड़ा और आक्रोश को अपने-अपने तरीके से स्वर दे रही हैं। अच्छी बात यह है कि कवि भी इस चेतना से लैस हैं और मार्मिक एवं तेवरदार कविताएं लिख रहे हैं। हालांकि अब यह एक फैशन जैसा भी बन गया है। व्यवहार में घनघोर पुरुषवादी कवि भी स्त्री-विमर्श लिखने में पीछे नहीं रहते। खैर, समाज काफी बदला है। स्त्रियों के प्रति नज़रिए और स्वयं स्त्रियों के अपने प्रति दृष्टिकोण में परिवर्तन आ रहा है। सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक स्तर पर स्त्रियों ने आगे बढ़कर मुकाम हासिल किए हैं लेकिन एक सम्पूर्ण और स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में स्त्री की सहज स्वीकार्यता को अब भी लम्बा सफर तय करना बाकी है। साहित्य, विशेष रूप से कविता में यह स्वागत योग्य तेवर और दृष्टि तीव्रतर होती दिखाई दे रही है। 

हाल के वर्षों में रूपम मिश्र ने हिंदी कविता की इस पृष्ठभूमि में सर्वथा नए तेवर, विषय की गहनता और कहन के साथ अपनी जोरदार उपस्थिति दर्ज़ कराई है। अभी उनका पहला कविता संग्रह आया है- "एक जीवन अलग से" जिसने पाठकों और समीक्षकों का ध्यान खींचा है। पिछले कुछ वर्षों से रूपम की सर्वथा भिन्न तरह की कविताएं फेसबुक पर पढ़ने को मिलीं। पिछले दिनों लखनऊ में उन्हें मंच से सुनने का भी अवसर मिला था। उनकी कविताओं में बेलाग कहन की मौलिकता तो है ही, उस 'पुरबिया परिवेश' की पूरी सामाजिक-सांस्कृतिक जकड़न, धड़कन और तेवरदार प्रतिरोध भी है, जहां वे पली-बढ़ीं-रहती हैं और जहां के समाज की तमाम भीतरी तहों से अच्छी तरह परिचित हैं। ये कविताएं उसी परिवेश का निर्मम, विडम्बनात्मक और आक्रोशभरा बयान हैं। नारी-मुक्ति की पुरजोर घोषित चाहना इन कविताओं का अंतर्निहित स्वर है- "लड़ाई की रात बहुत लम्बी है इतनी कि शायद सुबह खुशनुमा न हो/ लेकिन न लड़ना सदियों की शक्ल खराब करने की जवाबदेही होगी।" (दुख की बिरादरी)

पूर्वी उत्तर प्रदेश का क्षेत्र सामाजिक-आर्थिक रूप से अपेक्षाकृत काफी पिछड़ा है। स्वाभाविक ही स्त्रियों की स्थिति भी वहां अत्यंत उपेक्षित-शोषित रही है। पिछड़ी और दलित बहुल जातियों वाले इस क्षेत्र में स्त्री दोहरी-तिहरी मार का शिकार रही है। सवर्ण परिवारों की स्त्रियों का भी इस मामले में बुरा हाल रहा है। कम उम्र के ब्याह और  घर की 'कैद' बरकरार हैं। रूपम मिश्र की कविताओं में यही समाज स्त्री के चौतरफा दुखोंं, विडम्बनाओं और अंतनिर्हित प्रतिरोध के साथ गूंजता है लेकिन वास्तव में ये कविताएं पूरे देश की स्त्रियों का बयान और आक्रोश बनकर सामने आती हैं। यहां जन्म से लेकर पिता के घर की बंदिशें, मर्यादाएं और फिर ससुराल एवं पति के 'प्रेम' की वे निर्मम सच्चाइयां खुलती हैं जो बहुत कम देखी और महसूस की जाती हैं। जिसे परिवार और समाज विवाह कहता है, जिसका बड़े धूमधाम से समारोह आयोजित किया जाता और माता-पिता ईश-कृपा से 'बोझ मुक्ति' और 'ऊऋण' होना कहते हैं जिसे, वह वास्तव में है ऐसा है- 

"... घूंघट में एक पंद्रह साल की बच्ची का दृश्य है/वह एक धुंधली रोशनी की छांव में थकी, अनमनी बैठी है/ जिसे अभी खाना और नींद चाहिए थी/ उसे थमा दी जाती है एक जाहिल देह /.... और भारतीय वाङ्‍मय उसे पवित्र दाम्पत्य कहता है/ ... इस तरह स्त्री को कैद करने की ज़िद घर नाम की व्यवस्था बनाता है।" (अभी हम)   

यह रूपम की कविता का तेवर है और सवाल भी है। यहां 'प्रेम' स्त्री के खिलाफ सबसे बड़ा हथियार है, उसे निश्शस्त्र करने का, ठगने और गुलाम बनाने का- " स्त्रियां आदिकाल से जीतने की चीज थीं/ उन्हें जीतो साम-दाम-दण्ड-भेद चाहे जैसे/ पर इतने हथियारों की जरूरत कहां पड़ती है/ प्रेम है न, वो सब पर भारी पड़ा" (देह बड़ी सुविधा की चीज है) ...  

