Sunday, March 08, 2020

‘नमस्ते’ माने पुलिस पीड़ित जनता के साथ है?


नमस्ते’- लोहिया पार्क के बाहर चार-पांच पुलिस वालों ने एक बुज़ुर्ग के सामने हाथ जोड़े. बुज़ुर्ग चौंकने से ज़्यादा डर गए. पुलिस की वर्दी भय पैदा करती है. मां-बाप बच्चों को पुलिस का नाम लेकर डराते हैं. बचपन में एक रिश्तेदार ने मंदिर के सामने सिखाया था- बेटा, भगवान से और चाहे कुछ मांगो या न मांगो, इतना ज़रूर मांगना कि पुलिस और वकील का सामना कभी न करना पड़े.बहरहाल, बुज़ुर्गवार का डर जाता रहा जब पुलिस वालों ने हाथ जोड़कर कहा कि कोई भी परेशानी हो तो बताएं, लखनऊ पुलिस आपकी हिफाजत के लिए है.

लखनऊ पुलिस ने जनता का भरोसा जीतने और अपनी छवि सुधारने के लिए नमस्ते, लखनऊअभियान शुरू किया है. कुछ खास जगहों पर सुबह–शाम खड़े होकर पुलिस वाले नागरिकों को नमस्ते कर रहे हैं और उन्हें आवश्यकता पड़ने पर सुरक्षा एवं सहायता का आश्वासन दे रहे हैं. पुलिस पेट्रोल टीम से ऐसा करने के लिए ऊपर से कहा गया है. कुछ स्थानों पर वे ईमानदारी से आदेश का पालन कर रहे हैं. कहीं उसका मजाक बना रहे हैं और किसी चिह्नित जगह पर नमस्तेकहने जा ही नहीं रहे.

जब से लखनऊ जिले में पुलिस आयुक्त प्रणाली लागू हुई है, पुलिस की छवि की धुलाई-पुताई की कोशिश चल रही है. नमस्ते लखनऊ उसी अभियान का हिस्सा है. प्रयास की सराहना की जानी चाहिए. कम से कम सोचा तो गया कि पुलिस जनता का भरोसा जीते. जिस दिन पुलिस पर जनता मन से भरोसा करने लगेगी, कानून-व्यवस्था और अपराध-नियंत्रण की बहुत सी समस्याएं हल हो जाएंगी.

वैसे, यह कोई नई पहल नहीं है. प्रत्येक नया पुलिस मुखिया अपने कार्यकाल की शुरुआत किसी न किसी प्रयोग से करता है. मित्र पुलिसका नारा ऐसा ही अभियान था लेकिन जनता पुलिस को अपना मित्र मान पाई क्या? उसके तमाम काम ऐसे होते हैं जो मित्रका अर्थ ही उलट देते हैं.  
नमस्तेसे गदगद हुए बुजुर्ग की गाड़ी का थोड़ी देर बाद इसलिए चालान कर दिया जाए कि वे सड़क किनारे ठेले वाले से फल खरीदने रुक गए थे या पंक्चर बनवाने लगे थे तो? यह छुपी बात नहीं है कि फल और पंक्चर वाले से पुलिस हर महीने कम से कम दो-दो हजार रू वसूलती है. यह तो खैर बड़ी मामूलीबात हुई, वही बुज़ुर्ग जब अपने या बेटे के पासपोर्ट वास्ते अटके पुलिस सत्यापन के बारे में तहकीकात करने थाने जाते हैं तो उनसे कैसा सलूक किया जाता है? सत्यापन के लिए क्या-क्या करना पड़ता है? किसी अपराध की सही-सही एफआईआर लिखवाना और उस पर कार्रवाई सुनिश्चित कराना आम जनता के लिए कैसा अनुभव होता है?

नमस्तेकरना जितना आसान और खेल सरीखा है, क्या पुलिस के लिए उतना ही आसान दबंगों और राजनैतिक प्रभाव वालों का दबाव झटक कर आम जनता की मदद कर पाना है? अगर पुलिस राजनैतिक रसूख वाले किसी अपराधी के सताए सीधे-सरल इनसान के साथ खड़ी नहीं हो सकती तो नमस्तेकरने से कैसे जनता का विश्वास जीत लेगी? हाथ जोड़ने और साथ देने में बड़ा फर्क है. जनता में आम धारणा यही है कि पुलिस राजनेताओं के इशारे पर चलती है और अपराधियों से मिली रहती है. यह धारणा ऐसे ही नहीं बनी. बहुत सारे मामले इसकी पुष्टि करते हैं.

पुलिस को निश्चय ही जनता का भरोसा जीतना चाहिए. इसके लिए उसे अपनी कार्यप्रणाली में सुधार करना होगा और राजनैतिक दबाव से मुक्त होना होगा. ऐसा हो सके तो जनता खुद उसे नमस्तेकहने आगे आएगी. 

(सिटी तमाशा, 07 मार्च, 2020)               
        

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