"मुझे पहाड़ की सघन स्मृतियों ने जकड़ा हुआ है"
‘दावानल’, ‘टिकटशुदारुक्का’ और ‘देवभूमिडेवलपर्स’। उत्तराखंड की जमीन पर तीन उपन्यास और कई कहानियां लिखने के बाद भी वरिष्ठ कथाकार, उपन्यासकार नवीन जोशी का रचना संसार पहाड़ से खाली नहीं हुआ है। उनके पास अपने उपन्यासों और कहानियों से इतर ढेरों ऐसे किस्से हैं, अंतर्कथाएं हैं जिन्हें लिखा जाना हिंदी पट्टी के पाठकों के लिए जरूरी है। उत्तराखंड में विकास के नाम पर जो हो रहा है उसको उनका उपन्यास ‘देवभूमि डेवलपर्स’ (हिंदयुग्म प्रकाशन, 2022) परत-दर-परत खोलता है। उपन्यास न सिर्फ उत्तराखंड को बचाने के लिए जनता के आंदोलनों की पड़ताल करता है, बल्कि उन बारीक तंतुओं को भी सामने लाता है, जिनकी वजह से ये आंदोलन उतने सफल नहीं हो पाए जितना उन्हें होना था। हालांकि नवीन जोशी अपने उपन्यास में इस पहलू को भी रेखांकित करते हैं कि इन आंदोलनों ने उत्तराखंड के समाज को बहुत जागरूक किया। ‘देवभूमि डेवलपर्स’ उत्तराखंड की परंपराओं, प्रकृति के साथ वहां के लोगों के संबंध और उन संबंधों के कारण विकसित हुई सहजीविता को भी बहुत बारीकी और समग्रता के साथ पाठकों के सामने पेश करता है। उपन्यास ‘देवभूमि डेवलपर्स’,उसकी रचना प्रक्रिया पर नवीन जोशी से बातकी संवेदनशील पत्रकार, कवि व छायाकार सौरभ श्रीवास्तव ने-
लिखने की शुरुआत कैसे हुई? बचपन की वे कौन सी स्मृतियां हैं, जिन्होंने आपके भीतर के कथाकार, उपन्यासकार और पत्रकार के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई?
-मेरा कोई भी लेखन चाहे वह बतौर साहित्यकार रहा होया बतौर पत्रकार वह स्मृतियों से ही शुरू हुआ। करीब छह साल का रहा होऊंगा जब मुझे पढ़ाई के लिए पिता जी के साथ लखनऊ भेज दिया गया था, क्योंकि स्कूल गांव से बहुत दूर था। मैं लखनऊ में मां को याद करके रोता और उन्हें चिट्ठियां लिखने लगा। फिर धीरे-धीरे डायरी लिखना शुरू हुआ। अपनी स्मृतियों को दर्ज करने लगा। स्मृतियों में पहाड़ था, जो कि बाद में लेखन में भी आया जबकि मेरी पूरी पढ़ाई-लिखाई लखनऊ में हुई। असल में मैं पढ़-लिखकर पहाड़ लौट जाना चाहता था। वहां किसी स्कूल-कॉलेज में शिक्षक बनना चाहता था। लेकिन कुछ ऐसा हुआ कि यह सपना पूरा नहीं हो सका और मैं लखनऊ में ही रह गया।
ऐसा क्या हुआ जो पहाड़ लौटने का सपना पूरा नहीं हो सका?
-1977 की शुरुआत की बात है। मेरे एक मित्र पहाड़ से आए तो उनके हाथ में मेरी टायलरकी लिखी हुई किताब थी- ‘भारतीय जेलों में पांच साल’। मेरी टायलर लंदन से भारत आई थी अपने मित्र अमलेंदु से मिलने। दोनों को बंगाल के एक गांव से नक्सलवादी कहकर पकड़ा गया जेल में ठूंस दिया गया था। उसी के बारे में थी यह किताब। आनंद स्वरूप वर्मा ने अंग्रेजी से हिंदी में किताब का अनुवाद किया था। मैंने अपने मित्र से लेकर रात भर में वह किताब पढ़ डाली। किताब ने इतना उद्वेलित किया था कि सुबह उस पर एक लेख लिखकर यूनिवर्सिटी जाते वक्त ‘स्वतंत्रभारत’ अखबार में चंद्रोदय दीक्षित जी की मेज पर रख आया। ‘स्वतंत्र भारत’ में तब तक मेरी कुछ कहानियां प्रकाशित व पुरस्कृत हो चुकी थीं। इस वजह से चंद्रोदय जी से परिचय था। उस लेख का क्या हुआ, यह जानने के लिए यूनिवर्सिटी से लौटते वक्त अखबार के दफ्तर पहुंचा तो चंद्रोदय जी ने संपादक अशोकजी से मिलवाया। तब तक उन्होंने वह लेख पढ़ लिया था। कहा कि इसे छापेंगे और पूछा- ‘हमारे साथ काम करोगे?’ मैंने बताया कि मेरी की परीक्षाएं हो रही हैं। ‘एग्जाम के बाद?’ उन्होंने पूछा था तो मैंने ‘हां’ कह दिया। मैं एग्जाम के बाद उनके पास गया तो उन्होंने जनार्दन ठाकुर की किताब- ‘ऑल द प्राइम मिनिस्टर्स मेन’ के कुछ हिस्से अनुवाद के लिए दिए जो कि अखबार में धारावाहिक के तौर पर प्रकाशित होने थे। यह किताब ‘आपातकाल’ के अत्याचारों पर थी। अनुवाद अशोकजी को पसंद आया और उन्होंने मुझे डेढ़ सौ रुपये प्रतिमाह पर प्रशिक्षु पत्रकार केरूप में डेस्क पर रख लिया और मेरा पत्रकारिता का सफर शुरू हो गया। फिर पत्रकारिता से ऐसा प्यार हुआ कि पहाड़ नहीं लौट पाया, लेकिन पहाड़ पर लिखना-पढ़ना चलता रहा। काम के दौरान दो दिन की भी छुट्टी मिलती तो पहाड़ चला जाता था। पहाड़ पर आने-जाने के दौरान उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी के युवाओं से संपर्क हो गया तो चिपको आंदोलन और दूसरे तमाम आंदोलनों में कुछ भागीदारी भी होती रही।
कई लेखक ऐसे रहे जिनकी कर्मभूमि मैदानी शहरों में रही पर रचनात्मक लेखन के लिए उन्होंने अपनी जन्मभूमि पहाड़ को चुना। ऐसा क्यों? क्या शहर का यथार्थ बहुत जटिल है, आसानी से पकड़ में नहीं आता है? यह चुनाव कहीं लेखकीय सुविधा के तहत तो नहीं?
