Tuesday, October 19, 2021

नौटंकी का नागर रूप विकसित किया उर्मिल थपलियाल ने

 नटअरी मेरी नटखटी चटपटी नटी। क्या बात है। आज बहुत खुश हो।

नटीक्यूं, तो क्या केजरीवाल की तरह मुंह लटकाये रहूं।

नटनहीं..नहीं खुश रहो, आबाद रहो, चाहे यहां रहो या पुराने फैजाबाद रहो।
नटीपुराना फैजाबाद यानि आज की अयोध्या।
नटअरी अयोध्या तो राम की है री।
नटीराम भी तो हमारे हैं।
नटकभी लोहियावादियों के थे। रामायण मेलों की शुरुआत भी उन्होंने ही की थी।
नटीऔर क्या। जय भीम का नारा भी तो महाभारत से तिड़ी किया गया है।
नटमगर हुआ क्या। रामराज तो आया नहीं।
नटीअरे जो गन्ने का बकाया न दे, चीनी मिल उसी को तो कहते हैं।
नटबिल्कुल यही। चुनाव के दौरान जो मूर्ख नहीं बनते वो समय और अवसर दोनों गवां देते हैं।
नटीहां, शुभ मुहूरत निकल जाने के बाद पंडित क्यूं नहीं बदला जा सकता।
नटवाकई सही है। जिनके घर भगवान की मूर्ति नहीं मिलती वो सिलबट्टे से काम चला लेते हैं।
नटीदारू अगर चरणामृत की तरह पियो तो सुना पुण्य मिटता है।
नटमैं तो पूरी बोतल ही मुंह से लगा लेता हूं। सीधे गोमुख गंगोत्री जाओ। हरिद्वार में वो क्या धरा है।
नटीअरे अब तो त्योहारों के दिन आ रहे हैं।
नटमगर त्योहार तो अब सिर्फ कलेन्डर पर भले लगते हैं।
नटीहां भई, दशहरे के दिन भी राम को कई गज की दूरी से रावण को मारना पड़ेगा।
नटत्योहारों के बाजार तो अभी से लगने लगे हैं।
नटीदीन ईमान की ढेरियां बिकाऊ हैं
नटबिग बाजारों का हाल ये है कि कही महंगाई मुंह नहीं दिखा पा रही है।
नटीमस्ती बड़ी सस्ती हो गयी है।
नटमंत्री पद देखकर जिस नेता की लार न टपके।
नटीसमझो लाइलाज है।
नटऔर इच्छा मृत्यु चाहने लगा है।
नटीवाह, वाह से तो वही बात हुई कि बहू की गोद भराई तो हो गयी।
नटपर प्रेगनेन्सी टेस्ट अभी बाकी है।
नटीहे नट, मैं तेरे मुंह में रखा बताशा हूं तो
नटमैं खट्टा मीठा जलजीरा हूं यार।
(नक्कारा फटे हुए दूध की तरह बजाता है।)


यह उर्मिल कुमार थपलियाल की सप्ताह की नौटंकीका एक नमूना है। जुलाई 2021 में उनके निधन के साथ ही नागर नौटंकी के इस संस्करण पर पर्दा गिर गया लेकिन वे नौटंकी में आधुनिक प्रयोगों के लिए सदा याद किए जाएंगे। हिंदी साहित्य, विशेषकर व्यंग्य लेखन और रंगमंच में अपने योगदान के लिए भी उन्हें भूला नहीं जा सकेगा लेकिन नौटंकी की जब-जब चर्चा होगी, उर्मिल थपलियाल का नाम अनिवार्य रूप से लिया जाता रहेगा।

1978 के आस-पास उन्होंने लखनऊ के स्वतंत्र भारतअखबार में सप्ताह की नौटंकीनाम से सप्ताहिक  स्तम्भ लिखना शुरू किया था जो बीस साल से अधिक समय तक प्रकाशित होता रहा। बीच में कुछ समय यह स्तम्भ आज की नौटंकीनाम से दैनिक भी प्रकाशित हुआ। बाद में उनका यह कॉलम कई नामों से कई रूपों में विभिन्न समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं में छपता रहा, कहीं साप्ताहिक, कहीं पाक्षिक और कहीं मासिक। अपने अंतिम दिनों तक वे इसे लिखते रहे थे।

