Monday, October 03, 2022

धुंध को चीरकर क़ायम उम्मीदों के नाम- 'देवभूमि डेवलपर्स’

हां कविता, उत्तराखण्ड एक दिन अवश्य बनेगा। जब लोग बलिदानों को याद करेंगे तो स्त्रियों का ज़िक्र सबसे पहले आएगा।’ पुष्कर भावुक हो गया।

कविता ने तड़पकर पुष्कर को देखा‘ ‘नहीं, तुम पुरुषों के लिए बलात्कार को भी बलिदान बना देना कितना आसान है! स्त्री ही बची ऐसा बलिदान देने के लिए? यह बलिदान नहीं, बर्बर पुरुष - समाज और शासन - व्यवस्था का पाशविक व्यवहार है। स़्त्री उत्तराखण्ड राज्य में भी ठगी और लूटी जाएगी। यह भविष्यवाणी नहीं है। इतिहास साक्षी है।’ (पृष्ठ, 152)
उपन्यास के पात्र पुष्कर के पास कविता को सांत्वना देने के लिए शब्द नहीं थे। आज हम-आप जो असल जिन्दगी में हैं के पास भी तो अपनी उत्तराखण्डी बेटी अंकिता की आत्मा के समक्ष सिवाय शर्मिन्दा होने के और कुछ भी नहीं है।
क्योंकि, आज उत्तराखण्ड में राजनैतिक लम्पटता सरकारी निरंकुशता में तब्दील होकर सत्ता का स्थाई भाव बन चुकी है।
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‘अच्छा प्रकाश, राज्य बन गया तो तुम्हें क्या फ़ायदा होगा?’ कविता ने पूछा। प्रकाश चुप हो गया, जैसे जवाब सोच रहा हो।
‘चलानी तो मैडम, हमने टैक्सी ही हुई। बच्चे अच्छा पढ़-लिख जाएंगे तो वही बहुत ठेरा।’ शायद इस बारे में उसने कभी ध्यान नहीं दिया था।
‘बच्चे पढ़-लिखकर क्या करेंगे?’
‘नौकरी।’ उसने तुरंत कहा।
‘शुरू से हम पहाड़ियों की एक ही तमन्ना हुई, नौकरी। इसीलिए आधी आबादी बाहर चली गई। पुष्कर के स्वर में लाचारी-सी थी। - ‘कभी राज्य बना तो भी लोग नौकरी ही ढूंढ़ेंगे।’
‘नये राज्य में नौकरी तो मिलेगी न, सर!’ प्रकाश ने पूछा।
पुष्कर ने कोई जवाब नहीं दिया।..... (पृष्ठ, 171)
पुष्कर को जवाब मालूम था। पर, वो प्रकाश को आने वाले नये राज्य बनने की उम्मीद से उपजे उत्साह के आनंद को कम नहीं करना चाहता था।
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'सुनना ओ बिरादरों, ये नंदाबल्लभ ज्यू का लड़का मेरा कुछ नहीं लगता।....उसके निशाने पर कविता थी- 'इस लड़की ने किया इसका दिमाग़ खराब।' फिर उसने गांव के बुजुर्ग रामदत्त जी की तरफ़ हाथ जोड़े- 'मुझे दोष नहीं लगेगा, ना? हमारा तो परिवार अलग - अलग हुआ' काकी को बिरादरी से बाहर किए जाने का सबसे अधिक भय लग रहा था।' (पृष्ठ, 260)
बड़ी धोती (बड़े पंडित) वाले पुष्कर के अपने खेत में हल चलाने भर से उसे बिरादरी से अलग कर देना आज भी पहाड़ी ग्रामीण जीवन की कटु सच्चाई है। साथ ही, हर दोषारोपण परिस्थिति के लिए महिला को जिम्मेवार ठहराना समाज का स्वभाव बन गया है। उत्तराखण्ड में जातीय अहंकार के तहत विगत 1 सितम्बर को अल्मोड़ा के शिल्पकार युवा जगदीश का कत्ल किया जाना इसका ज्वलंत प्रमाण है।
अज़ीब बिडम्बना है कि नवीन जोशी के उपन्यास ‘देवभूमि डेवलपर्स’ के उक्त तीनों प्रसंग उत्तराखण्ड राज्य की नियति बन चुके हैं।