-यह बात मुझे भी चौंकाती है। एक बार दूरदर्शन की ओर से तत्कालीन निदेशक और कहानीकार शंशाक ने एक कार्यक्रम रखा था- ‘मेरी कथा भूमि’। उसमें चार-पांच कहानीकार भाग ले रहे थे। तब यह प्रश्न मेरे सामने आया था। मैंने सोचा कि मैं छह साल की उम्र में लखनऊ आ गया था। पढ़ाई यहां की, नौकरी, शादी, दोस्तियां, झगड़े पूरा जीवन संघर्ष यहां का रहा फिर भी जब रचनात्मक लेखन किया, खासकर उपन्यास के लिए तो पहाड़ के विषय ही क्यों चुने गए? एक कारण तो मेरे मानस में पहाड़ की स्मृतियों का बहुत सघन होना है। उन स्मृतियों के सामने कई बार सामने का यथार्थ धुंधला पड़ जाता है। ‘राजधानी की शिकार कथा’ व अन्य कहानियों की जमीन जरूर शहर में है, पर उपन्यासों में लखनऊ या मैदानी क्षेत्र एक प्रवास की तरह आता है। और शायद कभी इतना आश्वस्त नहीं हो पाया कि शहर पर कुछ लिखूंगा तो वह उतना प्रामाणिक हो पाएगा, जितना पहाड़ पर लिखा हुआ है। लखनऊ की खड़ी बोली हो या अवधी ठीक-ठाक बोल भी लेता हूं। उपन्यासों में कुछ संवाद भी अवधी के आते हैं पर शहर मेरी रचनात्मक यात्रा की मूल पृष्ठभूमि नहीं बन पाए। यह भी कारण रहा कि शहरों पर बहुत से कथाकार लिख रहे थे। पहाड़ पर जो मैं लिखना चाहता था, वह सामने नहीं आ पा रहा था।
यह देखना बड़ा दिलचस्प है कि ‘देवभूमि डेवलपर्स’ में कुछ संवाद जो कि कुमाउंनी में हैं, उन्हें छोड़ दिया जाए तो ज्यादातर हिस्सा लखनऊ की परिष्कृत खड़ी बोली में लिखा गया है। यह कैसे संभव हुआ, यथार्थ पहाड़ का और भाषा लखनऊकी?
-मेरा रहन-सहन, पढ़ाई-लिखाई, नौकरी, आदि लखनऊ में रहे तो भाषा पर उसकी छाप है। मेरी हिंदी संस्कृतनिष्ठ नहीं है उसमें उर्दू के शब्द आते हैं जैसे कि लखनऊ की बोली में हैं, लेकिन कथाभूमि पहाड़ की है क्योंकि पहाड़ के बारे में मेरी स्मृतियां बहुत ही सघन हैं और वहां का यथार्थ परेशान करता रहा है । पहाड़ की पृष्ठभूमि पर तीन उपन्यास लिख चुका हूं। अब भी मेरे भीतर से पहाड़ खाली नहीं हुआ है। चौथा उपन्यास भी पहाड़ पर ही लिखाहै, अभी छपने नहीं दिया है।उसकी कथा का आधा हिस्सा मैदान का है, आधा पहाड़ का। दूसरी बात, पहाड़ में जनजीवन की बेहतरी के लिए तमाम आंदोलन हुए उनसे भी जुड़ा रहा, लेकिन आंदोल नों से पहाड़ का जीवन बेहतर नहीं हुआ बल्कि कई अर्थों में बदतर ही होता गया। इससे बहुत कष्ट होता है। इस कष्ट ने भी उपन्यासों की कथा की पृष्ठभूमि तैयारकी।
जड़ें पहाड़ में होना और शहर में जीवन रूपी वृक्ष का विकास होना, आपके नजरिए को विशिष्ट बनाता है क्योंकि आपके पास पहाड़ भी है और मैदानी शहर भी। आप पहाड़ के संदर्भ में शहर को देख सकते हैं और शहर के संदर्भ में पहाड़ को। आपका इस पर क्या कहना है?
