Friday, May 15, 2020

कामगारों के पैरों के फफोले कुछ सवाल भी करते हैं


दो दिन पहले इस समाचार पत्र के पहले पृष्ठ पर एक मार्मिक चित्र प्रकाशित हुआ था. सोशल साइटों पर भी वह बहुत शेयर किया गया. एक बैलगाड़ी को एक बैल और स्त्री मिलकर खींच रहे हैं. बैलगाड़ी में परिवार बैठा है जो शहर में रोजगार छिन जाने के कारण अपने गांव लौट रहा है. चित्र-परिचय बताता है कि इस परिवार को पेट भरने के लिए एक बैल बेचना पड़ा. इसलिए उस बैल की जगह कभी पति तो कभी पत्नी जुतकर गाड़ी खींच रहे थे.

यह दिल दहलाने वाला दृश्य है. बैलगाड़ी को बैल खींचते हैं. एक बैल और एक इंसान के खींचने वाली गाड़ी को क्या नाम दिया जाए! यह 2020 की महामारी से सामने आ रहे अनेक हृदय विदारक दृश्यों में एक है. ऐसा नहीं है कि गरीबी, अभावों और उनसे जूझने के ये मार्मिक दृश्य अभी-अभी जन्मे हैं. सच्चाई यह है कि राजनीति से लेकर शहरी अभिजात और मध्य वर्ग को अपने देश की असली तस्वीरें इस समय दिखाई देने लगी हैं. पेट भरने और प्राण बचाने की ऐसी आपा-धापी और मारा-मारी अवश्य नहीं रही होगी लेकिन वे स्थितियां उस अदृश्य भारत में बराबर उपस्थित रही हैं जिनमें एक स्त्री या एक पुरुष को बैलगाड़ी में जुतना पड़ रहा है या भूखे पेट सैकड़ों मील पैदल अथवा साइकिल से चलना पड़ रहा है.

बैलगाड़ी में जुती स्त्री को देखकर बचपन वे दृश्य याद आ गए जब दुर्गम पहाड़ी गांवों में हल या दांते में बैल की जगह स्त्री जुती दिखाई देती थी. कंधे में रस्सी फंसा कर खेत में भारी दांता खींचना सामान्य दृश्य माना जाता था. मीलों दूर का लम्बा-कठिन सफर नंगे पांव तय करने वाले ग्रामीणों के फटे और सूखे तलवे इतने आम थे कि सिहरन पैदा नहीं करते थे. दो वर्ष पूर्व जब कई दिन-रात पैदल चलकर प्रदर्शन करने मुम्बई पहुंचे किसानों के छाले पड़े पैर मीडिया में दिखाई दिए तो मुम्बई वाले मरहम और जूते-चप्पल लेकर उनकी मदद को दौड़ते दिखे थे. उन छाले पड़े पैरों ने शहराती मध्य वर्ग को हिला दिया था.

आज उससे भी दर्दनाक मंजर हमारे चारों तरफ दिख रहा है. पैरों के छाले फूटकर घाव बन गए हैं. किसी ने प्लास्टिक की बोतल काटकर टूटी चप्पल की जगह पहन रखी है. कोई युवक अपनी बूढ़ी मां को गोद में उठाए चला जा रहा है क्योंकि अब मां चलने लायक नहीं रही. कई मां और पिता अबोध बच्चों को कंधे में बिठाए मीलों-मील चले जा रहे हैं. कोई थकान से आई बेहोशी वाली नींद में ट्रेन या ट्रक से कुचला जा रहा है. कोई जिस परिवार को घर पहुंचाने चला था, अब उनकी लाश ढो रहा है.
दर्द के ये मंजर आज अचानक बहुतायत में हमें दिख रहे हैं. बैलगाड़ी में जुती स्त्री और पैरों में पड़े फफोले किसी न किसी रूप में पहले भी थे ही. वे स्थितियां न सुधरीं, न खत्म हुईं जिनमें ऐसा होता आया है. उस भारत को हम देखना ही भूल गए. उस अदृश्य देश में हमारी आवाजाही ही न रही. इस महामारी ने हमारे और उस भारत के बीच का पर्दा गिरा दिया है.

बहुत सारे लोग द्रवित हैं. भरसक मदद कर रहे हैं. अन्न और भोजन से लेकर जूते-चप्पलों तक की आवश्यक सहायता. इंसानियत का तकाजा है कि यह मदद की जानी चाहिए लेकिन इसके साथ ही संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए. अपने भीतर और बाहर भी यह सवाल लगातार पूछते रहना होगा कि ये हालात क्यों बने? कब तक बने रहेंगे? और, स्थितियां कैसे बदल सकती हैं? इन दृश्यों भूलना नहीं है, सोचना और सवाल करते रहना है.       
           
(सिटी तमाशा, नभाटा, 16 मई, 2020)     

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