Friday, May 29, 2020

संकट काल में सामने आए भांति-भांति के चेहरे


कोरोना बंदी क्या हुई,  दवा दुकानदारों ने एक धेले की छूट देना बंद कर दिया. पहले वे दवाओं पर पांच से पंद्रह फीसदी छूट अपने आप दे देते थे. बड़ी दुकानों ने एमआरपी पर सामान बेचना शुरू कर दिया. छोटे दुकानदार तो पहले भी उससे एक पैसा कम नहीं लेते थे. बड़े स्टोर वाले जो पहले फ्री होम डिलीवरीका विज्ञापन करते थे, अब बिना अतिरिक्त शुल्क लिए सामान घर नहीं पहुंचा रहे. सबको अपने घाटेकी भरपाई उपभोक्ता से करनी है. सरकार भी उसी पर टैक्स और सेस लगा रही है.
किसान सबसे अधिक घाटा उठा रहे हैं. जायद की फसलों के इस मौसम में खरबूज-तरबूज, खीरा-ककड़ी इतने सस्ते हाल के वर्षों में कभी न थे. गली-गली घूम कर फल-सब्जी बेचने वाले अपनी कमाई जोड़कर भी सस्ता माल बेच रहे हैं. उन्हें थोक मण्डियों में और कम दामों पर चीजें मिल रही हैं. किसान का उत्पाद इधर कुछ दिनों से उठना शुरू हुआ है लेकिन दो मास तो खूब नुकसान हो गया. बिचौलिए सदा की तरह उन्हें लूट रहे हैं. अब आम की फसल पर मार पड़ने वाली है. उसका व्यापार भी बिचौलियों के ही हाथ है.
शहरी मध्य वर्ग के अपने रंग-ढंग हैं. एक तरफ वे अपने घरों को लौट रहे कामगारों को कोस रहे हैं कि अब ये लोग कोरोना संक्रमण फैलाने लगे हैं, क्या जरूरत थी इन्हें इस तरह घर भागने की, सरकार खिला तो रही है, पड़े रहते कैम्प में. इस वर्ग को अपनी सुविधाओं के अलावा और किसी की चिन्ता नहीं है. जो लोग यह कह सकते हैं कि क्यों मरे जा रहे हैं ये घर जाने के लिए? वे न अपने देश के हालाल से परिचित हैं, न कामगारों की विशाल संख्या का दर्द समझ सकते हैं.
निम्न-मध्य वर्ग की एक और समस्याअब सुनाई देने लगी है. अगर शुरू-शुरू में बीमारी के डर से उन्होंने अपनी कामवालियों को सवेतन छुट्टी दे थी, तो अब वे कहने लगे हैं- मुफ्त में कब तक खिलाएं इन लोगों को?’ यानी अब कामवालियों का मेहनताना भी गया. बहुमंजिला इमारत में रहने वाले एक मित्र ने बताया कि कई घरों ने कामवालियों से कह दिया है कि वे सोसायटी (आरडब्ल्यूए) से वेतन मांगें क्योंकि वही उन्हें काम पर नहीं आने दे रहे.
ये वही लोग हैं जो अपने को सबसे बड़ा देश-भक्त कहते हैं और व्यवस्था या सरकार से सवाल पूछने वालों को राष्ट्र-द्रोही घोषित करते हैं. फेसबुक और वट्सऐप में मगन इस वर्ग को यही माध्यम ज्ञान-कोष लगता है. इसीलिए उसे बहुत आसानी से बरगला लिया जाता है. इस संकटकाल में भी वह अफवाहें और गलत जानकारियां फैलाने में दूसरों के हाथों इस्तेमाल किया जा रहा है.
राहत और खुशी देने वाली बात यह है कि इसी विशाल वर्ग का एक संवेदनशील हिस्सा विपदा में पड़े कामगारों, दिहाड़ी पर निर्भर जनता और बंदी के कारण तरह-तरह की मुसीबतों में फंसे लोगों की भरसक मदद करते रहे हैं. कुछ उसका प्रचार भी कर रहे हैं और कुछ बिना नाम-काम दिखाए जुटे हुए हैं. उन्होंने अपने को खतरे में डालकर भी जरूरतमंदों की मदद की है. इन सबकी कोशिशों ने बहुत सारे लोगों की जान बचाई है. बहुत भरोसा भी दिखाया है कि सब कुछ निराशाजनक नहीं है. कठिन अवसरों पर इंसानियत का ऐसा चेहरा मानवता की बड़ी ताकत है.         
कोरोना के बाद या इसके साथ-साथ दुनिया कैसी होगी पता नहीं, लेकिन क्या यह आशा करना व्यर्थ होगा की बन्दी से त्रस्त, नंगे पांव, भूखे पेट घरों को लौटते और रास्ते में दम तोड़ते मजबूर कामगारों का जो भारत आज सबकी आंखों के सामने खुला पड़ा है, उसके प्रति समाज एवं सरकार अधिक सम्वेदनशील बनेंगे?
(सिटी तमाशा, नभाटा, 30 मई, 2020)    
    


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