Thursday, December 17, 2020

यूपी में क्या गुल खिलाएंगे ओवैसी?

 


बिहार विधान सभा चुनाव में महागठबंधन का खेल बिगाड़नेके आरोप झेल रहे तेज-तर्रार मुस्लिम नेता असदुद्दीन ओवैसी ने अब उत्तर प्रदेश और बंगाल का रुख करने का ऐलान किया है। ऑल इण्डिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी ने हाल में सम्पन्न बिहार चुनाव में पांच सीटें जीतकर मुस्लिम मतदाताओं के बीच अपने बढ़ते प्रभाव की धमक दूर-दूर तक सुनाई। महागठबंधन के नेताओं से लेकर कई राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि ओवैसी ने मुस्लिम वोटों में सेंध लगाकर महागठबंधन को कमजोर और एनडीए को मजबूत किया। ओवैसी की पार्टी को बिहार में अच्छा समर्थन मिला, खासकर यूपी से लगे बिहार में। उन्होंने कुल पांच सीटें जीतीं और नीतीश की सत्ता में वापसी का एक बड़ा प्रच्छन्न कारण बने।

ओवैसी बीते बुधवार को लखनऊ में थे। उन्होंने सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) के अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर से मुलाकात की और ऐलान किया कि वे 2022 में सुभासपा के नेतृत्व में मोर्चा बनाकर चुनाव लड़ेंगे। ओमप्रकाश राजभर कुछ समय पहले तक भाजपा के साथ थे और प्रदेश सरकार में मंत्री भी रहे। लोक सभा चुनाव में अपनी उपेक्षा का आरोप लगाकर वे एनडीए से अलग हो गए थे। एक तरह से वे इस समय हाशिए पर हैं और मुख्य धारा में वापसी के लिए सहयोगियों की तलाश कर रहे हैं। बिहार विधान सभा चुनाव में वे बसपा और एआईएमआईएम के साथ मोर्चा बनाकर शामिल हुए थे। उसी मित्रता को उत्तर प्रदेश में दोहराने का ऐलान ओवैसी लखनऊ में कर गए।

उत्तर प्रदेश में ओवैसी की यह धमक नई नहीं है। वे काफी पहले से उत्तर प्रदेश के मुस्लिम मतदाताओं का ध्यान खींचने का प्रयास करते रहे हैं। यहां करीब साठ जिलों में उनका संगठन बना है। एआईएमआईएम ने 2017 में प्रदेश का विधान सभा चुनाव लड़ा था और 38 सीटों पर 0.25 फीसदी वोट पाए थे। उसके पहले भी वे उत्तर प्रदेश में अपनी पार्टी के पैर जमाने का प्रयास करते रहे हैं। एक बार यहां वे पंचायत चुनाव भी लड़ चुके हैं और 2017 का चुनाव लड़ने से पहले बीकापुर (फैजाबाद) विधान सभा सीट के उपचुनाव में उन्होंने अपना प्रत्याशी उतारा था। यह रोचक बाजी थी क्योंकि बीकापुर में उन्होंने मुस्लिम प्रत्याशी की बजाय दलित उम्मीदवार उतारा था जिसे भाजपा प्रत्याशी से कुछ ही कम वोट मिले थे। तब भी उत्तर प्रदेश में ओवैसी का नोटिस लिया गया था और उन्होंने कई बार उत्तर प्रदेश का दौरा किया था।

2014 के लोक सभा चुनाव के समय भी ओवैसी यूपी का दौरा कर रहे थे। तब प्रदेश में सतारूढ़ समाजवादी पार्टी के कान खड़े हो गए थे क्योंकि ओवैसी की सभाओं में मुस्लिम युवाओं की खासी भीड़ जुटती थी। ओवैसी मुसलमान वोटरों से कहते थे-पहले भाई, फिर भाजपा हराई, उसके बाद सपाई।’ अर्थात मुसलमान वोटरों के लिए सबसे पहले अपना भाई यानी मुसलमान प्रत्याशी है, फिर वह जो भाजपा को हरा सके और उसके बाद सपा प्रत्याशी। इसी करण सपा सरकार ने तब ओवैसी को आजमगढ़ में सभा करने की अनुमति नहीं दी थी क्योंकि वहां से मुलायम सिंह को चुनाव लड़ना था। कहने का आशय यह कि ओवैसी उत्तर प्रदेश के लिए नए नहीं हैं लेकिन इस बार बिहार में मिली सफलता ने उन्हें कहीं अधिक प्रासंगिक बना दिया है। उनकी ओर राजनैतिक दलों एवं विश्लेषकों का ध्यान जाना स्वाभाविक है।

