Friday, March 11, 2022

सशक्त विपक्ष की आमद भी एक उम्मीद

तो, चुनाव तमाशा पूरा हुआ। यूं, राजनीति आज वहां पहुंच गई है जहां लगता है कि सतत चुनाव हो रहे हैं। यह पांच साला लोकतांत्रिक उत्सव नहीं रह गया। संसद के चुनाव हों, विधानसभाओं के या नगर एवं ग्राम पंचायतों के, पार्टियां हर हमेशा चुनावी मोड में दिखाई देती हैं। सबसे अच्छा उदाहरण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का है। पांच राज्य विधानसभाओं के परिणाम आने के अगले ही दिन वे गुजरात में रैली करने पहुंच गए। वहां जल्दी ही चुनाव होने हैं। मोदी जी चुनाव जिताने वाला सबसे कामयाब चेहरा जो बन गए हैं।

वर्षों, बल्कि दशकों बाद भाजपा की रिकॉर्ड विजय के अलावा उत्तर प्रदेश के चुनाव ने एक और काम किया है। इस राज्य की चौकोणीय चुनावी लड़ाई सीधे-सीधे दो पार्टियों के संग्राम में बदल गई। भाजपा को दो तिहाई बहुमत मिला और समाजवादी पार्टी ताकतवर विपक्ष के रूप में उभरी है। यह दृश्य दशकों बाद दिख रहा है। अब तक यहां चार प्रमुख दल सता के दावेदार होते थे। तीस साल से अधिक समय से सत्ता से बाहर रहने के बावजूद राष्ट्रीय पार्टी होने के कारण कांग्रेस की ठीक-ठाक उपस्थिति रहती थी। सपा, बसपा और भाजपा बाकी तीन मजबूत दावेदार थे। अधिकतर सीटों पर तिकोना संघर्ष तो होता ही था। इस बार भाजपा और सपा की सीधी लड़ाई हुई।

कांग्रेस के हालात पर वर्षों से कहा जा रहा है इसलिए दोहराने की आवश्यकता नहीं। मगर बसपा का सीटों के मामले में कांग्रेस से भी पिछड़ जाना चौंकाता है। वोट प्रतिशत उसका कांग्रेस से बहुत अधिक है लेकिन सीट वह एक ही जीत पाई। चुनाव प्रचार में मायावती के बहुत देर से उतरने पर पहले भी सवाल खड़े किए जा रहे थे लेकिन नतीजे बता रहे हैं कि उनके समर्पित मतदाताओं में भी उनकी अपील बहुत कमजोर हुई है। सभी राजनैतिक विश्लेषक बार-बार यह चेता रहे थे कि मायावती को अनदेखा नहीं किया जा सकता। उनके दलित मतदाता कहीं नहीं गए हैं। उनको मिला वोट प्रतिशत पिछली बार से भी दस प्रतिशत कम हो गया। राजनीति में मायावती और बसपा की भावी जगह पर लम्बे समय तक चर्चा की जाएगी।

एक और बात जो बहुत साफ है और स्वीकार की जानी चाहिए कि हमारा समाज आज बहुत बंटा हुआ है। चुनाव के समय जिस ध्रुवीकरण की कोशिश राजनैतिक दल करते हैं, वह अब स्थाई हो गया है। हिंदुत्व की राजनीति का समर्थन और विरोध जन मानस में घर कर गया है। जो लोग यह कह रहे थे कि इस चुनाव में हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण नहीं हो पाया, वे नतीजों में उसे देख सकते हैं। ध्रुवीकरण अब सिर्फ चुनावी रणनीति का हिस्सा नहीं रह गया। वह घर की बैठकों, दावतों, चाय अड्डों, खेत-खलिहानों और सोशल मीडिया में हर वक्त की बहस और विवादों का मुद्दा है।

और किस तरह व्याख्यायित किया जा सकता है कि जनता के बड़े-बड़े, ज्वलंत मुद्दे मतदाता के मानस को प्रभावित नहीं कर रहे! जीवन की रोजाना की जद्दोजहद पर समाज का यही बंटवारा हावी है। अन्यथा, एक साल से अधिक चला किसानों का आंदोलन, लखीमपुर कांड, कोरोना की दूसरी लहर का हाहाकार, वगैरह को भुला देने वाली आखिर वह कौन सी बात थी? बड़े-बड़े दावों के साथ दलबदल करने वाले क्यों चुनाव हार गए? और क्यों, भाजपा विरोधी वोट लगभग एकमुश्त समाजवादी पार्टी के साथ हो गए? समाज के इस विभाजन को अनदेखा करना हमारे समय की सबसे बड़ी चुनौती की उपेक्षा करना होगा।

फिलहाल, यह देखना सुखद है कि आज जब विपक्ष छीझ रहा है तब दो-तिहाई बहुमत वाली सरकार के सामने विधान सभा में विरोधी दल की सशक्त उपस्थिति होगी। विरोधी दल के नेता के रूप में अखिलेश यादव को अपने पिता की इसी भूमिका का इतिहास याद रखना होगा।

(चुनाव तमाशा, नभाटा, 12 मार्च, 2022)                     

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