-मैदान के गांव से शहर आना और पहाड़ के गांव से शहर आने में फर्क है। मैदान के गांव और शहर में जीवन शैली का तो फर्क है पर सांस्कृतिक फर्क उतना नहीं है, भौगोलिक फर्क भी नहीं है। पहाड़ और मैदान के जीवन में भौगोलिक फर्क है। नदियां, झरने, पेड़-पौधे, सुख-दुख, कुल मिलाकर वहां का जीवन मैदान से पूरी तरह अलग है। भूगोल अलग होने के कारण सांस्कृतिक जीवन भी अलग होता है। प्रकृति का सानिध्य सर्वथा भिन्न अनुभूति देता है। हिमालय, नदियां और समुद्र मनुष्य को अलग़ ही दर्शन देते हैं। इस वजह से अलग नजरिया बनता है। यह सिर्फ उत्तराखंड की बात नहीं है। हिमाचल का कलाकार या लेखक भी ऐसे ही नजरिए से चीजों को देखेगा और असम, अरुणाचल वाला भी। नगालैंड के नाटककार रतन थियम जब लखनऊ में काम कर रहे थे तो मैंने उनके पूर्वाभ्यास और प्रदर्शन देखे थे। मैंने पाया था कि मेरे पहाड़ और उनके पहाड़ का आपस में संपर्क हो जा रहा था। यह बड़ा ही दिलचस्प था।
‘देवभूमि डेवलपर्स’ पढ़ने के दौरान मुझे सादाबयानी प्रमुखता से दिखाई देती है। ऐसा नहीं दिखता कि कथा की चार-पांच लाइन लिखने के बाद आप परिवेश, वातावरण या फलसफे में इतना गहरे चले जाते हैं कि पाठक को वापस कथा पर आने के लिए कुछ पेज पलटने पड़ें। क्या यह सादाबयानी लंबे समय तक पत्रकारिता करने के कारण आती है? पाठक की दृष्टि से तो मुझे यह सुविधाजनक लगता है कि कहानी रफ्तार से आगे बढ़ती है, उसे सहजता से पढ़ा जा सकता है, लेकिन साहित्यिक आलोचना में इस तरीके को कमतर ही माना जाता है। आपका क्या कहना है?
-यह बहुत ही स्वाभाविक है। पत्रकारिता में मेरे पहले संपादक अशोकजी रहे। राजेंद्रमाथुर के साथ भी मैंने लंबे समय तक काम किया। दोनों का ही कहना था कि भाषा अत्यंत सरल, सहज, सटीक और स्वाभाविक होनी चाहिए। उसमें बनावटीपन नहीं होना चाहिए। अतिरंजना भी नहीं । अखबारी लेखन में शिल्प के प्रयोग का कोई काम नहीं होता। इसका असर साहित्यिक लेखन पर अवश्य ही आया होगा। बहुत बाद में मुझे यह अहसास हुआ कि साहित्यिक लेखन में शिल्प का वैविध्य होना चाहिए। कुछ कहानियों जैसे ‘रामराज्य’, ‘दरबारीकासपना’ में मैंने शिल्प गढ़ने का प्रयास किया, लेकिन उसके लिए मुझे श्रम करना पड़ा। मुझे लगता है कि ऐसा लेखन बहुत स्वाभाविक नहीं होता। कभी तो सिर्फ वह लेखकीय कौशल दिखाने की कोशिश प्रतीत होता है। दूसरी बात, यह मेरे साहित्यिक संस्कारों की कमी है। मेरी पढ़ाई बहुत योजनाबद्ध तरीके से नहीं हुई। काफी वक्त तक तो गुलशन नंदा और इब्ने सफी जैसे लेखकों को ही पढ़ता रहा। स्तरी य साहित्यिक लेखन बहुत बाद में पढ़ा और खासकर विदेशी साहित्य तो अब पढ़ रहाहूं। शिवानी, शैलेश मटियानी व शेखर जोशी जैसे लेखकों को पहले पहाड़-मोह में ही पढ़ा। ज्ञानरंजन जैसे कथाकारों को भी बहुत बाद में पढ़ पाया। तो, परिष्कृत साहित्यिक लेखन का प्रभाव ग्रहण करने में भी समय लगा। मेरे पहले उपन्यास ‘दावानल’ की काफी चर्चा हुई और अच्छी समीक्षाएं भी हुईं, पर कई लोगों ने सादाबयानी को रेखांकित किया। लोगों ने यह भी कहा कि कहीं-कहीं नवीन जोशी के भीतर का पत्रकार बोलने लगताहै। ऐसा हुआ भी होगा, लेकिन मैं चीजों को सहज ढंग से ग्रहण करता हूं और सहज तरीके से ही लिखने की कोशिश करता हूं और वह आसान नहीं होता।
उपन्यास का बीज कहां से मिलता है। उसे किस तरह से सींचते हैं, खाद देते हैं? आपकी रचना प्रक्रिया क्या है? इसके लिए ‘देवभूमि डेवलपर्स’ को सैंपल की तरह ले सकते हैं।
