हाल के वर्षों में मेवाड़ी जी अपना पिट्ठू लगाकर देश के
सुदूर ओनों-कोनों के बच्चों को विज्ञान सुनाने निकलने लगे हैं। वे उन्हें अपने
कल्पना-यान में बैठाकर अंतरिक्ष की सैर कराते हैं, विभिन्न ग्रहों और
आकाशगंगाओं से उनकी भेंट कराते हैं, उन्हें अपने आस-पास की
प्रकृति से मिलवाते हैं, पेड़ों, पक्षियों
और फसलों से अंतरंग परिचय कराने के साथ ही उनसे संवाद स्थापित करना सिखाते हैं।
उनकी इस नई भूमिका ने जहां स्कूली बच्चों को अपने आस-पास के
वातावरण को जिज्ञासु दृष्टि से देखना, सवाल करना एवं उत्तर तलाशना (मेवाड़ी जी कहते
हैं कि यही तो विज्ञान है) सिखाया है, वहीं उनके शिक्षकों
तथा वैज्ञानिक दृष्टि विकसित करने के काम में लगे स्वयंसेवी संगठनों को भी नई दृष्टि
दी है। स्वयं मेवाड़ी जी का अनुभव संसार विस्तृत हुआ है जिसने उन्हें 75-पार वय में
लिखने, कथाएं सुनाने और यात्राएं करने की नव-ऊर्जा से भर
दिया है।
सम्भावना प्रकाशन से हाल ही में प्रकाशित पुस्तक ‘कथा
कहो यायावर’ में मेवाड़ी जी की इन्हीं यात्राओं में बच्चों के
साथ-साथ नदियों, पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों
और ग्रह-नक्षत्रों से होती मुहब्बतें हैं। इन यात्रा-कथाओं को पढ़ने में मेवाड़ी जी
की ‘कक्षाओं’ में बैठकर सुनने जैसा सुख
मिलता है। उन्हें पाठक को बांधकर अपने साथ बहा ले जाने में महारत हासिल है। वे
लिखते हैं कि सामने बोलते हैं! उनका बोलना मंत्र मुग्ध करता है। औपचारिक रूप से विज्ञान
सुनाने में ही नहीं, टेलीफोन वार्ता में भी वे मोह लेते हैं।
उनकी बातों से जैसे कथा-रस टपकता है।
जिन्होंने मेवाड़ी जी की सर्वाधिक लोकप्रिय पुस्तक ‘मेरी
यादों का पहाड़’ पढ़ी है, वे जानते हैं
कि जिस दुर्गम लेकिन प्रकृति-सम्पन्न पहाड़ी गांव में वे जन्मे, उसी ने उन्हें विविध जिज्ञासाओं से भरा और उसकी परतें खोलना सिखाया। इस
पुस्तक की भूमिका में वे लिखते हैं-
“मैं तो देख-देख कर हैरान होता था हमारी किताबों के अलावा
कितना कुछ है हमारे चारों ओर और प्रकृति की किताब में! उसे तो बस पढ़ो और पढ़ते रहो।
जीवन भर भी पढ़ते रहें तो विराट प्रकृति के कुछ ही अध्याय पढ़े जा सकेंगे। लेकिन, जितना
भी पढ़ा जा सके, वह बताता है कि हम एक अटूट रिश्ते की डोर से
जुड़े हुए हैं, फिर चाहे वह हवा में झूमती घास की कोई छोटी सी
पत्ती हो, पंख तौलती तितली, वन में
कुलांचें भरता हिरन का शावक, नदियों के नीले जल में उछलकर
डुबकियां लगाने वाली मछलियां या फिर हवा में पत्तियों की हथेलियों से तालियां बजाता हरा-भरा पीपल।”
प्रकृति की हर चीज कुछ कहती है। बस, उसे
सुनना आना चाहिए। मेवाड़ी जी को यह कला खूब आती है। वे जहां भी जाते हैं, उत्तराखण्ड के नगर हों या दूर-दराज इलाकों के विद्यालय, शिवना के तट पर हों या भीमबेटका या भोजपुर या अलीगढ़ या राजस्थान के व्यावर,
मसूदा, अजमेर, आदि क्षेत्रों
में या हिमाचल अथवा दिल्ली-मुम्बई जैसे महानगरों में, हर जगह
कभी बहुत पहचाना और कभी अनचीन्हा कोई पेड़ उन्हें बुलाता है।