नौटंकी उत्तर भारत की एक प्राचीन लोक नाट्य-नृत्य-गायन शैली है जिसमें अपने समय की कथाएं कभी गम्भीरता से तो कभी हास्य-व्यंग्य रूप में नक्कारे (नगाड़े) की धुन में गाई जाती रही हैं। इसे एक तरह का स्वांग भी कह सकते हैं या स्वांग से विकसित एक लोक विधा। उत्तर प्रदेश के ग्रामीण समाजों में यह खूब लोकप्रिय थी। अन्य लोक विधाओं की तरह धीरे-धीरे इसका भी लोप होने लगा है। इसके निपुण कलाकार अब दुर्लभ हैं। 1974-75 में उर्मिल कुमार थपलियाल ने देहरादून से लखनऊ आकर गढ़वाल के लोक नृत्य-गीतों की प्रस्तुतियां दीं। फिर वे दर्पण संस्था से जुड़े और अभिनय एवं निर्देशन में नए प्रयोग करने लगे। तभी उनका परिचय नौटंकी से हुआ। उर्मिल मूलत:  कलाकार थे, लोक संगीत में उनकी गहरी रुचि थी और व्यंग्य उनका प्रिय माध्यम था। सो, नौटंकी शैली ने उन्हें बहुत आकर्षित किया। उन्होंने अपने निर्देशित नाटकों में नौटंकी का प्रयोग करना शुरू किया। फिर नौटंकी शैली को अपना कर सामयिक राजनैतिक-सामाजिक स्थितियों पर कटाक्ष लिखने लगे। सप्ताह की नौटंकीइसी प्रयोग का परिणाम थी, जो बहुत लोकप्रिय हुई।

नौटंकी उर्मिल थपलियाल को इतनी भाई कि उन्होंने इसके शास्त्रीय पक्ष का विधिवत अध्ययन भी किया। कहा जा सकता है कि उन्होंने लुप्तप्राय नौटंकी विधा को पुनर्जीवित करने का महत्त्वपूर्ण काम किया। उनका लिखा-निर्देशित किया बहुप्रशंसित नाटक हरिश्चन्नर की लड़ाईपूरी तरह नौटंकी पर आधारित है, जो अपनी हर प्रस्तुति में नया होता रहता। तात्कालिक घटनाओं को नाटक में पिरो देने में वे उस्ताद थे। सुबह के अखबारों की सुर्खियां शाम की नाट्य प्रस्तुति में बुन लेते थे। नौटंकी की जानी-मानी अभिनेत्री एवं गायिका गुलाब बाई के जीवन पर एक नाटक भी उन्होंने लिखा और मंचित किया। अपने लोक-नाट्य-प्रयोगों के बारे में एक बार उन्होंने मुझसे कहा था कि गांव का आदमी अगर मुर्गे की बांग पर जागता है तो शहर के आदमी को अलार्मचाहिए। मैंने अपनी नौटंकी में अलार्म घड़ी में मुर्गे की बांग फिट करने की कोशिश की है। यही उनका नौटंकी को  नागर रूप देने का प्रयोग था।

अपने नौटंकी स्तम्भ में वे समसामयिक राजनैतिक विषयों पर खूब चुटकी लिया करते थे। एक बार उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव पर कोई तीखी चुटकी ले ली। मुलायम नाराज हुए या उनका कोई चमचा अफसर, पता नहीं लेकिन स्वतंत्र भारतके तत्कालीन प्रधान सम्पादक घनश्याम पंकज ने नौटंकीकॉलम बंद करवा दिया। बाद में  हमने उसे फिर शुरू कराया। हिंदुस्तानमें भी हमने उनसे नश्तरकॉलम लिखवाना शुरू किया था। नट-नटी संवाद और सामयिक घटनाओं की तर्ज़ पर बजता उनका नक्कारा (नगाड़ा) अखबारों-पत्रिकाओं में सबसे पहले पढ़ा जाता था।