-उपन्यास ‘दावानल’ इस कष्ट से जन्मा था कि चिपको आंदोलन का जो वास्तविक स्वरूप था, वह मीडिया में नहीं आ पा रहा था। सुंदरलाल बहुगुणा और चंडी प्रसाद भट्ट उसमें एक तरह के विलेन हैं। आंदोलन की चेतना फैलाने में इन लोगों का बड़ा योगदान रहा लेकिन इन्होंने चिपको आंदोलन को शुद्ध पर्यावरण का आंदोलन बनाकर महिमा मंडित कर दिया, जबकि चिपको आंदोलन उत्तराखंड के जंगलों पर वहां की जनता, विशेष रूप से महिलाओं के अधिकार की मांग के कारण जन्मा था। महिलाओं को अपना परिवार, पशु पालने यानी जीवन चलाने के लिए जंगल से लकड़ी, पशुओं के लिए चारा और तमाम चीजें चाहिए होती हैं। जंगल के बिना उनका जीवन नहीं चल सकता और जंगल पर अधिकार की मांग तो अंग्रेजों के समय से चली आ रही थी। उत्तराखंड के कई जंगल खेल कम्पनियों को बहुत ही कम दाम पर बेच दिए गए थे। पहाड़ के लोगों को कृषि औजार बनाने के लिए भी लकड़ियां नहीं मिल रही थीं, तो उन्होंने जंगल पर अपना हक हासिल करने के लिए आंदोलन शुरूकिया। ठेकेदारों और मजदूरों को पेड़ काटने से रोक दिया था। चिपको आंदोलन की मांगें मानने के नाम पर 1980 में इंदिरा गांधी की सरकार ने वन अधिनियम बनाकर जंगल से एक पत्ता उठाने तक पर रोक लगा दी। बिजली का खंबा नहीं गाड़ सकते, पुल नहीं बना सकते, सिंचाई के लिए नहर नहीं निकाल सकते। करीब 40 तरह के काम जो जंगल में जनता ज्को करने होते थी, उन पर रोक लगा दी थी। यह इन चिपको नेताओं के कारण हुआ था। बाद में इस अन्याय के विरोध में उन्हीं महिलाओं ने ‘पेड़काटो’ आंदोलन चलाया। यह चिपको आंदोलन का एंटीक्लाइमेक्स था। ‘दावानल’ उपन्यास इसी तकलीफ को बयान करता है।
अखबारों में, खबरों में तो पेड़ काटो आंदोलन का जिक्र ही नहीं आया?
-तब तक वन कानून-1980 बन जाने से चिपको की चमक जाती रही थी, इसलिए यह खबरों में कम आया। राष्ट्रीय पत्रों में तो आया ही नहीं। वन कानून के कारण सड़क, पुल, बिजली-टेलीफोन की लाइनें, सिंचाई नहरें, सब बनना ठप हो गए तो कई जगह जनता ने खुद पेड़ काटे। चिपको चलाने वालों ने ही चिपको का विरोध किया। देवाल (जिला चमोली) की जनता ने तो पेड़ काटने के बाद अदालत में आत्मसमर्पण भी किया। ‘दावानल’ इसी बिंदु पर आकर समाप्त होता है।
रचना प्रक्रिया पर लौटते हैं।
-1990 के दशक में यह उपन्यास मेरे भीतर खुदबुदाना शुरू हुआ। फिर मैं पत्रकारिता में रम गया। संपादक हो गया। लगा कि साहित्य की दुनिया मेरे लिए नहीं है, पर चिपको आंदोलन को लेकर मैं जो कहना चाह रहा था वह कहीं आ नहीं पा रहा था। करीब दस साल मेरे भीतर पकने के बाद आखिकार 2003-04 में ‘दावानल’ लिखा गया। दरअसल, ‘देवभूमि डेवलपर्स’ उसके आगे की कहानी है। पुष्कर, कविता दावानल के ही म्क्य पात्र हैं जो यहां तक आते हैं। ‘दावानल’ पूरा करने के बाद ही मन में ‘देवभूमि डेवलपर्स’ को लिखने की भूमिका बन गई थी, क्योंकि चिपको के बाद भी उत्तराखंड में कई जन आंदोलन हुए। वहां के सामाजिक परिवेश और उसमें हो रहे बदलावों पर लगातार मेरी नजर बनी रही। ‘देवभूमि डेवलपर्स’ दिमाग पर पूरी तरह तारी था। गाड़ी चलाते समय भी पुष्कर, कविता व अन्य पात्र मुझसे बात करते रहते थे। वे उत्तराखंड के बदलते समय पर प्रतिक्रिया देते थे। कई बार तो नींद में भी संवाद चलते रहते थे। उपन्यास कई बार बनता-बिगड़ता रहता था। कोविड काल के दौरान उपन्यास लिखना शुरू किया। मैं अपनी मैनुस्क्रिप्ट पर काफी मेहनत करता हूं।कई-कई बार लिखता हूं। ‘देवभूमि डेवलपर्स’ के कुल 309 पेज पाठकों के सामने किताब की शक्ल में हैं, पर उससे कहीं ज्यादा पेज मेरे कंप्यूट र में सेव हैं, जो संपादन की कतरब्योंत में अलग कर दिए गए। प्रकाशित होने के बाद भी मुझे ऐसा लगता है कि अभी उपन्यास को और चुस्त किया जा सकता था। एक लेखक और एक संपादक के बीच हमेशा कश्मकश चलती रहती है। अब जैसे ‘दावानल’ को दोबारा प्रकाशित करने की बात चल रही तो मैंने उसमें से कुछ चीजें हटाई हैं और कुछ जोड़ी भी हैं।
यह तो रही कथ्य की बात, क्या शिल्प को लेकर भी इतना श्रम करते हैं?
