Friday, March 13, 2020

एक वायरस से भयभीत विश्व की कैसी नियति?

क्या यह बहुत आश्चर्यजनक नहीं लगता कि चमत्कार तक सम्भव कर देने वाले इस वैज्ञानिक युग में हम एक वायरस से इस कदर भयभीत हो रहे हैं? यह कोई नया वायरस नहीं है जिसने अचानक इस दुनिया पर हमला कर दिया हो. मानव जीवन से भी पुराने करोड़ों-अरबों जीवाणुओं और वायरसों की इस सृष्टि में किसी एक वायरस ने ही रूप बदल कर अपने को इतना खतरनाक बना लिया है कि उसके सामने आदमी की समस्त वैज्ञानिक प्रगति पानी भरने लगी है.

कोरोना की सही-सही पहचान और बचाव का टीका खोजने में वक्त लगेगा. अरबों-खरबों डॉलर के व्यवसाय वाले दवा उद्योग के लिए यह अपार मुनाफे की नई सम्भावना बनेगा, जैसा कि हमेशा से होता आया है. जो नई दवाएं आएंगी वह प्रकृति का संतुलन और बिगाड़ेंगी. जीवाणुओं और वायरसों को मारने-दबाने की दवाएं खोजते-बनाते और उनका अंधाधुंध उपयोग करते हुए ही हम आज इस मुकाम पर पहुंचे हैं कि ज़्यादातर एंटीबायोटिक और वैक्सीन अपना असर खो रहे हैं. जीवाणु उनसे बचने का रास्ता खोज चुके हैं और वायरस बार-बार रूप बदल कर सामने आ रहे हैं.

विकास के आधुनिक स्वरूप में मनुष्य ने इस सृष्टि को सिर्फ अपनी बपौती माना है और बेशुमार जीवाणुओं, परजीवियों और वायरसों को शत्रु मानकर उनका संहार करना जारी रखा है, जो कि इस सम्पूर्ण प्रकृति के अस्तित्त्व का अनिवार्य अंग रहे हैं और कई रूपों में मानव के सहायक भी हैं. जैसे-जैसे मानव प्रकृति से अपना तादात्म्य खत्म करता गया, वैसे-वैसे उसकी प्रतिरोधक क्षमता खत्म होती गई और वह नए-नए रोगों से ग्रसित होता गया. विकासके हमारे ढांचे ने और विकसितजीवन पद्धति ने प्रकृति के सूक्ष्म संसार को नष्ट क़िया है. उसी का नतीजा हम भुगत रहे हैं.

अत्यधिक स्वच्छता का व्यापारिक आग्रह किस तरह मनुष्य के शरीर और आस-पास व्याप्त हितकारी जीवाणुओं को नष्ट करता आया है उसका सबसे बड़ा उदाहरण गंगा-यमुना का पानी है. यह विज्ञान-सिद्ध तथ्य है कि इन नदियों का पानी कभी हैजे के जीवाणुओं तक को निष्प्रभावी करने की क्षमता रखता था. आज वह यह गुण खो चुका है क्योंकि हमने उसमें बेहिसाब मैला और जीवाणु नाशक घोल दिए हैं.
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आज कोरोना वायरस से पूरा विश्व त्रस्त है तो उसमें हमारी ही हाथ है. कई देशों ने अपने को बाहरी दुनिया के लिए बंदकर दिया है. कुछ अपने में ही कैद हो गए हैं. ज़्यादातर कार्य-व्यापार बंद हो रहे हैं. आर्थिक मंदी से परेशान कई देश अब कोरोना-जनित मंदी झेलने को अभिशप्त हैं. बचाव का एक ही तरीका बताया जा रहा है कि अधिक से अधिक समय घर के भीतर रहिए, भीड़-भाड़ से बचिए, हाथ से मुंह मत छुएं और घड़ी-घड़ी हाथ धोएं.

जैसा बताया जा रहा है, वैसी सावधानियां बरतिए लेकिन यह भी गौर कीजिए कि सैनीटाइजर और कीटनाशक साबुनों के अत्यधिक प्रयोग से हम अपनी त्वचा के रक्षक जीवाणुओं को भी नष्ट कर रहे हैं और उसे नदियों तक पहुंचा कर पानी का प्राकृतिक गुण भी मार रहे हैं. बेहिसाब मुनाफा कमाती दवा, सौंदर्य-प्रसाधन और साबुन-सैनीटाइजर कम्पनियों के चकाचौंधी एवं डरावने प्रचार के हम गुलाम बने हुए हैं. 

कोरोना से यह दुनिया नष्ट नहीं होने वाली. मनुष्य इससे बचने की राह भी खोज लेगा या वायरस ही अपना नया रूप धरकर कुछ समय के लिए शांत हो जाएगा. जीवन की यह जो रीत हमें सिखा दे गई है और जिससे छुटकारा दिखता नहीं, उसमें तय है कि कोरोना जैसा कुछ न कुछ हमें सताने आता रहेगा. प्रकृति की ओर नहीं लौटेंगे तो और भी डरावने हालात झेलने होंगे.  

(सिटी तमाशा, 14 मार्च, 2020)

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