राजेश्वर से सोहन लाल और उर्मिल थपलियाल तक

ग्राम ढौंड, मासों (गढ़वाल) निवासी गुणानंद थपलियाल पहली पत्नी सत्येश्वरी एक बेटे को जन्म देकर परलोक सिधार गई थीं। माता की स्मृति में उस बेटे का नाम रखा गया सत्येश्वर। दूसरी पत्नी सर्वेश्वरी भी एक बेटा जनने के बाद काल-कवलित हो गईं। उस बेटे का नाम रखा गया सर्वेश्वर। गुणानंद जी ने तीसरा ब्याह किया राजेश्वरी से। राजेश्वरी भी पहले प्रसव के कुछ दिन बाद जाती रहीं। जो अबोध बालक वे छोड़ गईं थीं उसका नाम तय हुआ- राजेश्वर। वह पांच या छह वर्ष का था तो पिता गुणानंद जी भी चल बसे। अनाथ हो गए बालक राजेश्वर को उसकी विधवा बुआ ने पाला। बुआ को ही वह मां कहता था।

देहरादून में स्कूल जाने पर राजेश्वर ने स्वयं अपना नाम लिखवाया- सोहनलाल। इस नाम का आकर्षण यह था कि उसने सोहनलाल नाम के एक व्यक्ति को जयकारा लगाते जुलूस के बीच फूलमालाओं से लदे हुए शान से जाते देखा था। बाद में पता चला कि वह आर्य समाज के नेता थे। तो, सोहनलाल ही उसका आधिकारिक नाम बना- सोहनलाल थपलियाल। थोड़ा बड़ा होने पर किशोर सोहनलाल ने गांव के घर में पड़े एक पुराने बक्से को उलटा-पुलटा तो उसमें एक पोस्टकार्ड मिला जिसमें दामोदर चंदोला (जो उसके मामा लगते थे) ने पिता गुणानंद को श्रावण संक्रांति के दिन पुत्र-जन्म की बधाई लिखी थी। पोस्ट कार्ड सन्‍ 1941 का था। सोहनलाल ने इसे ही अपना जन्म दिन और वर्ष मान लिया।  

सोहनलाल की स्कूली शिक्षा देहरादून में हुई- लक्ष्मण विद्यालय, लक्खीबाग और इस्लामिया स्कूल (आज का गांधी विद्यालय) में। 1957 में हाईस्कूल पास किया। देहरादून में ही सोहन लाल में भविष्य के उर्मिल कुमार थपलियाल बनने के बीज पड़े और अंकुर फूटे, जिसे कहानी और कविताओं से शुरू करके नाटककार, रंग अभिनेता-निर्देशक, लोक संगीत मर्मज्ञ और नागर नौटंकी को पुनर्स्थापित करने एवं नया रूप देने वाला चर्चित नाम बनना था। लेकिन स्कूली दिनों तो सोहनलाल बहुत शर्मीला, संकोची और कुण्ठाग्रस्त था। उस अनाथ बालक पर सब दया दिखाते थे। इससे बालक सोहनलाल में हीन भावना भर गई। वह अपने को अत्यंत दीन-हीन समझने लगा। लोगों के सामने ठीक से बोल नहीं पाता था। नतीज़ा यह हुआ कि वह हकलाने लगा। इससे वह और भी कुण्ठाग्रस्त और अकेला रहने लगा।

कोई भीतरी प्रेरणा ही रही होगी (उर्मिल जी बाद में इसे ईश्वरीय शक्ति कहते थे) कि हकलाना कम करने का उपाय उसने स्वयं ही ढूंढ लिया। जहां वह रहता था, फालतू लाइन के पास एक जंगल था। खाली समय में सब लड़के वहीं जाकर खेलते-पढ़ते थे। सोहनलाल जंगल में अकेले दूर जाकर पेड़ों से खूब बात करता। उसे लगता कि पेड़ भी उससे बात करते हैं। इससे उसका हकलाना कम होने लगा। बाद में उस पर उसने इतना नियंत्रण पा लिया था कि गाना गाने लगा, रामलीला में भाग लेने लगा और कालांतर में रेडियो पर समाचार वाचन भी सहजता से कर सका।    