-हाल ही जो उपन्यास पूरा किया है, मेरी कहानी ‘बाघैन’ का ही विस्तार है। उसमें दो कहानियां एक साथ चलती हैं। पहली कहानी में पहाड़ के एक गांव की कथा है, जहां सारा गांव पलायन कर गया है। गांव के सारे कुत्तों को बाघ खा गया है। सिर्फ एक कुत्ता बचा है और एक रिटायर फौजी। दोनों आपस में बात करते हैं। कुत्ता भी अपने भावों के जरिए उसे प्रतिकिया देता है और वह फौजी उसे समझता है। दूसरी कहानी शहर में शुरू होती है। एक वृद्धाश्रम में, जहां ब्रेन स्ट्रोक से अशक्त हुए एक व्यक्ति की कथा चलती है। दोनों का शिल्प बहुत अलग है। एक चैप्टर से दूसरे पर जाने में पाठक को झटका लगेगा। कुछ इस तरह का प्रयोग है। असल में, नई कहानी के दौर से शिल्प का बहुत बोलबाला रहा। कई बार कथ्य पर शिल्प हावी हो जाता है। शिल्प के नाम पर कई बार यह भी लगता कि क्या लेखक पाठक को चमत्कृत करने का प्रयास कर रहा है या आलोचक को? या अपना बौद्धिक आतंक पैदा करना चाह रहा है? ऐसे भी सवाल उठे। मैंने सायास कुछ कहानियों में शिल्प को लेकर ऐसे प्रयोग करने का प्रयास किया, पर मुझे लगा कि यह मेरी अभिव्यक्ति का सहज माध्यम नहीं है। इसलिए उसे जाने दिया और सादाबयानी कह रहे हैं जिसे आप, वही मुझे प्रिय हो गई।
‘देवभूमि डेवलपर्स’ का कवर उपन्यास के विषय के हिसाब से सटीक है। कहां से मिली यह इमेज?
-पहाड़ में मेरे कुछ अच्छे फोटोग्राफर दोस्त हैं। उनसे उपन्यास की थीम को लेकर फोटो मंगवाए थे, पर बात कुछ बन नहीं रही थी। हल्द्वानी में एक लेखक मित्र हैं, अशोक पांडेय, ‘लप्पूझन्ना’ वाले। उन्होंने यह चित्र भेजा। चित्र में एक सड़क बन रही है। एक अकेला पेड़ बचा है । बैकड्रॉप में हिमालय है। एक रोडरोलर खड़ा है। एक औरत उसे देख रही है। हालांकि बुलडोजर होता तो और भी सटीक होता।पहाड़ में चारों तरग इतना अधिक निर्माण हो रहा है कि ऐसे दृश्य आम हैं। उपन्यास के नाम को लेकर भी कई दोस्तों के सुझाव आए, उनमें से ‘देवभूमि डेवलपर्स’ चुना गया। कुछ ने कहा कि हिंदी के उपन्यास का नाम अंग्रेजी में होना सहीनहीं है, पर मैंने यही नाम चुना। वजह बहुत साफ है। उपन्यास की कथा में सरकार भी डेवलपर्स है, नेता-भूमाफिया सभी डेवलपर्स हैं और आंदोलनकारी भी अब डेवलपर्स ही हैं।
उपन्यास में एक घटना का जिक्र है, जिसमें आंदोलन के दौरान महिलाए सिसौंण (बिच्छू घास) से पुलिसवालों को पीछे ढकेलती हैं। उत्तराखंड के आंदोलन हों या और भी कोई आंदोलन उनमें प्रतिरोध के जो टूल हैं, उन पर आप का क्या स्टैंड है?
-आजादी के बाद के हमारे ज्यादातर आंदोलन गांधी के सत्याग्रह और असहयोग से निकले हुए हैं। यहां एक बात समझने की जरूरत है, चूंकि गांधी का आंदोलन विदेशी सत्ता के खिलाफ था तो वे उसके आर्थिक हितों पर चोट करते थे। जैसे,नमक बनाओ, विदेशी कपड़ों की होली जलाओ, सरकारी दफ्तरों में काम मत करो, आदि। तबसे आंदोलन का यह रूप ही हमारे समाज में चला आ रहा है। सशस्त्र विद्रोह भी हुए लेकिन आम तौर पर आंदोलन अहिंस क ही रहे। लोगों ने लाठियां खाईं, गोलियां खाईं, आंसूगैस के गोले झेले। आजाद देश में सरकार और जनता एक ही हैं। आंदोलनों के दौरान जो नुकसान हुए जैसे रेलगाड़ियां, बसें, आदि जलाए गए, तोड़फोड़ हुई, सरकारी प्रतिष्ठानों को नुकसान पहुंचा। ये सब सही मायने में जनता का हीनुकसान था। उत्तराखंड में जो भी आंदोलन हुए उन पर गांधीवादी, सर्वोदयी लोगों का बहुत प्रभाव रहा। इन आंदोलनों में वामपंथी लोग भी थे तो गांधीवादी और सर्वोदयी लोग भी थे। पेड़ों से चिपकना एक नई तरह का प्रतिरोध था इसलिए वह लोकप्रिय हुआ और प्रभाव में भी दूर तक गया। ‘नशा नहीं रोजगार दो’ आंदोलन के दौरान महिलाओं ने शराब की दुकानों के आगे धरने दिए। ठेकों की नीलामी नहीं होने दी। शराब ठेकेदारों के मुंह काले किए। बिच्छू घास लगाना भी प्रतिरोध का ही तरीका था। कभी हिंसा भी हो जाती रही है लेकिन प्रतिरोध का अहिंसक रास्ता ही अधिक प्रभावी होता है। आज सरकार जिस