कल (10 मई 2024) रात करीब दो बजे से तड़के चार बजे तक झमाझम बारिश हुई। टीन की छत पर डी जे जैसे धमाल ने सोने न दिया।
सुबह इतना जाड़ा था कि कपड़े कम पड़ गए। फिर धूप खिली और घर के सामने का घना बांज वन खिलखिला उठा। कफ्फू चीखता रहा ‘काफल पाक्को, काफल पाक्को’ पर पेड़ पर काफल हों तो पकें। इस बार काफल के पेड़ नए पल्लवों से हरियाए हुए हैं। एक दाना न मिला। उलाहना दिया कि हम तो सीधे पेड़ से टीपकर काफल खाने आए हैं तो लहरा कर बोले - अगले बरस झोले भर-भर ले जाना। हिसालू अवश्य गदराए हुए हैं।
गाँव (रैंतोली, गणाई-गंगोली, पिथौरागढ़) में लगभग सन्नाटा है। जंगल घर तक आ गया है। कल शाम लंगूरों ने आँगन में हमारा स्वागत किया था। रास्ते में घुरड़ों की भी छलांगें देखीं। घनी कंटीली झाड़ियों में इतने बड़े-बड़े सुअरों का डेरा है कि सुना गुलदार भी उनसे डरता है। गुलदार के खाने को पर्याप्त घुरड़-काकड़-जंगली मुर्गी, वगैरह खूब हैं। सो वह मनखियों से दूर ही रहता है मगर सूने गाँव का चक्कर मजे-मजे लगा लेता है।
खेतों-बाड़ों में सिसोंण का कब्जा हो रखा है। दाड़िम के चंद पेड़ों पर कुछ नन्हे मगर सुर्ख फूल हँसी बिखेर रहे हैं। अब फिर बादल घिर आए हैं। हवा बंद है। शाम तक फिर बरसेगा। न्योली की नेहू-नेहू को इस दोपहर भी चैन नहीं। कैसी आकुल-आतुर टेर! सुबह टिस्ट्यां मल्लब टिटहरी भी साथ दे रही थी और तीतर भी। अब मौन हैं। हिमालय के दिव्य शिखर सुबह चमक रहे थे। अब बादल ओढ़कर बैठे हैं। उनके पीछे से नंदा देवी झलक दिखा जाती हैं। यहाँ मानव जनित कोई कोलाहल नहीं। सृष्टि का राग बरस रहा है।
फेफड़े हैरान हैं कि अचानक इतनी ऑक्सीजन का क्या करें!
ये हमारे जिब्बुका हैं। मैं 94-95 का हिसाब लगाए बैठा था, स्वयं बताने लगे 98 बरस का हो गया। ये हमारे उजड़ते गाँव के स्तम्भ हैं, सबसे सयाने। इनसे कुछ ही छोटे चार-पाँच और बचे हैं गाँव में। जिब्बुका सुबह-शाम जंगल से घास-पत्ते-लकड़ी लाते हैं। आज जर-बुखार है, इतना ही हो पाया, बल!
कहते हैं ‘गौं सिरि ग्वैटै बटि’। मल्लब, गाँव की सीरत उसका रास्ता बता देती है। कित्ता सही कहा ठहरा।
यह तस्वीर हमारे घर-गाँव की सूरत बता दे रही है। आप कहेंगे यहाँ रास्ता कहाँ है लेकिन यही तो अपने घर का मुख्य रास्ता था। संकरी पगडंडी नहीं, पहाड़ के हिसाब से अच्छा चौड़ा रास्ता। इस पर उछलते-कूदते हम पानी के धारे और गाँव की सीमा तक सरपट चले जाते थे।
फिर पहाड़ का रास्ता परदेस का रास्ता हो गया। जो पाँव बाहर दूर-दूर तक जाकर भी देर-सबेर वापस लौट आते थे, वे घर का रास्ता भूलने लगे। भूलते ही गए। जिन बुजुर्गों के पैर अपनी जमीन ने जकड़ रखे थे, बुढ़ापे की असमर्थता से वे भी परदेसी बच्चों की शरण जाते रहे या जिब्बुका की तरह मोर्चे पर डटे रहे।
एक बार घर के द्वार पर ताला लगा तो फिर अपनी चाबी से उसकी भेंट ही नहीं हुई। घर की सुध चिट्ठियों तक सिमटी रह गई। फिर चिट्ठी लिखने वाले भी न रहे। शहरों के डेरे ही ‘घर’ कहाने लगे। घर के द्वार ताले समेत चूल से उखड़ गए और दरवाजे को संभालने वाली दीवारें ढहती रहीं।
प्रकृति ने मौका पाया तो जो कभी उससे छीना गया था, उसे वापस हथियाना शुरू कर दिया। खेतों में गेहूँ-धान-मडुआ की बजाय कंटीली झाड़ियाँ बढ़ आईं। डरे-दुबके जानवर स्वच्छंद विचरण करने लगे। इनसान की तरह न जानवरों को रास्ता चाहिए था, न झाड़-झंखाड़ को। सो, वह मिटते-मिटते वैसा ही हो गया, जैसा हमारे पुरखों के बसने से पहले रहा होगा।
जवानी में घर की दिशा भूले पैर बुढ़ापे में यदा-कदा वापस आते हैं तो रास्ते की शिकायत करते हैं। हमारी तरह। अब रास्ते का क्या दोष!
खैर, फिलहाल पीछे से कामचलाऊ रास्ता बना लिया है किंतु इस रास्ते को तो ठीक करना ही है।
(-न जो, 10-13 मई 2024)
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