रामलीला में अभिनय से सीखा कायांतरण

रामलीला में भाग लेने से सोहनलाल का व्यक्तित्व बहुत निखरा और लोगों ने उसकी प्रतिभा पहचानी।  बचपन में बुआ का उसे खिलाते-पिलाते और काम करते-करते गुनगुनाते रहना उसके भीतर किस कदर संगीत भर गया था, यह 1957 में चुक्खू की रामलीला में सीता की भूमिका अदा करते हुए सामने आया। रामलीला की तालीम कराने वाले सुमाड़ी के सदानंद काला ने सोहनलाल की संगीत-प्रतिभा खूब पहचानी। सीता का उसका अदा किया रोल इतना पसंद किया गया कि देहरादून की दूसरी रामलीला में भी, जो सर्वे ऑफ इण्डिया, हाथी बड़कला में होती थी, उसे उसी रात एक दृश्य में सीता बनने जाना पड़ता था। सीता हरण का प्रसंग मंचित करते समय सोहनलाल को चुक्खू से हाथी बड़कला ले जाया जाता था। रामलीला में अभिनय को उर्मिल अपना कायांतरण का प्रशिक्षण मानते थे, जिसने उन्हें भविष्य में नाटकों में अभिनय और निर्देशन में बड़ी मदद की। बुआ के कण्ठ से सुनी लोक धुनें उनके मन-मस्तिष्क में इस कदर बैठी रहीं कि वर्षों बाद जब अपने चचेरे दादा भवानी दत्त थपलियाल का सन 1911 में लिखा गढ़वाली नाटक प्रहलादउन्होंने मंचित किया तो वही धुनें इस्तेमाल कीं। वे बताते थे कि बुआ को पूरा प्रह्लादनाटक कंठस्थ था। भवानी दत्त जी बुआ के चाचा होते थे।

1962 में बीए करने के दौरान और उसके बाद में हिमाचल टाइम्समें काम करते हुए सोहनलाल ने कहानियां लिखीं तथाउर्मिलउपनाम रखकर कविताएं लिखीं। उर्मिलउपनाम रखने की भी एक कहानी है। इण्टर पास किया ही था कि एक लड़की से प्रेम कर बैठे। बड़े घर की लड़की थी। नाम था उमा। एकतरफा ही रहा उनका यह पहला प्रेम। उसी की याद में पहले अपना नाम रखा उर्मिलेशजिसे फिर उर्मिलबना दिया। बाद में उर्मिल ही उनका पहला नाम बन गया। रेडियो पर जब वे कहते- अब आप सोहनलाल थपलियाल से समाचार सुनिएतो शुरू-शुरू में सबको आश्चर्य होता था।

बहरहाल, देहरादून में उर्मिल की मुलाकातें परिपूर्णानंद पैन्यूली, दीवान सिंह कुमैयां’, जीत सिंह नेगी, केशव अनुरागी, अल्मोड़ा से अक्सर आने वाले मोहन उप्रेती और ब्रह्मदेव जी के यहां आने वाले धर्मवीर भारती, मोहन राकेश, शशिप्रभा, आदि से हुईं। गढ़वालीपत्र के सम्पादक विश्वम्भर दत्त चंदोला को दूर से देखते थे लेकिन उनसे मिलने और सीखने की तमीज तब नहीं आई थी। पढ़ने का शौक बढ़ गया था। दर्शन लाल चौराहा पर बहुत पुराना पुस्तकालय था- खुशीराम लाइब्रेरी। वहीं बैठे पढ़ते रहते। धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, नवनीत, आदि देश भर की पत्रिकाएं, किताबें और जासूसी उपन्यास तक। उर्दू की कुछ रचनाएं अर्थ देख-देख कर पढ़ीं लेकिन अंग्रेजी की पुस्तकें नहीं पढ़ पाए। देहरादून में एक कहानीकार हुए होशियार सिंह चौहान। वे एक कहानी प्रतियोगिता कराते थे। उस प्रतियोगिता के लिए कहानी लिखी और धरातल टूट गयानाम से और दूसरा पुरस्कार पाया।