उत्तर प्रदेश में फिलहाल भाजपा बहुत मजबूत पायदान पर खड़ी दिखती है। उसे चुनौती दे सकने वाले सपा और बसपा के पैर उखड़े हुए हैं। पिछले विधान सभा और लोक सभा चुनाव में इन दोनों दलों को बुरी हार देखनी पड़ी थी। लोक सभा चुनाव तो सपा-बसपा ने मिलकर लड़ा लेकिन वे भाजपा के वर्चस्व को तोड़ नहीं सके थे। इस आधार पर अभी यही लगता है कि ओवैसी सेकुलर दलों के लिए यूपी में उतना बड़ा खतरा साबित नहीं होंगे जितना वे बिहार में हुए। बिहार में दोनों गठबंधनों में कांटे की टक्कर थी। ओवैसी की मौजूदगी ने एनडीए के पक्ष में पलड़ा झुकाने में मद्द की। महागठबंधन ने तो यहां तक आरोप लगा दिया कि ओवैसी ने भाजपा से धन लेकर महागठबंधन को हराने का सौदा किया।

उत्तर प्रदेश में अभी भाजपा के खिलाफ बिहार जैसा कोई मजबूत गठबंधन नहीं है और निकट भविष्य में बनने के आसार भी नहीं दिखाई देते। सपा ने अकेले लड़ने की घोषणा कर दी है। बसपा दूसरे राज्यों में तो कुछ दलों से सहयोग कर लेती है लेकिन उत्तर प्रदेश में वह किसी को भागीदार नहीं बनाना चाहती। बिहार में वह ओवैसी के साथ एक मोर्चे में थी लेकिन यूपी में सम्भावना नहीं है कि वह ओवैसी के साथ गठबंधन करेगी। ओवैसी ने भी लखनऊ में ऐसा कोई संकेत नहीं दिया। शिवपाल की पार्टी के बारे में भी वे निश्चय से कुछ नहीं कह सके।

एक बात लेकिन नोट की जानी चाहिए और यह बिहार के नतीजों ने भी साबित किया कि तेज़-तर्रार ओवैसी के आक्रामक भाषणों ने मुसलमानों की युवा पीढ़ी को विशेष रूप से प्रभावित किया है। वे कहते हैं कि मुसलमानों की अपनी पार्टी और अपने नेता ही उनका वास्तविक भला कर सकते हैं। बाकी पार्टियां मुसलमानों में भाजपा का डर पैदा कर, उनकी सुरक्षा के नाम पर उनके वोट लेती हैं और खुद सत्ता का भोग करती रही हैं। इसलिए ओवैसी उन सभी पार्टियों को अपने लिए खतरा लगते हैं जिन्हें अब तक मुसलमान मतदाताओं का अच्छा समर्थन मिलता रहा है। इनमें उत्तर प्रदेश के अखिलेश यादव (पहले मुलायम) बिहार के लालू (अब तेजस्वी) और बंगाल की ममता बनर्जी भी शामिल हैं। यह अकारण नहीं है कि ममता बनर्जी ओवैसी पर भाजपा को चुनाव जिताने की सौदेबाजी करने का आरोप बार-बार दोहरा रही हैं। ओवैसी अगले वर्ष होने वाले बंगाल चुनावों में शामिल होने का अपना इरादा जता चुके हैं। वहां भी उनको मिलने वाले वोट सेकुलर दलों, विशेषकर ममता बनर्जी के खाते से कटेंगे और भाजपा को लाभ पहुंचाएंगे।

उत्तर प्रदेश में ओवैसी और राजभर की पार्टियों का मोर्चा भाजपा का मुकाबला करने की स्थिति में तो क्या हो पाएगा लेकिन वह सेकुलर दलों, विशेष रूप से सपा-बसपा के वोट काटकर भाजपा की मदद ही करेगा। यह हमारी चुनावी राजनीति का एक विद्रूप ही कहा जाएगा कि ओवैसी प्रकट में जिस भाजपा को हराने का इरादा रखते हैं, प्रकारांतर से उसी की मदद कर बैठते हैं।      

(प्रभात खबर, 18 दिसम्बर, 2020)

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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