‘दावानल’ के बाद अगली कड़ी के रूप में ‘देवभूमि डेवलपर्स’ प्रतिष्ठित लेखक और पत्रकार नवीन जोशी का नया उपन्यास है। ‘दावानल’ उपन्यास के विराम से आगे बढ़ता ‘देवभूमि डेवलपर्स’ के पात्र वही हैं। बस, वे इस नवीन उपन्यास में अधिक परिपक्व और बदले मिज़ाज में हैं। ‘दावानल’ उपन्यास का केन्द्र बिंदु उत्तराखण्ड में उपजा ‘चिपको आन्दोलन’ है। ‘देवभूमि डेवलपर्स’ में उसके बाद के ‘नशा नहीं रोजगार दो’, ‘उमेश डोभाल हत्याकांड’, ‘तराई में भू हक-हकूक’, ‘टिहरी बांध’, ‘पृथक राज्य’, ‘मुजफ्फरनगर काण्ड’, ‘बाबा मोहन उत्तराखण्डी की शहादत’, ‘फलिण्डा’, ‘नानीसार’ आदि आन्दोलनों के उभार और अवसान के पड़ाव दर पड़ाव हैं।
कह सकते हैं कि यह किताब विगत 40 वर्षों में बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के लिए उत्तराखण्डी जन-मानस के जन-संघर्षों का 9 शीर्षकों में 310 पृष्ठों का एक प्रामाणिक दस्तावेज है। हिंद युग्म, नोएडा से इसी वर्ष-2022 में प्रकाशित ‘देवभूमि डेवलपर्स’ किताब का आकर्षक आवरण चित्र अशोक पाण्डे ने बनाया है।
नवीन जोशी ने ‘देवभूमि डेवलपर्स’ को ‘उत्तराखण्ड के जन आंदोलनों, पृथक राज्य के स्वप्न-ध्वंस, प्राकृतिक संसाधनों की लूट, भुतहा होते गांव और बड़े बांधों में डूबते समाज की औपन्यासिक गाथा कहा है।’ उनके अनुसार ‘बीसवीं सदी के अंतिम दो और इक्कीसवीं सदी के प्रारंभिक दो दशकों के उत्तराखण्ड का समाज, जनांदोलन, ‘विकास’ का वर्तमान ढांचा और राजनीति के विद्रूप इस उपन्यास की पृष्ठभूमि हैं। इस कथा में उस काल के हमारे इतिहास की परछाई भी साथ-साथ चलती है।’ वे इस उपन्यास को ‘बेहतरी के लिए संघर्षरत शक्तियों को और निराशाजनक परिदृश्य के बावजूद धुंध को चीरकर निर्मल धूप खिलने की क़ायम उम्मीदों के नाम!’ समर्पित करते हैं।
वास्तव में, ‘देवभूमि डेवलपर्स’ उत्तराखण्ड राज्य निर्माण यात्रा, उसके उदित होने के जन-उत्साह और अब जन-उदासी की कथा-व्यथा है। उपन्यास के पात्र कविता की तरह आज भी आम उत्तराखण्डी आदमी अपने पहाड़ी गांवों की नैसर्गिक सुन्दरता से मंत्र-मुग्ध तो है पर फिर पुष्कर की तरह यह भी सोचने के लिए विवश हैं कि ‘काश, जीवन भी सुंदर होता’।
तभी तो, पुष्कर की तरह हर उत्तराखण्डी भी ऐसे ही बैचैन हैं- ‘रात में करवटें बदलते हुए वह सोचता रहा था कि अपने होशियार बेटे को अच्छा पढ़ा-लिखाकर ऊंची नौकरी में देखने के बाबू के एकमात्र सपने को निर्ममता से तोड़कर वह उत्तराखण्ड को बेहतर बनाने के जिस संघर्ष में शामिल होने किसी दीवाने की तरह चला आया, वह संघर्ष ही आधे रास्ते में नहीं भटका, बल्कि उत्तराखण्ड ही बेतरह उजाड़ा जा रहा है। उसके भूगोल, समाज, संस्कृति, इतिहास, याने पूरे अस्तित्व पर हमला हुआ जा रहा है। संघर्ष के नाम पर कुछ नेता अपनी-अपनी व्यक्तिगत छवियां चमकाने में लगे हैं। जनता का सामर्थ्यवान धड़ा बहती गंगा में हाथ धोने में लगा है। जो लाचार हैं वे सारे दुःख-दर्दों के साथ उजड़ते पहाड़ों के मलबे में दबने को अभिशप्त हैं।’ (पृष्ठ, 98)