उस दौरान टाउन हाल में खूब सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे। वहीं उर्मिल ने पहली बार पूर्ण कालिक नाटकों के मंचन देखे। पारसी रंगमंच के प्रभाव वाले जागो हुआ सबेरा,’ ‘सिकंदर और पोरसजैसे उन नाट्य प्रदर्शनों का उन पर ऐसा जादू चढ़ा कि उसी तर्ज़ पर अनारकलीनाटक लिख डाला। होली की रात फालतू लाइन के सांस्कृतिक पण्डाल में उसे स्वयं ही मोनो प्ले के रूप में मंचित कर डाला। अकबर, सलीम, अनारकली, सारी भूमिकाएं अकेले निभाईं। उनका सिक्का जमने लगा। रोटरी क्लब, लायंस क्लब, आदि से बुलावे आने लगे। यहां से रंग-अभिनेता, लेखक और निर्देशक उर्मिल थपलियाल की जो यात्रा यात्रा शुरू हुई वह अनेक पड़ाव पार करते हुए जुलाई 2021 में उनके निधन से कुछ मास पहले तक अबाध जारी रही।

उसी बीच देहरादून से प्रकाशित अंग्रेजी पत्र हिमाचल टाइम्सका हिंदी संस्करण निकला तो उन्हें उसमें काम मिल गया। एक सौ रु महीने के वेतन में से अस्सी रु बुआ को देने लगे जो गहने बेचकर कर घर चलाती थी। बीस रु के जेब खर्च से सिगरेट पीते, कवि सम्मेलनों में जाते और अपने को कुछ खाससमझने लगे थे। 1962 में चीनी आक्रमण पर लिखी कविता ने उन्हें मंचीय कवि बना दिया। फिर तो नीरज, शेरजंग गर्ग, देवराज दिनेश, मंगला प्रसाद नौटियाल, आदि कवियों के साथ कवि सम्मेलनों में जाने लगे। बताते थे कि उन दिनों मैं थोड़ा उद्दंड भी हो गया था। एक बार नीरज ने मंच से जो कविता (ज़िंदगी वेद थी ज़िल्द बंधाने में कटी) सुनाई, मैंने वहीं पर उसकी पैरोडी बनाकर मंच से सुना दी थी। उसी दौरान दीवान सिंह कुमैयां (महशूर फोटोग्राफर) जीत सिंह नेगी (गीतकार) केशव अनुरागी (गायक एवं ढोल सागर के अध्येता) के साथ शामों को बैठकी होने लगी। कभी अल्मोड़ा से मोहन उप्रेती आते तो वे भी शामिल होते। यह वह दौर था जब उर्मिल ने हर विधा में हाथ आजमाया। नई कहानी,’ ‘सारिका,’ और 'धर्मयुग' जैसी पत्रिकाओं में कहानियां छपीं। शंकर्स वीकलीमें व्यंग्य प्रकाशित हुए किंतु किसी एक विधा में अधिक समय टिके नहीं, यद्यपि व्यंग्य की धार बराबर साथ बनी रही। 

देहरादून से लखनऊ 

1964 में लखनऊ आने और अगले साल आकाशवाणी में समाचार वाचक बनने के बाद उनकी रुचि रंगमंच की तरफ बढ़ने लगी। उन्होंने हवा महलके लिए नाटक लिखे और निर्देशित भी किए। गढ़वाली लोक संगीत और लोक नृत्य-नाट्य आधारित फ्यूलीं और रामी’, ‘मोती ढांगाऔर संग्राम बुढ्या रमछमजैसी प्रस्तुतियां लखनऊ के दर्शकों के समक्ष दीं। 1972 उनके जीवन का एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव साबित हुआ जब प्रो सत्यमूर्ति, डॉ अनिल रस्तोगी, आदि के साथ लखनऊ में दर्पणनाट्य संस्था की स्थापना की। उसके बाद वे पूरी तरह रंगमंच को समर्पित हो गए। उनके नाटकों की संख्या नब्बे के करीब है।  'हरिश्चन्नर की लड़ाई' के देश भर में सौ से अधिक प्रदर्शन हो चुके हैं।

अपनी किशोरावस्था के दिनों से ही मैं उर्मिल जी को जानता था। उनसे आकाशवाणी में अक्सर भेंट होती। मैं उत्तरायणमें वार्ता पढ़ने जाता तो वे कार्यक्रम के बीच पांच मिनट के लिए समाचार पढ़ने आते थे। उन्हें नाटकों में अभिनय करते देखता और उनके निर्देशित नाटक भी। जब पता चला कि उर्मिल जी एक जमाने में कहानियां लिखते थे तो मैं अपनी कहानियां उन्हें दिखाने और उनसे सीखने उनके घर पहुंच जाता था। वे हमेशा 'ज्वेशि ज्यू' कहकर मुस्कराते हुए स्वागत करते।

