चौबीस घण्टे में 225 मिमी बारिश इतनी ‘भीषण’ नहीं होती कि राजधानी और आस-पास के इलाके त्राहि-त्राहि करने लगें, घरों में पानी भर जाए और लोगों को सुरक्षित इलाकों में शरण लेनी पड़े। ऐसी बारिशें पहले भी होती रही हैं। हथिया नक्षत्र में तो किस्सा ही है कि हाथी की सूड़ जैसी मोटी धार बरसती है। फिर क्यों ऐसा हो गया है कि जलभराव ने बाढ़ जैसा संकट पैदा कर दिया और बिजली-पानी जैसी आवश्यक सुविधाएं ठप हो गईं, जिसकी मार अभी कुछ दिन तक जनता को झेलनी होगी?
कई बार कहा जाता रहा है कि धरती से बारिश का पानी सोखने की क्षमता
छीन ली गई है। लखनऊ में कितने तालाब, बाग, खेत, वगैरह थे और आज कितने बचे हैं? बारिश का पानी जाए कहां?
तारकोल की मोटी परतों वाली सड़कें हैं, उनसे जो
जगह बची उनमें टाइल्स बिछी हैं और चारों तरफ कंक्रीट का जंगल घना होता गया है। बुधवार
और गुरुवार को तो मूसलधार वर्षा हुई लेकिन यहां तो सामान्य बारिश में भी कई इलाके जलमग्न
हो जाते हैं। पानी को बहने की जगह नहीं मिलेगी तो वह जमा ही तो होगा, घरों में भी घुसेगा और सड़कों में जहां थोड़ा पोला मिलेगा, वहीं धंसता जाएगा।
गांव हो या शहर, उसकी एक निश्चित ढाल होती है। पानी स्वभावत:
उसी तरफ बहता है। उस ढाल में इमारतें बन जाएंगी तो पानी की राह रुकेगी लेकिन वह बहेगा
उसी तरफ। परिणाम यह कि वहां जल भराव होगा। अखबारों में छपी उन इलाकों की सूची देख लें,
जहां बुधवार और गुरुवार की भारी बारिश ने बाढ़-सा दृश्य रच दिया है,
वे सब ढलवा इलाके हैं या पानी का रास्ता रोके हुए हैं। चौक या हुसेनगंज
जैसे पुराने संकरे क्षेत्रों में जलभराव नहीं होता। होता भी है तो निकल जाता है। वे
रिहायशी क्षेत्र सोच-समझकर बसाए गए थे।
इसके विपरीत नव-विकसित गोमती नगर का विशेषकर विभूति खण्ड क्षेत्र
तालाबों को पाटकर विकसित किया गया है। ऐसे और भी कई इलाके हैं। पहले बारिश को यहां
ठांव मिलता था, पानी तालाबों और निचले क्षेत्रों में रुकता था। इससे नदियां उफनाती
नहीं थीं और जमीन के भीतर पानी का स्तर बढ़ता था। आज हम चिल्ला रहे हैं कि कई बहुमंजिला
इमारतों के बेसमेंट में पानी भर गया है। पानी का क्या दोष! तालाब में इमारतें बनेंगी
तो वह कहां जाएगा?
हैदर कैनाल और कुकरैल के आस-पास देख लीजिए। बेशुमार झुग्गी-झोपड़ियों
से लेकर बहुमंजिला अपार्टमेण्ट तक वहां खड़े हो गए। वैध-अवैध निर्माणों की बात करना
अब निरर्थक लगता है। नदी-नालों के छोर तक इमारतें बना देंगे तो क्या हमारी सुविधा के
लिए पानी रास्ता बदल देगा? तालाबों में इमारतें बनाना हमने सीख लिया लेकिन
यह हमारे बूते की बात नहीं कि वर्षा-जल को बहने का मार्ग बदल देना सिखा सकें। भारी
बारिश का पानी रोकने और समाने की जगह कहीं छोड़ी भी है हमने? सो,
हलकी वर्षा में भी ये इलाके डूबते हैं और हम शोर मचाते हैं। मचाइए, क्योंकि यही नियति बन गई है। मूल कारणों को जान-बूझकर देखेंगे नहीं (क्योंकि
उनका समाधान इस विकास-तंत्र को मुफीद नहीं) और जलभराव पर शोर मचाएंगे। शहरों का विकास
इसी प्रकृति-विरुद्ध तरीके से हुआ है।
विकास की जो यह सोच सदियों से चल रही है, वह पूरी
ही प्रकृति के विरुद्ध है। पहाड़ों में ‘बादल फटने’ से होने वाली तबाही आए दिन खबरों में होती है। बादल तो पहले भी टूटकर बरसते
थे और पहाड़ भी दरकते ही थे। आज हमने पहाड़ों का ‘विकास’
कर दिया है। विस्फोटक दाग-दागकर बड़े बांध और बिजली घर बना लिए हैं। नदियों
के तट पर ‘रिवर व्यू होटल’ बना दिए हैं।
जब बादल टूटते है तो अब तबाही का शोर मचना लाजिमी है। गोया कि सारा दोष बादलों और नदियों
का हो!
(सिटी तमाशा, नभाटा, 18 सितम्बर, 2021)
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