Saturday, May 25, 2024

'हिमांक और क्वथनांक के बीच' केवल यात्रा वृतांत नहीं है

सितम्बर 2008 में शेखरदा (प्रोफेसर शेखर पाठक) ने प्रसिद्ध छायाकार एवं पर्वतारोही अनूप साह तथा संवेदनशील छायाकार प्रदीप पाण्डे के साथ उच्च हिमालय के एक दुर्गम मार्ग गंगोत्री-कालिंदीखाल-बदरीनाथ की यात्रा पर थे तभी यह चिंताजनक समाचार मिला था कि वे तीनों कालिंदीखाल पार करते समय अचानक बहुत खराब हो गए मौसम में हिमपात, बारिश और भूस्खलन के बीच कहीं फंस गए हैं और सैटेलाइट फोन से वाया देहरादून आईटीबीपी के कैम्प तक पहुंचाई गई मदद की उनकी गुहार भी बेनतीजा रही है, तो हम सब किसी अनहोनी की आशंका से परेशान हो उठे थे। 

कोई 48 घंटे के बाद उनकी कुशल मिली थी। तब यह जानकर सबने दांतों तले अंगुली दबा ली थी कि बारिश से भीगे, लस्त-पस्त एवं हिमदंश से त्रस्त, भूखे-प्यासे और सन्निपात की हालत तक पहुंचे तीनों जीवट यात्रियों ने भूस्खलन के बीच एक बड़ी चट्टान के नीचे बैठकर किसी तरह अपने प्राण बचाए। इस दौरान उनके दो सहयोगी और एक अन्य यात्री दल के चार साथी मौत के मुंह में चले गए थे। 

तब से ही शेखरदा से इस अविस्मरणीय, और त्रासद भी, यात्रा-वृतांत के लिखे जाने की आशा थी, जो अब 2024 में पूरी हुई है। उनकी किताब हिमांक और क्वथनांक के बीचहाथ में है। नवारुण से प्रकाशित इस पुस्तक का विमोचन 23 मई को एक और यात्रा, ‘अस्कोट से आराकोट-2024के प्रारम्भ होने की पूर्व संध्या पर पिथौरागढ़ में किया गया।  

हिमांक और क्वथनांक के बीचकोई सामान्य यात्रा-वृतांत नहीं है। यह असामान्य होकर भी मात्र यात्रा-वृतांत नहीं है। किताब के उप-शीर्षक में इसे गंगोत्री-कालिंदीखाल-बद्रीनाथ यात्रा में निर्जन सौंदर्य और मौत से मुलाकातबताया गया है। यह तो वह है ही। इससे आगे यह एक वृतांत के भीतर अन्य अनेक स्मृतियों, मिथकों, सपनों, पथारोही-पर्वतारोही पुरखों, उनकी भटकनों एवं खोजों का वृतांत है। 

यह मनुष्य व प्रकृति के अंतरसंबंधों, उदार-क्षमाशील प्रकृति और उस पर मनुष्य के अनाचारों के साथ-साथ प्रकृति को देखने-बरतने के अपेक्षित व्यवहार का वृतांत है। यह ग्लेशियरों (गलों) के भीतर लाखों-करोड़ों बरसों से जमी बर्फ की तहों, वहीं कहीं बहते पानी (जो आगे जाकर किसी नदी का उद्गम बनता है) और उसमें गिरते पत्थरों-हिमखंडों की ध्वनियों, हिमोड़ों, चट्टानों, विरल वनस्पतियों, निर्भय भरलों, अदृश्य हिमचीतों, नितांत निर्जन में सामाजिकता बनाते सखा-पक्षियों और हिमालय की दुर्गम कंदराओं में लौकिक जीवन से परे जाने क्या-क्या खोजते विरागी बाबाओं तक का वृतांत है। 

यह सम्पूर्ण प्रकृति से मानव मन के अंतरंग संवादों का अनोखा वृतांत है। यह मन के बच्चा हो जाने, सवाल पूछने और जवाबों के लिए अनंत प्रतीक्षा का वृतांत है। इस तरह यह वृतांत यात्राएं करने और उनके लिखे जाने के लिए एक नई दृष्टि देता है, नए मानक बनाता है।

गंगोत्री-कालिंदीखाल-बदरीनाथ मार्ग “कहीं से भी तीर्थयात्रा मार्ग नहीं है। न व्यापार मार्ग है। न यहां मनुष्य हैं न देवता। ... दरअसल यह मार्ग ही नहीं था। बेचैन हिमालय प्रेमियों की उत्कण्ठा ने इस मार्ग को नक्शे में बना डाला। यह हिमालयी अन्वेषण के परिणामों में एक है।” लेकिन फिर यहां जाते क्यों हैं? क्योंकि “आस्था से अलग अन्वेषण हमें हिमालय को समझने में मदद देता है।” 