रंगमंच के अलावा उनका दूसरा शौक लिखना-पढ़ना था। खूब पढ़ते थे और देश-दुनिया के समाचारों से अद्यतन रहते थे। विभिन्न अखबारों-पत्रिकाओं में उनके व्यंग्य, नौटंकी और कवित्त ताज़ा घटनाओं और शीर्षकों पर ही आधारित होते थे। उनका हास्य-व्यंग्य बोध कई बार चकित करता था। उनकी कोई राजनैतिक या वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं थी। इसलिए वे किसी को भी अपने व्यंग्य-वाणों से बख्शते नहीं थे। उनकी राजनैतिक-सामाजिक चुटकियां अंतिम दिनों तक विभिन्न समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं। किसी भी अखबार और पत्रिका में लिखने का अनुरोध वे टालते नहीं थे और कभी अपना कॉलम लिखने में विलम्ब भी नहीं किया। बाहर जाते तो अग्रिम लिखकर दे जाते। खूब लिखने के बावजूद उनमें दोहराव नहीं होता था। कोरोना काल में उन्होंने फेसबुक को माध्यम बनाकर रंगमंच की बारीकियों पर व्याख्यान भी पेश किए। प्रौढ़ावस्था में उन्होंने गढ़वाल विश्वविद्यालय से लोक रंगमंच में गति व लयविषय पर पीएचडी पूरी की थी। नौटंकी की मूल धुनों एवं उसके वाद्यों की स्वर लिपियां बनाने में भी वे लगे रहते थे। उनकी सक्रियता सुखद और प्रेरणादायक थी।

उत्तर प्रदेश संगीत अकादमी से लेकर केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी, हिंदी संस्थान और देश भर की विभिन्न संस्थाओं ने उन्हें सम्मानित-पुरस्कृत किया। नौटंकी, नाट्य कार्यशालाओं, व्याख्यानों एवं मंचनों के लिए वे हाल-हाल तक देश भर का दौरा करते रहते थे। बड़े सरल, खुशदिल और यारबाश इनसान थे। पहाड़ीपन उनकी बोली-बानी और व्यक्तित्व में छाया रहता था।

मेरी उर्मिल जी से अक्सर बातचीत होती थी। मेरे सम्पादक रहते वे सुबह-सुबह अखबार पढ़कर मजेदार टिप्पणियां करते। कोरोना की आफत शुरू होने से पहले तक उनसे मिलना होता रहता था। कभी मैं ही घर चला जाता। उसी दौरान मेरे बार-बार आग्रह करने पर उनके शुरुआती जीवन की परतें खुलीं। महामारी के चरम दौर में जब उनकी बीमारी की खबर मिली तब मैं स्वयं कोविड के हमले से जूझ रहा था। पता चला कि वे लिवर में कैंसर लिए पहले अस्पताल, फिर घर में पड़े थे। डॉक्टरों के अनुसार रोग असाध्य हो गया था। बड-आ मलाल रहा कि तब फोन पर भी बात नहीं हो पाई थी। 

बीस जुलाई को लखनऊ के भैंसाकुंड श्मशान घाट पर उर्मिल जी को राजकीय सम्मान के साथ विदा किया गया। उन्हें चुपचाप पड़ा देखकर मैं सोच रहा था  कि अभी उठकर हंसते हुए पूछने लगेंगे- ' ज्वेशि ज्यू, ये राजकीय सम्मान में क्या होने वाला ठैरा?' अपना नौटंकीस्तम्भ भी वे इसी पर लिखते जिसमें उनके नट-नटी सिपाहियों की झुकी बंदूकों पर चुटीली नोंक-झोंक करते और नक्कारा श्मशान में बिगुल की तरह बजता। लेकिन वे तो इस जगत की सारी नौटंकी और अपना प्रिय रंगमंच छोड़ कर किसी और ही दुनिया को कूच कर चुके थे।

(उत्तराखंड महापरिषद की स्मारिका-2021 के लिए)


 

 

   

      

 

       

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