उपन्यास मार्च, 1984 में जब ‘नशा नहीं - रोज़गार दो’ आन्दोलन अपने चरम पर था से प्रारम्भ होता है। उस दौर में उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी, महिला मोर्चा, छात्र संगठन, जागर, नवयुवक संगठन और नागरिक मंच के जन-आन्दोलन ने पहाड़ में शराब की नाकेबंदी कर दी थी। नतीजन, सरकार को मजबूरन पहाड़ी क्षेत्र में शराबबंदी की नीति को लागू करना पड़ा।
परन्तु, यह हमें समझना होगा कि सत्ता के मूलभूत चरित्र को बदलना आसान नहीं होता है। आंदोलनों के जन-दबाव से कुछ समय के लिए परिस्थितियों में सुधार आ सकता है। लेकिन, सच ये भी है कि सत्ता के लिए जन-विरोधी नीतियों को जनता पर थोपने की स्थितियां हमेशा बनी रहती है। उत्तराखण्ड में तब यही तो हुआ-
ए पुष्कर।’ मुंह तनिक उठाकर वे बोलीं- ‘सरकार से न जीत सके पब्लिक। कित्ता अंदोलन किए तू सब...’
‘आपने कम आंदोलन किया चाची? मार खाई, गिरफ़्तार हुई।’
‘का मिला? सब बेकार... पहले से ज़्यादा हालत ख़राब भई कि ना। शाम ढले बाद द्याखो अल्मोड़ा। पूरा पहाड़ बरबाद है रै!’ (पृष्ठ, 84)
आज, पुष्कर ही नहीं हम-सबके मन-मस्तिष्क में ‘अल्मोड़ा की हमीदा चाची’ की उक्त बात बराबर कौंध रही है।
असल सच तो यह है कि, सर्वागींण विकास के लिए राजनैतिक-आर्थिक नीतियों की स्पष्टता के अभाव और अपने संगठनात्मक कमजोरियों के कारण उत्तराखण्ड के विगत के तमाम आन्दोलन बिफल साबित हुए। गम्भीर चिन्तनीय बात है कि, यह परिपाटी आज भी यहां जारी है। पृथक राज्य आन्दोलन इसका जीता-जागता उदाहरण है।
वैसे, नए राज्य बनने की प्रबल संभावना के ठीक पहले ही उसके लक्षण दिखने लगे थे-
......सब कह रहे, ‘उत्तराखण्ड बनने से विकास होगा। हमारी सरकार होगी। क्या-क्या जो बता रहे थे।’ दीपा ने अपनी इजा को टोका।
‘हां, फिर।’ गीता ने छोटी बहन का समर्थन किया।
अचानक दूर कहीं सियारों का रोना सुनाई दिया। एक साथ कई अप्रिय, अपशकुनी आवाज़ें आने लगीं।
दीदी, गीता और दीपा बाहर की तरफ़ मुंह करके थू-थू, थू-थू, थू-थू करने लगे। थू-थू, थू-थू करते रहने से सियार चुप हो जाते हैं। अपशकुन दूर हो जाता है।’ (पृष्ठ, 178)
लेकिन, नए उत्तराखण्ड राज्य का अपशकुन उसके साथ ही चिपक कर राजनैतिक अराजकता के रूप में सामने आया।
राज्य बनने के दिन आंदोलनकारियों की 'खबरदार रैली' में जुटे पुष्कर को पत्रकार शैली वास्तविकता बताता है कि ‘...नए राज्य में खाने-कमाने के स्वर्णिम अवसर...कंस्ट्रक्शन, पर्चेजिंग, कॉन्ट्रेक्ट्स। पता है दून एक्सप्रेस में भर-भर कर कौन लोग पहुंचे हैं देहरादून? बिल्डर, ठेकेदार, भू माफिया, सत्ता के गलियारों में चक्कर लगाने वाले दलाल, फिक्सर...किसको खबरदार कर रहे हो, पुषी डियर?’ (पृष्ठ, 183)
राज्य की पहली अंतरिम सरकार के शपथ ग्रहण के दिन ही पता चल गया था उत्तराखण्ड राज्य किस दिशा में जाएगा?