"पिता को विभीषण बनकर बच्चियों को बताना चाहिए/ अपनी जाति का वो अभेद अचूक अहिंसावादी हथियार- 'मैं तुमसे प्रेम करता हूं'/ जिससे स्त्रियां हमेशा हारती रहीं" (पिता और बच्चियां) ... 

"तुमने जब भी कहा प्रेम करता हूं तुमसे/ मन पाथर हो जाता है/ ये आखर इतना जुठारा गया है कि आत्मा चखने से करमराती है" (दुख से सगेदारी)  

"जब तुम साथ कहोगी तो वो प्रेम कहेगा/ जब तुम प्रेम कहोगी तब वह प्रणय कहेगा/ जब तुम प्रणय कहोगी तो सावधान रहना वह पाप कह सकता है/ एक दिन तुम उछाल देना उसके सारे नैतिक शब्दों को/ साहस करना और बस संंसर्ग कहना/ तब देखना वो तिलमिलाकर फेंक देगा अपने सारे चमकीले हथियार/ और अपने महाशस्त्र प्रेम के लिए बिकल हो जाएगा" (महाशस्त्र) 

प्रेम के हथियार से पुरुष ने स्त्री को हमेशा से ठगा है, दबाया है लेकिन स्त्री के भीतर प्रेम की चाह उतनी ही आदिम है। प्रेम के बिना उसका जीवन अधूरा है लेकिन जिस प्रेम की चाहना और अतृप्ति उसे सभ्यता की सदियों से रही है, वह प्रेम कैसा है? संकलन की शीर्षक कविता 'एक जीवन अलग से' में वे बताती हैं- 

"प्रेम व रहन की रीति को प्रकृति से सीखना था हमें/ ... एक जीवन जिसमें मैं तुम्हें सारे बादल-झरने-नदियों और पहाड़ों के/ एक दूसरे से प्रेम करने के किस्से सुनाती/ मैं तुम्हारे पवित्र माथे को चूमकर दिसावर जाने वाली/ सारी बहकी हवाओं के प्रेमी झकोरों का नाम बताती/ ...एक ऐसा जीवन होता जिसमें हम उम्र भर मनुष्य बनना और प्रेम करना सीखते।

लेकिन यहां तो "डरती हिरनियां हैं/ जो कुलाचों के लिए तरसती हैं/ ... एक अभुआता समाज कायनात की सारी बुलबुलों की गर्दन मरोड़ रहा है" (अभुआता समाज) ... इस अभुआते समाज की सारी सड़न उघाड़ कर रख देती हैं ये कविताएं और उस दिन की अगवानी के लिए बेकरार हैं जब इसी धरती पर सब स्त्री-पुरुष उसी तरह प्यार करेंगे जैसे बादल-झरने-नदियां और पहाड़ एक-दूसरे से करते हैं,और -

"जहां प्रेम हो जाना एक फूलों के उत्सव के रूप में मनाया जाता हो/ जहां नदियां पाटी न जाती हों/ जहां हरे पेड़ काटे न जाते हों? जहां पिता कहता ब्याह इतना भी जरूरी नहीं होता मेरी लाडो।" (उनके रोने से धरती भीज उठती है)

इन कविताओं में पिता, भाई, चाचा समेत घर एवं बिरादरी के पुरुष, प्रेमी और मां, चाची, भाभी, बुआ समेत सारी स्त्रियां बार-बार आते हैं।  "अपने घर-जवार की चिन्हारी में ढला हम भाई-बहनों का मन/ पिता, चाचा, आजा के जनारी भर की हमारी दुनिया/ यहां उजाला भी उनकी ही खादी की धोतियों से छनकर आता था/ संझियरई में बिहंसे हमारे गंवई चित्त/ हम मनुष्य भी उतने ही थे जितना चीन्ह में आते थे" (वे कहां हैं जो कविता लिखती हैं)  और "मेरा जन्म वहां हुआ जहां पुरुष गुस्से में बोलते तो स्त्रियां डर जातीं/ मैंने मां, चाची और भाभी को हंसकर पुरुषों से डरते देखा" (मेरा जन्म वहां हुआ) 

