“एक मिनट फुर्सत नहीं होती जी। इनको दिन भर में तीन-चार बार चाय चाहिए, बेटी और बेटे को कॉफी। बिना आवाज किए उनके कमरे में पहुंचाना होता है। टीवी तक तो चला नहीं सकती। फोन बजे या गेट की घण्टी, दौड़कर जाना पड़ता है। जरा भी हल्ला नहीं होना चाहिए। सुबह का नाश्ता, फिर लंच, शाम का नाश्ता और फिर डिनर। कहते हैं, जितने दिन यहां हैं, घर का खाना खिला दो। बाहर का खाते-खाते जी ऊब गया है। कमर सीधी करने को नहीं मिलता।”
‘बिल्कुल यही हाल यहां है। इस कोरोना ने तो हमारी अलग मुसीबत कर
दी है।”
दो पड़ोसिनों का यह संवाद आजकल घर-घर की कहानी है। याद तब आई
जब इसी सप्ताह ‘डिजिटल क्रांति’ पर हुए एक वेबिनार की खबर
पढ़ी। बड़ी-छोटी सभी कम्पनियों के अधिकारी इस तथ्य से गदगद हैं कि कोविड महामारी के दौरान
डिजिटल कारोबार ने ऐसी छलांग लगाई है कि जिसे ‘डिजिटल रिवॉल्यूशन’
कहा जा सकता है और यह ‘क्रांति’ अब कायम रहनी है। दूसरे कई व्यवसाय इस दौरान पिटे हैं। कुछ कम्पनियां बंद हो
गई हैं। पहले से जारी बेरोजगारी भीषण रूप ले चुकी है। दूसरी तरफ डिजिटल कारोबार से
जुड़ी कम्पनियां और व्यवसाय खूब फले-फूले हैं।
‘वर्क फ्रॉम होम’ नई कार्य संस्कृति है। बहुत
सारी कम्पनियों ने महामारी के चरम दौर में अपने कर्मचारियों को घर से ऑनलाइन काम करने
की अनुमति दी थी। पहले यह सुरक्षा की दृष्टि से हुआ लेकिन अब इसने बहुत कम खर्चीली
व्यवस्था का रूप ले लिया है। इसलिए स्थाई चलन हो गया है। उन्होंने न केवल अपने कर्मचारियों
की संख्या घटा दी, बल्कि बड़े-बड़े दफ्तर बंद कर दिए। छोटे दफ्तरों
से किराए की बचत हुई, कम स्टाफ से वेतन-बजट छोटा हुआ और दूसरे
खर्चे भी कम हो गए। कर्मचारी अब दफ्तर की बजाय अपने घर का एसी, इण्टरनेट, आदि इस्तेमाल करते हैं और हर समय उपलब्ध भी
रहते हैं।
दूर-दूर शहरों में काम करने वाले बच्चे अपने घर यानी माता-पिता
के पास लौट आए हैं। ऑनलाइन ही काम करना है तो क्या दिल्ली-बंगलूर-हैदराबाद
और क्या लखनऊ-सीतापुर-हल्द्वानी। लगभग सबके घर सुबह से शाम देर तक के दफ्तर बन गए हैं।
माता-पिता के लिए यह परदेसी बच्चों के साथ रहने का मुश्किल से मिलने वाला सुख था तो
बच्चों को मां के हाथ का खाना मिलना शुरू हुआ। शुरू-शुरू में यह सभी को अच्छा लगा लेकिन
अब जबकि यह स्थाई रूप ले चुका है, मां के लिए लगभग चौबीस घण्टे
की बेगारी बन गया है। उनके लिए न केवल घर का काम चौगुना हो गया है, बल्कि फुर्सत के क्षण दुर्लभ हो गए हैं। ‘वर्क फ्रोम
होम’ वाले बेटे-बेटियों की सेवा तो करनी ही पड़ती है, जोर से न बोलने, बर्तन न बजाने, टीवी न चलाने, फोन साइलेंट रखने, आदि की हिदायतें ऊपर से।
कुछ बच्चे घर से काम करते-करते बोर भी हो जाते हैं। उन्होंने
‘डेस्टीनेशन ऑफिस’ का रास्ता निकाल लिया है। कभी गोवा
तो कभी किसी पहाड़ में ‘होम स्टे’ लेकर वहां
से काम करने लगे हैं। काम का काम और घूमना ऊपर से। यह कुछ दिन का ही आनंद होता है।
‘मां के हाथ का खाना’ उन्हें फिर वापस घर
खींच लाता है। डिजिटल कारोबारियों के लिए यह ‘आपदा में अवसर’
बना। वेबिनार में उन्होंने इसके लाभ गिनाए और उम्मीद जताई कि यह भविष्य
में भी जारी रहेगा।
‘आपदा में भी आपदा’ जैसी गृहिणियों की नई स्थिति का कोई अनुमान डिजिटल कारोबारियों को नहीं होगा। कुछ बच्चे अमेरिका-यूरोप के कार्यालयों से मिलकर काम करते हैं। उनके लिए आधी रात और सुबह तड़के चाय-कॉफी की व्यवस्था भी मां के जिम्मे है। ऑनलाइन काम में डूबे बच्चों को ही इसका कितना भान है?
(सिटी तमाशा, नभाटा, 25 सितम्बर, 2021)
No comments:
Post a Comment