न तो सन् 2014 के आम चुनाव जैसी परिवर्तन की आंकाक्षा जोर मार रही है, न
ही सत्ता-विरोधी लहर दिख रही है. 2019 का लोक सभा चुनाव कई तरह की सम्भावनाएँ ला
सकता है. यदि भाजपा-नीत गठबंधन बहुमत पाता है या भाजपा और कांग्रेस में कोई दल
सत्ता के करीब पहुँचता है तो स्थितियाँ असामान्य नहीं कही जाएँगी लेकिन ऐसा नहीं
हुआ तो? अगर दोनों राष्ट्रीय पार्टियों में से कोई इतनी सीटें
नहीं जीत सका कि विभिन्न क्षेत्रीय दल किसी एक को समर्थन देकर सरकार बनाने में मदद
करें, तब? देश ऐसे
चुनाव परिणाम पहले भी देख चुका है जब क्षेत्रीय दलों के चुनावोपरान्त गठबंधन की
सरकार बनाने में राष्ट्रीय पार्टी बाहर से समर्थन देने को मजबूर हुई.
छोटे-छोटे
दलों की ‘खिचड़ी’ सरकारें
स्थिर नहीं होतीं,
यह भी हम खूब देख
चुके हैं. इसके बावजूद यह एक बड़ी सम्भावना बनी रहती है. क्षेत्रीय दलों के नेताओं
के मन में एक बार प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने की महत्वाकांक्षा इसी कारण
फलती-फूलती रही है. इस बार भी यह बहुत जोर मार रही हो तो कोई आश्चर्य नहीं.
विरोधी दलों की कोलकाता रैली में इस
पर सभी सहमत थे और पुरजोर कह रहे थे कि देश तथा लोकतंत्र को बचाने के लिए भाजपा को
हराना आवश्यक है. इस उद्देश्य के प्रति सभी ने संकल्प भी व्यक्त किया लेकिन ऐसी
कोई राह नहीं निकाली कि वे भाजपा के विरुद्ध एक संयुक्त मोर्चा या गठबन्धन बना
लेंगे.
पहले भी लिखा जा चुका है
और कोलकाता रैली के बाद फिर स्पष्ट हुआ है कि ज्यादातर क्षेत्रीय दल अपने-अपने
राज्यों में भाजपा को शिकस्त देने की हरचंद कोशिश करेंगे. उनमें किसी भी तरह का
गठबंधन चुनाव बाद ही होने के आसार हैं. तेलुगु देशम और एनसीपी जैसे चंद दल ही हैं
जो अपने-अपने राज्यों में कांग्रेस के साथ गठबन्धन करके भाजपा का मुकाबला करने
वाले हैं.
कहा जा सकता है कि इसके पीछे
क्षेत्रीय क्षत्रपों की महत्वाकांक्षा ही है. उनकी नजर चुनाव बाद पैदा होने वाली
स्थितियों का अधिक से अधिक लाभ उठाने पर टिकी हुई है. इसीलिए वे चुनाव-पूर्व किसी
प्रतिबद्धता से बच रहे हैं.
सीटों के लिहाज से सबसे बड़े राज्य
उत्तर प्रदेश में दो महत्त्वपूर्ण दलों, सपा
और बसपा का गठबंधन हो चुका है. पिछले चुनाव नतीजों का सामान्य गणित, जो आवश्यक नहीं कि सही ही बैठे, कहता है कि इस
गठबंधन से भाजपा को पचास सीटों तक का नुकसान हो सकता है. भाजपा के लिए यह बहुत बड़ा
धक्का होगा. सपा-बसपा मान कर चलेंगे ही कि उनके पक्ष में इससे भी अच्छा परिणाम
आएगा. मान लिया कि सपा-बसपा को उत्तर प्रदेश में 50 सीटें मिल जाती हैं तो क्या वह
लोक सभा में एक बड़ी ताकत नहीं होगी? किसी राष्ट्रीय दल के
बहुमत से काफी दूर रह जाने पर वह स्वयं सत्ता की दावेदार नहीं बनेगी?
समझा जा सकता है कि ममता बनर्जी की भाजपा
विरोधी विपक्षी रैली को पूरा समर्थन देने के बावजूद मायावती स्वयं उसमें शामिल
क्यों नहीं हुईं. उन्होंने अपना प्रतिनिधि भेजा. अखिलेश यादव वहाँ गये क्योंकि अभी
वे प्रधानमंत्री बनने का सपना देखने के लिए काफी नये हैं. मायावती के लिए ऐसा नहीं
कहा जा सकता.
इसी कारण ने राहुल गांधी को भी
कोलकाता को विशाल विपक्षी मंच से दूर रखा हालांकि उनके एक से ज्यादा प्रतिनिधि
वहाँ मौजूद थे. राहुल प्रधानमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार माने जाते हैं. खैर,
यहाँ हम भाजपा-विरोधी क्षेत्रीय क्षत्रपों की राजनीति की बात कर रहे
हैं.