बृहत्तर समाज की इकाई के रूप में एक परिवार के भीतर की पुरुषवादी जकड़न और प्रकट रूप में "कहां है दुख" कहकर हंसने वाली स्त्री के आन्तरिक चीत्कार से शुरू होती ये कविताएं फिर पूरे 'पुरबिया परिवेश' की होते हुए चारों दिशाओं की हो उठती हैं। समाज का 'अभुआना' यहीं मिलेगा लेकिन सड़न वह पूरी दुनिया की है। यह कहन की खूबसूरती है,अत्यंत सादगी भरी और अंंचल विशेष की बोली-बाली से उसे धार देती हुई। स्थानीय बोली-बानी का स्वाद मोहक उतना नहीं है, जितना कि कथ्य के मारे मारक लगता है। यहां सिर्फ स्त्री का मौन चीत्कार ही नहीं है, उसकी विकसित होती चेतना और क्रमश: मुखर होता प्रतिरोध भी दर्ज़ हुआ है- 

"उनसे कह दो कि अब तुम छोड़ दो ये तय करना/ कि हमारा उड़ना अच्छा है या हमारारेंगना/ अब छोड़ दो टेरना सामंती ठसक का वो यशगान/ जिसमें स्त्रियों और शोषितों की आह भरी है" (दुख की बिरादरी)

रूपम की कविताओं में स्त्री-मुक्ति की तीव्र चाह वास्तव में सहचर होने, बराबरी से , पूर्ण मनुष्य की हैसियत से, पहाड़ और झरने के जैसे प्रेम से स्वीकारे और सम्मानित होने की कामना है। वे परम्परा और मर्यादा के नाम पर स्त्रियों के साथ सामंती तथा प्रतिगामी मूल्यों वाला व्यवहार किए जाने पर तीखा प्रहार करती हैं। जैसा कि बैक कवर पर प्रकाशित टिप्पणी में हमारे समय के नितांत अलग तरह के कवि देवी प्रसाद मिश्र ने लिखा है "रूपम मिश्र उन बहुत कम स्त्री कवियों में हैं जिन्होंने नारी स्वातंत्र्य के बुनियादी प्रत्ययों पर कायम रहते हुए उसकी मुक्ति को भारतीय नागरिकता की बृहत्तर मुक्ति के कार्यभार से अलगाकर नहीं देखा है।" यह सचमुच महत्त्वपूर्ण बात है। भारतीय समाज में स्त्री की बेड़ियां तब तक नहीं कट सकतीं जब तक पूरे समाज की वास्तविक मुक्ति नहीं होती। इस पूरे समाज को ही प्रतिगामी मूल्यों, लैंगिक मानदण्डों, विविध भेदभावों, मर्यादा की जकड़नों और प्रकृति विरोधी विकास के मानकों से मुक्त होना होगा। इसीलिए इस संग्रह की अंतिम कविता "कविता की जिम्मेदारी' में रूपम लिखती हैं- 

"कैसी कालिख है जो हम/ अपने ही हाथ से अपने चेहरों पर पोत लेते हैं/कैसा बहरा शोर है गर्वीली आवाजों का जो झारखण्ड से/ भात-भात रटती बच्ची को सुनकर ठक्क नहीं हो जाता/ मौत की नींद में भात के सपने देखते ये बच्चे/ इस दुनिया पर थूक कर चले जाते हैं/ और मैं हूं कि गल्पों की कसीदाकारी उसी दुनिया पर करती जा रही हूं/ कविता यहीं खत्म करती हूं कविता बहुत जिम्मेदारी का काम है।" 

इसे पढ़ते हुए मुझे राजेश शर्मा के कविता संग्रह 'जो सुनना तो कहना जरूर' की अंतिम कविता 'अच्छी कविता' की याद आ गई जो इस तरह पूरी होती है- "अच्छी कविता किताब में नहीं होती/ अच्छी कविता किताब बंद कर देती है।" 

रूपम मिश्र का यह संग्रह पढ़ना एक मौलिक ऊर्जा से भर जाना है। उन्हें बधाई और शुभकामनाएं।

- न. जो, 21 फरवरी, 2023

(कविता संग्रह- एक जीवन अलग से, कवयत्री- रूपम मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, मूल्य 199/-     

       

 

 



    

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