अपने आतिथेयों से मिलने से पहले वे उस पेड़ से गले लग आते
हैं जो कह रहा होता है- “दिल्ली से आए हो, आओ मिल तो लो” और वे उससे मिलने चल पड़ते
हैं, उसकी सुन और अपनी कह आते हैं। फिर बच्चों को बताते हैं
कि पेड़ ने उनसे क्या कहा। यह भी कि तुम सब भी मिलना पेड़ से और बतियाना। बच्चे
अचम्भित होते हैं कि भला पेड़ से कैसे बात की जा सकती है। फिर यह सम्वाद देखिए-
“दोस्तो, क्या तुमने कभी सेम या मटर के बीजों को
उगते हुए देखा है? नहीं, तो अब देखना।
धरती में नमी पाकर उनमें कैसे अंकुर फूटते हैं। फिर दो पत्तों की हथिलियां हवा में
निकल आती हैं। उनमें लम्बी-पतली उंगलियां निकल आती हैं, जो
हवा में हिलकर यहां-वहां डोलते हुए किसी टहनी या लकड़ी का सहारा ढूंढती हैं। सहारा
छूने पर उससे लिपटना शुरू कर देती हैं। उनके सहारे पौधा ऊपर उठता जाता है। तुम इस
तरह पेड़-पौधों को देखोगे तो तुम्हें उनसे प्यार हो जाएगा। वे भी तुमसे प्यार करने
लेगेंगे। तब तुम उनकी बातें समझने लगोगे।”
यह सिर्फ भावुक बातें नहीं हैं। इसका विज्ञान समझना हो तो
पीतमपुरा दिल्ली में ‘कल्पतरु’ के परिसर घूम
लीजिए, जहां लेखक को भी हैरानी में डाल देने वाले देश-विदेश
के पेड़-पौधों का संग्रह है और “स्कूल का हर पेड़-पौधा माली लछमन को पहचानता है।
उसके पास आते ही वे जैसे खुश हो जाते हैं।”
पशु-पक्षियों से मेवाड़ी जी की पुरानी दोस्ती है। उनकी
प्यारी दुनिया के बारे में वे किताबें लिख चुके हैं। इन यात्राओं में जगह-जगह उनकी
चिड़ियों से भेंट होती रहती है। वे उनके सुर पकड़ते हैं और किताब पढ़ते हुए हमारे
मस्तिष्क में उनकी चहचहाट गूंजती है।
‘स्वी ई ई ई..’ यह काली पूंछ वाला धैयाल
(ओरियंटल मैगपाई रोबिन) बोल रहा है अपनी प्रेमिका को रिझाने के लिए। दूसरा नर आ
गया है तो ‘चुर्र र्र र्र’ बोलकर उसे
भगा देता है। ‘की-कुकि-कीईक’- यह कौन
बोला? और किसने की- ‘स्वीट-स्वीट!’
यह तो फाख्ता है- ‘कूरूरू-रूरू-कूरूरू-कू।
‘न्याहो-न्याहो-न्याहो’, ‘चीं-चुर-चुर-च र्र
र्र र्र’, ‘टी-टिटिट्ट’, ‘कुक्कू-कुक्कू’…
कितनी चहचहाटें हमें सुनाई देती हैं। उन पक्षियों के बारे में भी हम
जानने लगते हैं।
“कहीं से एक काली-सफेद बुशचैट आकर घास में तेजी से इधर-उधर
चारा-दाना ढूढने लगी। सोच ही रहा था कि वह अकेली क्यों है कि तभी भूरे-मटमैले रंग
की उसकी पत्नी भी आ गई। थोड़ी देर में सतभैया वैबलरों की जोड़ी चली आई। टोली में वे
पांच थीं। उनमें से एक चारों ओर नज़र रख रही थी कि कहीं कोई खतरा तो नहीं। मुझसे
उन्हें भी कोई खतरा नहीं लगा। दो-एक वेबलर मेरी बेंच के पास तक चली आईं। दो-चार
मैनाएं भी वहां आकर चहकीं। एक टेलरबर्ड यानी दर्जिन, एक
किंगफिशर और एक ट्री-पाई भी आई। हवा में से एक वागटेल नीचे उतरी और तेजी से चहलकदमी
करने लगी। ... लाल पगड़ी पहने एक कठफोड़वा भी आकर सामने के पेड़ के तने को चोंच से
ठकठकाता ऊपर चढ़ा और वहां कुछ न पाकर फुर्ती से उड़ गया।”
चिड़ियों, जानवरों, हवा और बादलों