ममता बनर्जी हाल के महीनों में
भाजपा-विरोधी क्षेत्रीय नेताओं की अग्रिम पंक्ति में रही हैं. कोलकाता रैली का
आयोजन उन्होंने बंगाल में वामपंथियों के मुकाबले भाजपा-विरोध की अपनी शक्ति दिखाने
के लिए ही नहीं, राष्ट्रीय फलक पर अपनी
धमक जताने के लिए भी किया. वर्तमान लोक सभा में विपक्ष में कांग्रेस के बाद तृणमूल
कांग्रेस सबसे बड़ा दल है. 2019 के लिए वे अपने दाँव क्यों नहीं चलेंगी? ऐसी स्थितियाँ भी
तो बन सकती हैं जब क्षेत्रीय क्षत्रपों को
नेतृत्त्व के लिए उनके नाम पर राजी होना पड़े. देवेगौड़ा या इंद्र कुमार गुजराल की
तुलना में ममता बनर्जी कहीं ज्यादा परिचित और सक्रिय नाम नहीं है क्या? मायावती और ममता बनर्जी में चुनाव करना पड़े तो अन्य क्षेत्रीय दल किसके
पक्ष में खड़े होंगे?
कांग्रेस तीन राज्यों में सत्ता में
वापस अवश्य आ गयी है लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के मुकाबले अकेली पार्टी होने
के बावजूद उसकी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है. कर्नाटक, गुजरात,
राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़
में उसने बेहतर प्रदर्शन किया है लेकिन उत्तर प्रदेश, बिहार,
बंगाल जैसे बड़े राज्यों में उसके पैर उखड़े हुए हैं. उत्तर-पूर्व में
उसका सफाया है. पिछले लोक सभा चुनाव में वह मात्र 44 सीटों पर सिमट गयी थी. इस
बार आखिर उसे कितना फायदा हो जाएगा? कुछ अजूबा घटित हो तो
नहीं कह सकते, वर्ना सौ-सवा सौ सीटें पाना उसके लिए बड़ी
उपलब्धि होगी.
भाजपा दो सौ के आंकड़े से काफी नीचे
रह जाए तो भी कांग्रेस इस स्थिति में सत्ता की दावेदारी कैसे कर सकेगी?
स्वाभाविक है कि वह भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए
क्षेत्रीय दलों को समर्थन देने को विवश होगी. यह बड़ा कारण है कि क्षेत्रीय दल फिलहाल
कांग्रेस का नेतृत्त्व स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं. उलटे, वे कांग्रेस से स्वयं समर्थन की आशा लगा रहे हैं. सपा-बसपा ने कांग्रेस को
गठबंधन में शामिल नहीं करने के बावजूद सोनिया और राहुल गांधी की सीटों पर चुनाव
नहीं लड़ने का फैसला क्या यूँ ही किया है?
आसन्न आम चुनाव के परिणामों की ऐसी
सम्भावनाएँ क्षेत्रीय दलों की महत्त्वाकांक्षाओं को हवा दे रही हैं. इसलिए आश्चर्य
नहीं होना चाहिए कि भाजपा के विरुद्ध एक मंच पर इतनी बड़ी जुटान होने के बावजूद
महागठबंधन की सम्भावना दूर-दूर तक नहीं दिख रही. ये क्षेत्रीय दल भाजपा को हराना
चाहते हैं लेकिन उसके लिए अपने राजनैतिक हितों की तिलांजलि नहीं दे सकते. भाजपा को
परास्त करने की रणनीति के साथ-साथ उन्हें अपने लिए अधिकतम सम्भावनाओं के द्वार
खोले रखने हैं.
यह विरोधाभास आज की चुनावी रजनीति का
सत्य है. सत्य यह भी है कि इसमें राजनैतिक अस्थिरता,
उठापटक और जल्दी-जल्दी चुनाव के खतरे शामिल हैं. जनता का बड़ा वर्ग मोटे तौर पर अस्थिरता
और अवसरवादी राजनीति स्थिति पसंद नहीं करता लेकिन जातीय-धार्मिक-क्षेत्रीय
गोलबंदियों से प्रभावित मतदान ऐसी स्थितियाँ ले ही आता है. ऐसी सम्भावना भाँप कर
ही भाजपा नेता अब जनता को ‘खिचड़ी’, ‘स्वार्थी’
और ‘अस्थिर सरकारों’ से
आगाह करने में लग गये हैं.
यानी, सभी
दल अपने कुछ पत्ते छुपा कर खेल रहे हैं.
(प्रभात खबर, 23 जनवरी, 2019)