तरह संविधान के साथ खिलवाड़ कर रही है। संस्थानों की स्वायत्ता पर हमला कर रही है, उसे बिच्छू घास लगाना जरूरी है, लेकिन कैसे? प्रतिरोध अहिंसक हो, जनतांत्रिक हो लेकिन प्रभावी भी। हैरत है कि लोकतांत्रिक देश में जनता के प्रतिरोध का जवाब बुलडोजर से दिया जा रहा है। यह बहुत खतरनाक प्रवृति है और बढ़ती जा रही है। अभी उत्तराखंड में बनभूलपुरा में आंदोलन हुआ तो आंदोलनकारियों के घरों पर बुलडोजर चला दिया गया। ऐसे में क्या हमें प्रतिरोध की नई शैली की जरूरत है? लखनऊ में धरनास्थल विधान भवन के सामने से हटाकर शहर के कोने पर भेज दिया गया। विधान भवन के सामने धरना होता था तो विपक्ष के विधायक जनता की आवाज सुनते थे और सदन में सवाल उठाते थे। शहर के कोने पर बैठे लोगों की आवाज कौन सुनता है? जनता अपना प्रतिरोध कैसे दर्ज करवाए कि वह असर करे,यह एक बड़ा सवाल आज है।
‘देवभूमि डेवलपर्स’ हो या आपके पहले के उपन्यास उनमें मोटे तौर पर चिपको आंदोलन, नशे के खिलाफ आंदोलन और टिहरी को बचाने के आंदोलनों का जिक्र है। ये आंदोलन सफल क्यों नहीं हो पाए? बिना राजनीति के आंदोलन का सफल होना मुश्किल ही होता है और राजनीति आते ही आंदोलन समितियां गुटों में बंट जाती हैं। आखिर रास्ता क्या है?
-उत्तराखंड के आंदोलन पूरी तरह विफल रहे यह तो मैं नहीं मानूंगा। सवाल यह है कि आंदोलन की सफलता को आप कैसे आंकते हैं? चिपको आंदोलन उत्तराखंड के लोगों को जंगल पर अधिकार दिलाने में तो सफल नहीं हुआ पर उसने संवेदनशील इलाकों में पेड़ों के काटे जाने पर तत्काल रोक लगबा दी थी। इसके अलावा चिपको आंदोलन ने न सिर्फ उत्तराखंड बल्कि दुनिया के कई हिस्सों में प्रकृति पर मनुष्य के अधिकार को स्थापित किया। आदिवासियों और ग्रामीणों और प्रकृति का क्या रिश्ता है, चिपको आंदोलन दुनिया को यह समझाने में सफल रहा। 2006 के वन अधिकार कानून में वन में रहने वालों को कुछ अधिकार मिले। यह भी उसी चेतना की देन है, हालांकि मोदी सरकार उसे भी छीन ले रही है। नशे के खिलाफ आंदोलन मुख्यत: 1984 से मुखर हुआ पर शराब का विरोध तो अंग्रेजों के समय से ही हो रहा था। ऐसे ही अलग राज्य बनाने की मांग पर आंदोलन हुआ। राज्य बन भी गया। पहली नजर में यह आंदोलन की सफलता जान पड़ता है, पर असल में सबसे ज्यादा विफल तो यही आंदोलन रहा। जो सत्ता पहले लखनऊ से संचालित होती थी, वह देहरादून पहुंच गई। उसके साथ पूरा शोषक तंत्र भी पहुंचा। आज तो आम जनता यह कहती है कि हम अलग राज्य बनने से पहले भले थे क्योंकि अब पूरा शोषक तंत्र उनके दरवाजे तक पहुंच गया। उत्तराखंड के तमाम संसधान जल, जंगल, जमीन, आदि लूट लिए गए। मेरा मानना है कि आंदोलन पहाड़ी नदियों की तरह होते हैं। पहाड़ी नदी कहीं तो कल-कल की ध्वनि करती हुई तेजी से बहती है पर कहीं-कहीं पत्थरों के नीचे चली जाती है, फिर कहीं दूर आगे दिखाई देती है। असल में आंदोलन चेतना के संवाहक होते हैं। यह चेतना एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरित होती रहती है। वैचारिक एवं व्यक्तिगत मतभेदों से और कुछ सत्ता के नजदीक होते जाने से आंदोलनकारी ताकतें बिखर गईं। आज उत्तराखंड में भूमाफिया, वन माफिया और संसाधनों का दोहन करने वाले अन्य लोग कभी आंदोलनकारी हुआ करते थे। सरकार की ओर से मिलने वाले राज्य आंदोलनकारी सर्टिफिकेट को पाने की होड़ है और सर्टिफिकेट हासिल करके लोग जमीन, जंगल, नदियों का दोहन कर रहे हैं। हालांकि कई समर्पित आदोलनकारियों ने यह कहते हुए सर्टिफिकेट लेने से इनकार भी कर दिया कि हमने सुविधाएं पाने के लिए आंदोलन नहीं किया था। हमारी उम्मीदों का राज्य तो बना नहीं फिर सर्टिफिकेट कैसा? वे आज भी लड़ रहे हैं। कुल मिलाकर आंदोलनों ने चेतना तो विकसित की है । गिर्दा (मशहूर लोककवि-गायक) कहते थे कि उत्तराखंड के गर्भ में एक बड़ा आंदोलन पल रहा है। देखना है कि यह आंदोलन कब मूर्त रूप लेता है। ‘देवभूमि डेवलपर्स’ में इसका जिक्र है।