की ध्वनियों से सभागार में जंगल रचकर वे बच्चों को जैसे सम्मोहन में बांध लेते
हैं-
“पहले हमारे देश में चारों ओर घनघोर जंगल थे। उनमें लाखों
जीव रहते थे। जंगल कटे, शहर बने और आज हम चिड़ियाघरों में उन चंद
बचे जीवों को देख रहे हैं। दोस्तो, जरा सोचो, कल क्या होगा? ..वे सोचते रहे और मैं अपनी कल्पना
में वे उन्हें पचास साल बाद के चिड़ियाघर में ले गया, जहां आज
के तमाम पशु-पक्षी थे, लेकिन सभी मशीनी पशु-पक्षी थे। उदास
बच्चे वर्तमान में वापस लौटे तो भविष्य की कल्पना कर सिहर उठे। उन्होंने संकल्प
लिया कि वे जंगलों को बचाएंगे, जीव-जंतुओं को बचाएंगे।”
ये यात्राएं देश के विभिन्न भागों में बच्चों से
विज्ञान-सम्वाद के वास्ते की गई हैं लेकिन पुस्तक में हम उन विस्तृत चर्चाओं का
संकेत भर या कहीं-कहीं थोड़ा-सा जिक्र पाते हैं। बाकी जो है वह लेखक का बाल-सुलभ
कौतुक, प्रश्न एवं जिज्ञासा-समाधान और अपने आस-पास को ‘देखना’ है। यह ‘देखना’ अत्यंत
संवेदनशील दृष्टि से है और रोचक भी। इनमें वैज्ञानिक दृष्टि तो है ही, साहित्य भी बहुत खूबसूरती से चला आता है।
“आंखों के सामने से हालांकि तमाम दृश्य गुजर रहे थे लेकिन
मन के आकाश में प्रसिद्ध चित्रकार जे स्वामीनाथन की चिड़िया उड़ती रही। लम्बी, सीधी,
काली पूंछ वाली वह चिड़िया स्वामीनाथन की पेंटिंग के तीन पहाड़ों के
ऊपर सूरज से, कभी जल में अपना अक्श देखते पहाड़ों के पैताने
और कभी पेड़ के छत्र से आकर मेरे मन के आकाश में उड़ने लगती।”
कभी उन्हें आलू की कहानी सुनाते हुए वॉन गॉग की ‘आलू
खाते हुए लोग’ वाली पेंटिंग याद आ जाती। कभी सौरमण्डल की
सैर पर कुमार अम्बुज की कविता स्मरण हो आती- “सोचते हुए खरामा-खरामा पहुंचा
मंगल ग्रह/ जहां मिले दो चंद्रमा जिन्होंने किया स्वागत” या युवा कवि राकेश
रोहित की कविता पंक्ति- “मुझे लगता है मंगल ग्रह पर एक कविता धरती के बारे में
है।”
सुमित्रा नंदन पंत तो कई जगह बोलते हैं- ‘न
जाने नक्षत्रों में कौन/संदेशा भेजता मुझको मौन।”
अगस्त्यमुनि (उत्तराखण्ड) में मंदाकिनी देखकर चंद्र कुंवर बर्त्वाल गाने लगते हैं-
“हे तट मृदंगोत्तालध्वनिते/ लहर वीणा वादिनी/ मुझको डुबा निज काव्य में/ हे
स्वर्ग सरि मंदाकिनी।” इसी तरह कभी दुष्यंत कुमार याद आते हैं, कभी नागार्जुन, कभी भवानी प्रसाद मिश्र और कभी
हरिशंकर परसाई। लोक कथाएं एवं लोकगीत तो यहां-वहां गूंजते ही रहते हैं।
हरिद्वार में चम्पा के पेड़ के नीचे छिड़ा यह प्रसंग, साहित्य
का सुंदर पाठ है और विज्ञान का भी- “मिराण्डा कॉलज, नई दिल्ली में हिंदी साहित्य की शिक्षिका डा संज्ञा उपाध्याय ने पूछा था
कि महाकवि बिहारी ने नायिका की नाक की लौंग को लक्ष्य कर दोहा लिखा है कि जैसे
चाम्पा की कली पर भौंरा आ बैठा हो। लेकिन, बाद में जगन्नाथ
दास रत्नाकर ने व्याख्या करते हुए लिखा है कि चम्पा के फूल पर तो भौंरे बैठते ही
नहीं। सच क्या है? मैंने उन्हें बताया कि चम्पा के फूलों में
मकरंद नहीं बनता। इसलिए भौंरे या अन्य कीट उन पर नहीं मंडराते। तो देखिए, इस तरह विज्ञान साहित्य से भी जुड़ गया। असल में प्रकृति से जुड़ा हर ज्ञान