पत्रकार से उत्तराखण्ड आन्दोलनकारी बनी कविता पहले से ही यही तो कहती है-‘और मान लो, कल ही अचानक उत्तराखंड राज्य मिल जाए तो क्या होगा? ये लोग कुर्सी के लिए वैसे ही लड़ेंगे जैसे माइक छीनने के लिए लड़े। वह कैसा राज्य होगा? कौन उसे जनता के सपनों के अनुरूप बनाएगा? इस बारे में सोच रहा है कोई?...... ‘एंड, आई एम कन्फ्यूज़्ड टू, पुष्कर! यह आंदोलन है या एक ज्वालामुखी?...ज्वालामुखी को कोई नियंत्रित नहीं कर सकता। उसका लावा जहां राह मिले बहता जाता है। यहां भी जनता के वर्षों से जमा क्रोध का लावा ही बह रहा शायद। धीरे-धीरे यह ठंडा पड़ जाएगा।....आज संघर्ष वाहिनी इस जनाक्रोश को दिशा देने वाली नेतृत्वकारी भूमिका में क्यों नहीं है? तीस साल से आप क्या कर रहे थे? क्रांति दल भी इस भूमिका में हो सकता था। क्यों नहीं हुआ? कविता ने पुष्कर की दुखती नस दबा दी...’ (पृष्ठ, 158)
पुष्कर की दुखती नस आज हम सब उत्तराखण्डियों की भी है। जिसमें दुःख और आक्रोश तो उभरता है, पर सही दिशा के अभाव में उसकी और भी दुर्दशा होती जा रही है।
...जन-संगठनों के लोग शुरू से दलीय राजनीति का घिनौना चेहरा देखते आए हैं, उसी कारण चुनावी राजनीति को अस्पृश्य मानने लगे। इसीलिए उसमें शामिल होने का न सोच-विचार बना, न अनुभव और न संगठन ही। वे उस मानसिकता में ढले नहीं होते या ढलना ही नहीं चाहते।’
‘तो ठीक है, राजनीति को दलदल बताकर उसे स्वार्थी, भ्रष्ट और लम्पट तत्वों के लिए छोड़ दो। फिर लड़ते रहना कि राज्य जनता के सपनों के अनुरूप नहीं बना।’ (पृष्ठ, 185)
पुष्कर और कविता का उक्त वार्तालाप जैसा ही आज हम सब उत्तराखण्डियों के जेहन में हर समय घुटता रहता है। हमें आगे की राह दिखती नहीं है।
उपन्यास में ‘टिहरी बांध आन्दोलन’, ‘फलिण्डा आन्दोलन’ और ‘नानीसार आन्दोलन’ के कई अनुछुये पक्ष सामने आये हैं। टिहरी से पुष्कर को विक्रम की चिठ्ठी वो हकीकत है, जिसे हम सब भोग रहे हैं। ‘अब तो पूरी टीरी पर दया आती है। ग़ुस्सा आना बंद हो गया भैजी। सिर्फ़ करुणा बची है। कभी आकर टीरी का विलाप सुन जाओ, भैजी।’(पृष्ठ, 199)
चेतना आन्दोलन के अग्रणी मित्र त्रेपन सिंह चौहान के नेतृत्व में चला 'फलिण्डा आन्दोलन' को पढ़ते हुए आंखें नम होती रही। भीमकाय परियोजनायें किस तरह ग्राम स्तर की योजनाओं को निगल जाती है, यह इस किताब में 'फलिण्डा आन्दोलन' के दर्द और मर्म से समझा जा सकता है।
‘देवभूमि डेवलपर्स’ उपन्यास की शक्ल में उत्तराखण्ड के विगत राजनैतिक - सामाजिक आन्दोलनों की पड़ताल है। स्वाभाविक तौर पर इसमें यहां के सामाजिक - सांस्कृतिक जीवन के विविध रूप भी हैं। व्याधियों और विसंगतियों से भरा उत्तराखण्डी समाज बाहर से भले ही सरल दिखता हो परन्तु उसके अन्तविरोध और जातीय विभेद बेहद कठोर और निर्दयी हैं।
