[] आपकी पहली कहानी कौन सी थी और कब लिखी गई? और, आखिरी कहानी कब और कौन सी लिखी थी? अब कहानियां लिखने का मन नहीं करता? हाल के वर्षों में कविताएं ही लिखने का क्या कारण है?
- मेरी पहली कहानी ‘राजे खत्म हो गए’ 1952 या 53 में लिखी गई जो ‘समास’ पत्रिका
में दिल्ली से प्रकाशित हुई थी, 1955 में। दूसरे विश्व युद्ध
में हमारे पहाड़ों से हजारों युवा फौज में चले गए थे। एक बार जब मेरी उम्र ज़्यादा
से ज़्यादा दस साल रही होगी, हमको अल्मोड़ा जाना था। अल्मोड़ा
पैदल रास्ते से सोलह मील होता था और हवलबाग तक मोटर रोड से ही जाना होता था। तो हम
चले पैदल। जहां-जहां बस्ती थी, देखा कि फौजी जवान अपनी चुस्त
वर्दी में खड़े हुए हैं, गाड़ी की प्रतीक्षा में। और, उनको विदा देने के लिए उनके परिवार की बहुत सी महिलाएं भी वहां थीं। उनमें
माएं होंगी, बहनें होंगी, भाभियां
होंगी, किसी-किसी की पत्नी भी होगी। जैसे ही गाड़ी आती,
फौजी चट से गाड़ी के अंदर बैठ जाता और जैसे ही गाड़ी चलती थी, जो रुलाई फूटती थी, इतनी दर्दनाक कि मेरे बाल मन में
वह अमिट रह गई। और, ये एक जगह नहीं हुआ। हवलबाग तक कई जगह इस
तरह के दृश्य देखे। तो, उस कहानी में मैंने एक चरित्र बुढ़िया
का लिया था जो अपने बेटे का इंतजार कर रही है। वह इस भ्रम में है कि बेटा ज़िंदा है
और आएगा लेकिन बेटा पता नहीं कब शहीद हो चुका है। गांव में एक मंत्री जी आए हुए
हैं। उन्होंने दही खाने की इच्छा व्यक्त की। लोग दही लेने के लिए बुढ़िया के पास
पहुंचे। बुढ़िया ने बड़ी खुशी से दही की हाँडी उनको पकड़ाई और कहा- मंत्री आए हैं ना,
कभी राजे भी आएंगे। और हां, मेरा राजा भी
आएगा। जो नैरेटर है उसमें वो कहता है कि मैंने (बुढ़िया से) कहा नहीं लेकिन राजे
खत्म हो गए हैं। एक तरह से यह कहानी मेरी प्रसिद्ध कहानी ‘कोसी
का घटवार’ का बीज है।
और, अंतिम मेरी कहानी जो है, मुझे जहां तक ख्याल है ‘वागर्थ’ में प्रकशित हुई थी, वो थी ‘छोटे
शहर के बड़े लोग’। ये छोटा शहर मेरे दिमाग में भवाली था। वह
विनोदपूर्ण ढंग से कही हुई कहानी है, जिसमें एक मछली वाला है,
एक मूंगफली वाला है। मछली वाले के टाट से पानी बहकर मूंगफली वाले के
बोरे में जाता है। एक दिन मूंगफली वाला मछली वाले की सीट को तोड़-फोड़ देता है। अब
बड़ी सनसनी हो जाती है, क्योंकि मछली वाला बड़े नशेड़ी किस्म का
आदमी और मुसलमान है। और, ये हिंदू है। एक महिला है जो मंथरा
की तरह से सब घरों में जाकर कहती है- हो गया, वहां भी हो गया,
अयोध्या हो गया वहां! मुसलमानों ने रामपुर फोन कर दिया है। वहां से गुंडे
आ रहे हैं। किस सन में लिखी थी याद नहीं। तो, तनाव हो गया है
कस्बे में। मुसलमान हाजी की दुकान में जमा हो जाते हैं। वह (मछली वाला) जब आता है
तो देखता है और समझ जाता है कि किसकी कारस्तानी है। तभी हाजी जी जोर से कहते हैं- ‘अरे किसी ने गाड़ी का नम्बर नोट किया या नहीं किया? ये
साले टिंचरी पीकर गाड़ी चलाते हैं और बैक करने में तोड़ दिया इसका...।' सुनकर लोग मुस्करा रहे हैं और वह समझ रहा है कि यह सब मनगढ़ंत है, मामला दूसरा है लेकिन वह कुछ कर नहीं पाता। तो, ये
थे उस छोटे कस्बे के बड़े लोग!
अब कहानियां लिखने में दिक्कत ये है न, कि वाक्य विन्यास लम्बा होता है और आपको दोबारा उसको देखना पड़ता है। दिमाग में आती तो हैं कहानियां लेकिन उसको सहज ढंग से लिख नहीं पाता हूं। कविता में ऐसा है कि छोटे-छोटे वाक्य होते हैं और एक लय होती है। और, अभ्यास है थोड़ा-बहुत।
[] साठ-पैंसठ साल बाद भी आपकी कहानियां खूब पढ़ी और याद की
जाती हैं। ‘दाज्यू’, ‘कोसी का घटवार, बदबू, जैसी कहानियां बार-बार उद्धृत होती हैं। कम
लिखने के बावजूद यह विरल उपलब्धि है। इसकी क्या वजह आपको लगती है?