अंतर्सम्बंधित है।”
इन यात्राओं में लेखक की भेंट ऐसे लोगों/संस्थाओं से भी
होती है जो चुपचाप अत्यंत निर्धन और बेसहारा बच्चों का भविष्य संवारने में लगे
हैं। उत्तराखण्ड में गुप्तकाशी के निकट कालीमठ के ‘जैक्स वीन नेशनल स्कूल’ की कहानी ही नहीं, उद्देश्य भी प्रेरक है। कभी
अध्यात्म की खोज में आए फ्रांसीसी मनोचिकित्सक डॉ जैक्स वीन ने यहां एक मजदूर को
अपने बच्चे को पढ़ाने के लिए प्रेरित किया था। वही बालक उच्च शिक्षा प्राप्त करने
के बाद आज लखपत सिंह राणा के रूप में डॉ जैक्स वीन (जो अब ब्र्ह्मचारी विज्ञानानंद
हैं) के नाम से ही एक स्कूल, छात्रावास और मेस चला रहा है
जिसमें मुख्य रूप से अत्यंत गरीब परिवारों के बच्चे और 2013 की केदारनाथ त्रासदी
में अनाथ हुए बच्चे रहते-पढ़ते हैं। ऐसे ही देहरादून के एक जीर्ण-शीर्ण सरकारी
विद्यालय भवन को जनता से सहायता मांग-मांग कर, उसे ठीक करके
हुकुम सिंह उनियाल आवासीय विद्यालय चला रहे हैं जिसमें करीब ढाई सौ बेसहारा बच्चे
पढ़ रहे हैं।
“इनमें से कई भीख मांगते थे, कई
बच्चे कूड़ा बीनते थे, जिनके माता-पिता नहीं रहे और ऐसे भी
बच्चे हैं जिनके माता-पिता अलग हो गए या उन्होंने दूसरी शादी करके बच्चे बेसहारा
छोड़ दिए।” नाम को वह आज भी सरकारी विद्यालय है लेकिन यह सब काम
उनियाल जी ने अखबारों में विज्ञापन छपवाकर दान प्राप्त करके किया है। उनकी पूरी
कहानी ‘तबीयत से एक पत्थर उछलकर आकाश में सूराख करने’ करने
की सत्य कथा है। इस धरती पर ऐसी कथाएं फैली हुई हैं। बस, देखने-सुनने
वाली आंख चाहिए।
मेवाड़ी जी की यात्रा-कथाओं में नदियां हैं, घने
जंगल हैं, हिमालय की पर्वत श्रंखलाएं हैं, दूर-दूर तक फैले मैदान हैं और सब इस ‘तन से बुजुर्ग
और मन से बालक’ यात्री में सौंदर्य बोध से अधिक उत्सुकता
जगाते हैं। उनकी जिज्ञासा यहां तक जाती है कि शहर का नाम ‘इटारसी’
कैसे पड़ा होगा और ब्यावर? अपने मेजबानों और
स्थानीय लोगों से पूछ-पूछ कर वे उत्तर तलाश लाते हैं कि जहां ‘ईटों’ और ‘रस्सी’ का व्यापार होता था, वह ‘इटारसी’
बन गया और ‘बी अवेयर’ से
‘ब्यावर’ नाम पड़ गया। ‘बी अवेयर’ क्यों? क्योंकि
छापामार युद्ध में माहिर चौहान राजपूतों से अंग्रेज खौफ खाते थे, इसलिए अपने बसाए इस शहर में हरेक को सावधान करते रहते थे- ‘बी अवेयर!’
पूरी किताब एक जिज्ञासु यात्री और प्रेक्षक की दृष्टि का
कमाल है। इसमें विज्ञान है, साहित्य है, रोचक एवं
प्रेरक कहानियां हैं, आविष्कारों का इतिहास है और हमारे
आस-पास के प्रकृति-संसार से लेकर आसमान में चमकते तारों (शहरों में तो अब वे दिखते
ही नहीं) से अद्भुत मिलन है। अगर आपके पास जिज्ञासु मन है और भीतर सवाल कुलबुला
रहे हैं, तो यायावर देवेंद्र मेवाड़ी से कथाएं सुनने को तैयार
हो जाइए।
(किताब- कथा कहो यायावर।
प्रकाशक- सम्भावना प्रकाशन, हापुड़ (7017437410) पृष्ठ-206, मूल्य- 250 रु)
www.https://samalochan.com
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