पहाड़ के लिए सरकार का जो विकास मॉडल है उससे सहमत हैं? यदि नहीं तो कैसा विकास मॉडल होना चाहिए?,
-असल में विकास के जो सरकारी पैमाने हैं, जैसे प्रति हजार व्यक्ति पर कितनी सड़क, प्रति हजार व्यक्ति पर कितने स्कूल, प्रति हजार व्यक्ति पर कितने अस्पताल। ये मैदान वाले पैमाने पहाड़ पर लागू करना अन्याय है। अब मान लीजिए पहाड़ के एक गांव से दूसरे गांव तक जाने के लिए 10 किमी सड़क बनानी पड़ती है। सरकार इसे ऐसे पेश करती है कि उत्तराखण्ड में मैदानी इलाकों से अधिक सड़कें हैं तो गलत तस्वीर है। दूसरी चीज बड़े बांध पहाड़ के भूगोल के अनुकूल नहीं है। छोटे 20-25 मेगावॉट बिजली का उत्पादन करने वाली परियोजनाएं बनाई जानी चाहिए। प्राकृतिक संसाधनों का सीमित व विज्ञान सम्मत इस्तेमाल होना चाहिए। इसका सटीक उदाहरण था चंडी प्रसाद भट्ट की संस्था-दसौली ग्राम स्वराज समिति। यह एक सहकारी संस्था थी। वे साल में चार-पांच पेड़ काटने का लाइसेंस लेते थे और कृषि उपकरण व अन्य चीजें बनाते थे। इससे स्थानीय अर्थव्यवस्था चलतीथी। सालमेंचार-पांच पेड़ काटने से जंगल नष्ट नहीं होता। अंधाधुंध कटान से होताहै। अब चार धाम फोरलेन रोड प्रॉजेक्ट को ही लें। पहाड़ के ऊपरी हिस्सों में इतनी चौड़ी सड़क बनाने से नीचे जो खेत हैं, गांवहैं, जलस्रोत हैं उनके ऊपर संकट आ गया। ऊपर से फेंका गया सड़क का मलबा खेतों में भर रहा, कई गांवों के जलस्रोत सूख चुके हैं। ऐसे में पर्वतीय क्षेत्र का सही डेवलपमेंट तब ही संभव है जब वहां की पारिस्थितिकी को ध्यान में रखते हुए विकास के पैमाने बनाए जाएं।
‘देवभूमि डेवलपर्स’ में एक प्रसंग है। रात में नीचे की मंजिल में बंधी भैंस दीवार पर सींग मार कर ठक-ठक कर रही है। ईजा (मां) फर्श पर थपकी देकर उससे कहती है चुप रहो। दोनों में इसी तरह संवाद होता है। फिर दोनों ही आश्वस्त होकर सो जाते हैं। एक रोज भैंस की ठक-ठक बंद नहीं होती। ईजा के कहने के बाद भी वह लगातार और असामान्य रूप से ठक-ठक करती रहती है। तब ईजा नीचे जाकर देखती है तो गोशाला से सांप निकलकर भागता है। यह बड़ा ही अनूठा संबंध है। उत्तराखंड के ज्यादातर घरों में जानवर हैं। उनके संग भी एक तरह की सहजीविता नजर आती है। आप इसे किस तरह से देखते हैं?
-सांप वाली घटना सच्ची है। हमारे घर की ही है। पशु-पक्षियों से संवाद बहुत ही स्वाभाविक है। मान लीजिए घर की मुंडेर पर सुबह-सुबह कौवा बोल रहा है तो पहाड़ के लोग कहते हैं-‘सच्चा है तो सरक जा, झूठा है तो मर जा। यानी सच बोल रहा है तो घर में कोई मेहमान आने वाला है। एक बहुत ही सामान्य दृश्य है- जंगल में महिलाएं काम कर रही हैं। एक घर में बंधी गाय रंभाती है। उसकी मालकिन आवाज देती है- रूपसी (गाय का नाम) चुप हो जा। प्यासी है? आज घाम भी तो बहुत है। आ रही हूं, तुझे पानी दूंगी। गाय अपनी मालकिन की आवाज पहचानती है। चुप हो जाती है। पहाड़ पर महिलाओं के पास दराती होती है, जिससे वह मवेशियों के लिए घास, लकड़ी आदि काटती हैं। दराती में छोटे-छोटे घुंघरू बंधे होते हैं। बारिश के दिनों में घास में काफी कीड़े-मकोड़े और सांप भी होते हैं। दराती में बंधे घुंघरू से वे भाग जाते हैं और कटने से बच जाते हैं। शहरी जीवन में हम चीटी, मक्खी, कीड़े देखते ही मारते हैं, लेकिन ग्रामीण जीवन में ऐसा नहीं होता है। जरूरत के लिए पेड़ काटने से पहले पहाड़ के लोग उससे माफी मांगते हैं। पहाड़ के लोगों का प्रकृति से कितना प्रगाढ़ संबंध है यह उनके रोजमर्रा के जीवन में नजर आता है। यह पहाड़ में ही नहीं, वनों और प्रकृति के करीब रहने वाले सभी समाजों में होता है। आदिवासियों में और भी अधिक।
उपन्यास में एक प्रसंग है जिसमें पुष्कर शादी के बाद पत्नी कविता से मजाक में कहता है कि तुम्हें सिर्फ साड़ी में (पेटीकोट, ब्लाउज के बिना ही) गांव वालों के साथ बैठकर भात खाना होगा। इस परंपरा के पीछे क्या वजह है व उत्तराखंडी शादी की अन्य परंपराओं के बारे में भी बताइए?