हम उनका और उनकी कला का सम्मान करने के बजाय अपमान करते रहे। उन्हें अछूत, लाचार, ग़रीब और ग़ुलाम बनाए रखा। क्यों सीखती उनकी अगली पीढ़ी यह हुनर?’ (पृष्ठ, 262) स्वयं शिल्पकार बनने की असली लड़ाई तो किसी ने लड़ी ही नहीं।
उच्च ब्राह्मणीय पुष्कर के मात्र अपने खेत में हल चलाने भर से ही उसे जाति से बेदखल कर दिया जाता है। अपने पैतृक गांव सुमकोट में रहते हुए पुष्कर और उसकी पत्नी कविता के कटु अनुभव बताते हैं कि सुविधाओं के अभाव से ज्यादा सामाजिक कूप-मण्डूकता से जूझना कठिन है।
'पुष्कर को मेरी मिट्टी छूने नहीं देना।’ काकी का यह कथन पहाड़ी गांवों में जातीय अहंकार की समाज के मन-मस्तिष्क में विराजमान वो लकीरें हैं जिसे अभी तक नहीं मिटाया जा सका है। सार्वजनिक तौर पर सुधार की बातें चाहे कितनी कर लो?
वास्तव में, जातीय विषमता और वर्ग विभेद पुष्कर के गांव सुमकोट की नहीं सारे उत्तराखंड के गांवों की कहानी है। और, स्थानीय समाज के निठ्ठले लेकिन चतुर-चालाक लोगों के माध्यम से बेईमान-भ्रष्ट राजनेताओं ने इन कुरीतियों का सबसे ज्यादा फायदा उठाया है। कुंदन, माधव, कमलेश, राधा, महेश जैसे ग्रामीण पात्र आज जगह-जगह मौजूद हैं। जिनके माध्यम से शराब, खनन और रियल स्टेट के दलालों ने ‘देवभूमि डेवलपर्स’ बनकर गांवों में अपसंस्कृति को पनपाना शुरू कर दिया है। सत्ता का वरदहस्त उनके पास वैधानिक लाइसेंस के रूप में मौजूद जो है।
‘देवभूमि डेवलपर्स’ उपन्यास के कथानक में नवीन जोशी ने उत्तराखण्ड की बीती आधी सदी में दर्ज़ इतिहास, जन-आन्दोलनों, राजनैतिक हलचलों, सामाजिक - सांस्कृतिक परिवर्तनों, आर्थिक विकास की दशा और दिशा के खुले और अनखुले पन्नों को सार्वजनिक किया है।
अतः यह किताब उपन्यास के दायरे में न सिमटकर एक अध्येयता के शोध-अध्ययन, एक सामाजिक कार्यकर्ता के व्यवहारिक अनुभवों, एक पत्रकार की सामाजिक - राजनैतिक घटनाओं की पड़ताल और एक उत्तराखण्डी के मन-मस्तिष्क की भावपूर्ण अभिव्यक्ति है।
नवीन जोशी स्मृति लेखन में पारंगत हैं। आंचलिक शब्दों, भावों और मिज़ाजों को सहेजने की बखूबी समझ रखते हैं। ‘दावानल’, ‘टिकटशुदा रुक्का’ (उपन्यास) और ‘ये चिराग़ जल रहे हैं’ (संस्मरण) उनके स्मृति लेखन की चर्चित कृतियां हैं। तरोताजा किताब ‘देवभूमि डेवलपर्स’ भी इसी क्रम में पाठकों के मध्य लोकप्रिय हो रही है।
आत्मीय
बधाई
के साथ यह सफ़र जारी रहे।
'देवभूमि डेवलपर्स' हिंद युग्म ( फोन- 0120-4374046 ) और अमेजॉन पर उपलब्ध है।
-डॉ. अरुण कुकसाल
ग्राम-चामी, पोस्ट- सीरौं-246163
पट्टी- असवालस्यूं, जनपद- पौड़ी (गढ़वाल), उत्तराखण्ड

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