उत्तर प्रदेश में समय-समय पर सत्तारूढ़ दलों के विरुद्ध सक्रिय विरोधी दल के नेताओं की प्रभावशाली भूमिका का स्मरण करें तो राजनारायण सिंह, गेंदा सिंह, त्रिलोकी सिंह, चरण सिंह, सत्यप्रकाश मालवीय, गिरधारी लाल, कल्याण सिंह, मुलायम सिंह यादव के नाम विशेष रूप से सामने आते हैं। ये नेता सदन में तो मान्यता प्राप्त विरोधी दल के नेता के रूप में सक्रिय रहते ही थे, जनता के मुद्दों पर सड़क पर भी जूझते रहते थे। वामपंथी नेता कभी यह संवैधानिक दर्ज़ा नहीं पा सके लेकिन जब तक उनकी साख जनता के बीच थी, उन्होंने सरकार की जन विरोधी नीतियों के विरुद्ध खूब आंदोलन किए। हाल के दशकों में मुलायम सिंह यादव के अलावा और कोई सशक्त विपक्षी नेता दिखाई नहीं देता जिसने सदन से लेकर सड़क तक प्रदर्शन किए, धरने दिए, लाठियां खाईं और जेल काटी।
मुख्यमंत्रियों की
सफलता-असफलता की चर्चाएं होती हैं लेकिन विपक्षी नेताओं की भूमिका का उल्लेख अक्सर
नदारद रहता है। क्या अब राजनीति में प्रभावशाली विपक्षी नेता नहीं होते? जो नेता
मुख्यमंत्री के रूप में चर्चित या विवादित होता है, वह चुनाव हार जाने पर
विरोधी दल के नेता के रूप में सक्रिय क्यों नहीं दिखाई देता? क्या सभी पार्टियां सरकार में आने के लिए चुनाव लड़ती हैं और हार जाने पर
अगले चुनाव की प्रतीक्षा करने लगी हैं? मायावती और अखिलेश
यादव के मुख्यमंत्री रूप की प्रशंशा या आलोचना अक्सर होती है लेकिन विपक्षी नेता
के रूप में उनकी भूमिका कैसी रही? या,
क्या वे इस रूप में सक्रिय दिखाई भी दिए?
2022 में यह अच्छा संकेत है
कि समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने लोक सभा की सदस्यता छोड़कर अपने लिए
उत्तर प्रदेश में विरोधी दल के नेता की भूमिका चुनी है। 2017 के विधान सभा चुनाव
में पराजय के बाद, हालांकि तब उन्होंने स्वयं
विधान सभा चुनाव नहीं लड़ा था, वे प्रदेश में
विपक्षी नेता के रूप में सक्रिय नहीं रहे। 2019 में लोक सभा चुनाव में पार्टी की
बड़ी हार के बाद भी सिर्फ एक सांसद ही बने रहे और 2022 के विधान सभा चुनाव से चंद
महीने पहले ही विपक्षी नेता के रूप में मैदान में उतरे थे।
भाजपा आज केंद्र और प्रदेश में भी मजबूत बहुमत वाली
सत्तारूढ़ पार्टी है। ऐसे में मजबूत विपक्ष भी आवश्यक है। मतदाताओं ने भाजपा को
भारी बहुमत से सत्ता में बैठाया है तो समाजवादी पार्टी को सशक्त विरोधी दल के रूप
में विधान सभा में भेजा है। पिछली विधान सभा में सपा विधायकों की संख्या काफी कम
थी, लेकिन वह मुख्य विरोधी दल के रूप में तो थी ही। सपा अपनी इस भूमिका में
लगभग अनुपस्थित रही। बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी और कोरोना काल
के हाहाकार में उसकी भूमिका, मीडिया को दिए गए बयानों के
अलावा, याद करने पर भी दिखाई नहीं देती। अखिलेश यादव एक बार
सड़क पर धरने पर बैठ गए थे उसके अलावा और किसी महत्वपूर्ण मुद्दे पर विरोध प्रदर्शन
स्मरण में नहीं है।
सपा सरकार में आ जाती तो अखिलेश के सामने बहुत बड़ी चुनौतियां
होतीं लेकिन विपक्षी नेता के रूप में जिम्मेदारी कम बड़ी नहीं हैं। क्या वे योगी
सरकार को उसके दूसरे कार्यकाल में प्रभावी ढंग से उन मुद्दों पर घेर सकेंगे जो
समाज को सर्वाधिक प्रभावित कर रहे हैं? क्या वे सरकार की
नीतियों-कार्यक्रमों-कार्यान्वयनों पर विभागवार नज़र रखने का तंत्र अपनी पार्टी के
भीतर विकसित कर सकेंगे? ‘उनका बयान आया
है कि वे ‘जनता के लिए संसद से सड़क तक’ लड़ेंगे। अगर मुख्य विरोधी दल के नेता की भूमिका वास्तव में निभा सके तो न
केवल यह उनके राजनैतिक भविष्य के लिए मजबूत नींव का काम करेगा बल्कि लोकतंत्र के
लिए भी शुभ होगा। देखते हैं।
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