-उत्तराखंड ब्राह्मण बहुल समाज है, सवर्ण समाज है।उपन्यास का नायक पुष्कर ब्राह्मणहै। ब्राह्मणों में विवाहित महिलाएं और उपनयन के बाद पुरुष कच्चा खाना, जैसे दाल-भात, सिले वस्त्र पहन कर नहीं खाते। एकवस्त्रा होकर पकाते-खाते हैं। हालांकि यह अब समाप्तप्राय है। एक और चीज जिसे जानना बहुत जरूरी है। पहाड़ में पंचांग सूर्य की गति पर आधारित है। वहां महीना पूर्णिमा से नहीं बदलता है। संक्रांति से बदलता है। बंगाल, महाराष्ट्र और दक्षिण भारत में भी ऐसा होता है। पहाड़ में सारे संस्कार, रीति-रिवाज प्रकृति से जुड़े हैं, पर्व भी ऐसे ही हैं, जैसे हरेला पर्व, खतड़वा पर्व,फूलदेई पर्व, घी संक्रांति, आदि। हर संक्रांति एक पर्व के रूप में मनाई जाती है। ये पर्व प्रकृति पूजक पर्व हैं। हमारा समाज प्रकृति पूजक और प्रकृति पोषक ही था। विकास के नाम पर मनुष्य और प्रकृति के बीच, मनुष्य और जानवरों के बीच टकराव पैदा कर दिया गया।
‘देवभूमि डेवलपर्स’ में उत्तराखंड के कुछ गांवों के ‘घोस्ट सिटी’ (भुतहा गांव) में बदल जाने का भी जिक्र आता है। आखिर ऐसा क्यों हुआ? लोग पहाड़ छोड़कर काम करने शहर गए और लौटे नहीं। इस सामाजिक और आर्थिक उथल-पुथल कीक्या वजह है?
-उत्तराखंड के गांव काफी हद तक आत्म निर्भर थे। लोग तेल, नमक, गुड़, कपड़ा जैसी कुछ चीजें बाजार से लेते थे। आबादी बढ़ी तो खेती व अन्य संसाधन कम होते गए। लोगों ने नौकरियों में खास तौर पर फौज में जाना शुरू किया। पहले विश्व युद्ध के बाद से पहाड़ से सैनिकों की भर्ती शुरू हुई। एक बात और, पहाड़ में खेती बहुत उत्पादक नहीं होती है। नदी के किनारे स्थित खेतों से तो फिर भी अच्छी फसल मिल जाती है पर ऊंचाई के खेत सिर्फ बारिश पर निर्भर होते हैं। इसलिए नौकरियों की जरूरत महसूस हुई। कालांतर में शहरों के प्रति आकर्षण बढ़ा। नई पीढ़ी ने शहरों में मकान भी बनाए, लोग वहीं बस गए। लखनऊ में देखें तो कूर्मांचल नगर, पंत नगरजैसी कई कॉलोनियां बस गईं। पहाड़ का जीवन सुंदर तो है पर बहुत कठिन भी है। इसलिए नौकरी के बाद लोग वापस नहीं लौटे। खासकर नई पीढ़ी, जिनका जन्म शहरों में हुआ, वे यहीं के होकर रह गए। मैदानी गांवों में भी किसान का बेटा किसान नहीं बनना चाहता। सभी शहरों का रुख कर रहे। पहाड़ में रहने या वापस लौटने वालों के सामने दो बहुत बड़ी दिक्कतें हैं। पहला- स्कूली शिक्षा। बच्चों की शिक्षा की बड़ी समस्या रही। दूसरी बड़ी समस्या बेहतर चिकित्सा व्यवस्था का न होना। सीएचसी, पीएचसी जैसे सरकारी स्वास्थ्य केंद्र तो हैं पर वहां डॉक्टर नहीं मिलते। चोट लगने पर टांके लगवाने के लिए भी आपको 50 किलोमीटर तक का सफर तय करना पड़ सकता है। प्रसव के लिए महिलाओं को, बीमारों को डोली पर लेकर बहुत लंबी दूरियां तय करनी पड़ती हैं। इस दौरान कई लोगों की जान भी चली जाती है। जो गांव आबाद हैं वहां जंगली जानवरों का आतंक इतना बढ़ गया है कि खेती-बागवानी करना मुश्किल हो गया है। इन्ही वजहों से गांव खाली होते चले जा रहे हैं।
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(सौरभ श्रीवास्तव - पिछले 20 सालसे पत्रकारिता में। फिलहाल नवभारत टाइम्स, लखनऊ से संबद्ध।
फोटोग्राफर, समय-समय पर साहित्यिक लेखन, कुछ कविताएं भी प्रकाशित।)
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