और, जिसे हिमालय को समझने की उत्कंठा है, उसके लिए “हिमालय यहां आदिम राग गाता है, अत्यंत विलम्बित आवाज में। बीच-बीच में गल और पहाड़ टूटकर अलग तरह के वाद्ययंत्रों को आड़ी-तिरछी झनकार पैदा करते हैं। यह एक तरह का राग हिमालय है।” 

किताब में, यानी पूरी यात्रा में लेखक इस राग हिमालय के साथ है, उसे देखता है, सुनता है, कुछ समझता है, कुछ नहीं समझता है और इसीलिए बहुत से सवाल करता है जिनके उत्तर हिमालय के उर में नहीं, मनुष्य के मन-मस्तिष्क में होने चाहिए थे लेकिन दुर्भाग्य से नहीं हैं या हैं तो वह उनको सुनने से इनकार करता आया है। इसीलिए इस यात्रा सत्र में उत्तराखंड के चार धामोंमें निरंकुश अराजक यात्रियों का उपद्रव दिखाई दे रहा है। उन्हें हिमालय या प्रकृति की कोई चिंता नहीं है। 

यह प्रवृत्ति स्वाभाविक ही शेखरदा को बहुत परेशान करती रही होगी तभी तो वे निर्जन एकांत में भी अपने भीतर से उठता यह सवाल पूछ लेते हैं- “क्या प्रकृति को नष्ट करने/करवाने वाले राजनीतिज्ञों और निगम पतियों को हिमालय कभी माफ करता होगा? काश हिमालय या उसके सौंदर्य स्थल, जिनमें तीर्थ भी शामिल हैं, अपने विवेक सम्मत आगंतुकों या भक्तों का चुनाव कर पाते!” कैसी मासूम सी ख्वाहिश है! 

प्रकृति के प्रति लेखक की यह चिंता पूरी यात्रा में और इसीलिए किताब में भी जगह-जगह बनी रहती है, चाहे वह भोज वृक्षों का विनाश हो या पूरे हिमालयी क्षेत्र में फैलाया जा रहा प्लास्टिक-पॉलीथीन-बोतलों-आदि का कचरा हो या उत्तराखंड में किसी समझदार सरकार का न होना हो।  

सबसे अधिक जो प्रभावित करता है, बल्कि छू लेता है और जिसका स्पर्श मन में गहरे बना रह जाता है, वह है शेखरदा की निगाह। 

जिस नज़र से वे प्रकृति की हर चीज को देखते हैं, वह मनुष्य से इस सम्पूर्ण सृष्टि के लिए सम्मान और साज-संभाल की आग्रही है। सृष्टि में मनुष्य ही श्रेष्ठ प्राणी नहीं है। वह बुद्धि-विवेकशील प्राणी अवश्य है और इसीलिए सौंदर्य का पारखी है किंतु वह इस सौंदर्य के रचयेता का सम्मान नहीं करता जबकि शेखरदा चाहते हैं कि उसे न केवल देखा-सराहा जाए, बल्कि समझ कर बड़ा-सा सलाम भी किया जाए। 

वे शिवलिंग शिखर की जड़ में तपोवन के विस्तार में गल के ऊपर खड़े हैं, चारों ओर बिखरा सौंदर्य उन्हें अद्भुत रूप से मोह लेता है और वे सोचते हैं- “ऐसी जगहें शायद हममें अधिक मानवीय गुण भरती हैं और प्रकृति के आगे विनम्र होने की समझ देती हैं। ये जगहें आदमी की रचनाएं नहीं हैं।” 

उस दुर्गम हिमालय के कोने-अतरों में शेखरदा ने निर्जन सौंदर्य के कितने ही रूप देखे और दर्ज़ किए हैं। उसके वर्णन में वे अनेक बार रूपवादी-छायावादी तक हो जाते हैं पर अंतत: उसकी परिणति यथार्थवाद में ही होती है। उनकी शैली ही अनोखी नहीं है, वे अपने अनुभवों के लिए नए शब्द भी गढ़ते हैं। 

(पुस्तक चर्चा जारी रहेगी। शेष भाग कल पढ़ें)

-नवीन जोशी, 25.05.2024

(हिमांक और क्वथनाक के बीच' पुस्तक नवारुण प्रकाशन से मंगवाई जा सकती है। फोन- 8057374761)

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