-
वजह, तो ये हो सकता है कि मैंने बहुत ध्यान से
साहित्यिक कृतियों का अध्ययन किया है, देसी-विदेशी रचनाकारों
के शिल्प के बारे में और कथ्य के बारे में। दूसरी सबसे बड़ी बात कि मेरा एक वैचारिक
आधार रहा है। कॉमर्शियल राइटिंग करके पैसा कमाने की प्रवृत्ति मेरी नहीं रही। मैं
लघु पत्रिकाओं का लेखक रहा हूं। और, एक चीज है कि परकाया
प्रवेश में कुछ दक्षता मुझमें रही है। दूसरे के मन को पढ़ने में मैं समझता हूं कि
कुछ योग्यता है। और, बचपन से ही बहुत दुखी परिवेश में जीवन
बीता, कम उम्र में मातृविहीन हो गया, अपने
आत्मीय परिवेश से विस्थापन करने को विवश हुआ। इससे संवेदनशीलता गहरी हुई।... जो भी
मैंने लिखा है वह किसी उद्देश्य को लेकर लिखा है। मन में ये भी था कि समाज में किस
तरीके से परिवर्तन हो। और तो मैं कुछ नहीं कर सकता, लिख कर
ही सामाजिक स्थितियों की विवेचना कर सकता हूं। लोगों को मेरी कहानियां सार्थक लगी
हैं तो ये मेरे लिए सौभाग्य की बात है।
[] कभी राजेंद्र यादव ने कहा था कि ‘शेखर
जोशी की कहानियों का उचित से अधिक मूल्यांकन हुआ है’- आप
क्या कहना चाहेंगे?
-
जिस तरह की कहानियां हम लोग लिख रहे थे, उसको ‘नई कहानी’ का दौर कहा गया और जब चर्चा होती थी तो
अमरकांत, शेखर जोशी और मार्कण्डेय ...। तो, एक प्रोफेशनल राइवलरी भी इसमें कहीं थी। दूसरा,
राजेंद्र यादव शुरू से बहुत महत्वाकांक्षी लेखक थे। जैसे, शुरुआत
में ही वे ‘अज्ञेय के नाम खुला’ पत्र
जैसा लिखते थे, लोगों की नज़र में आने के लिए और अपने लेखन
में भी बहुत कुछ पच्चीकारी करते थे। राजेंद्र यादव और कमलेश्वर नई कहानी आंदोलन के
स्वयं-भू नेता बने हुए थे। मोहन राकेश को भी वे अपने साथ लेते थे लेकिन मोहन राकेश
उतने मुखर नहीं थे। ये लोग आत्म प्रचार और अपने को स्थापित करने के लिए बहुत कुछ
करने की कोशिश करते थे। हमारे पास कोई साधन भी नहीं थे, इन
लोगों के पास प्रचार-साधन थे। वैसे, परस्पर मैत्री हम लोगों
की रही और राजेंद्र यादव जब भी दिल्ली से या आगरा से कलकत्ता जाते थे तो रास्ते
में इलाहाबाद में रुकते थे। तब मैं बैचलर था और उनका अड्डा मेरा ही कमरा होता था।
उनकी बड़ी मजेदार चिट्ठियां आती थीं। जब उन्होंने ‘हंस’ शुरू किया तो मैंने कोई ताजी कहानी नहीं लिखी थी, कैथरीन
मैंसफील्ड की एक बहुत अच्छी कहानी अनुवाद करके उनको भेजी थी। उन्होंने लिखा कि ‘हंस’ में दूसरी तरह की कहानियां देना चाहता हूं,
इसलिए इस कहानी को नहीं छाप रहा हूं। बाद में ये सोचकर कि कहीं वो ये
यह न सोचे मैं उनसे नाराज़ हो गया हूं, मैंने ‘आशीर्वचन’ कहानी, जो मेरी
प्रिय कहानी है औद्योगिक जीवन की, उनको भेजी और वो उन्होंने
प्रकाशित की और अगले अंक में उस पर एक बहुत सकारात्मक टिप्पणी रमेश उपाध्याय से
लिखाई। तो, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि ... बड़े-बड़े लेखक भी
एक-दूसरे के बारे में ऐसी बातें कर जाते हैं।
[] नए कहानीकारों को पढ़ पाते हैं आप? भाषा-शैली
ही नहीं, शिल्प भी अब बहुत बदल गया है। नए-नए प्रयोग हो रहे
हैं?
-
मेरे पास बहुत सी पत्रिकाएं कम्पलीमेट्री रूप में आती थीं। बाकी
को मैं खरीदकर पढ़ता था। मुझे हमेशा नए से नए लेखक के बारे में जानने की बहुत
उत्सुकता रहती थी। एक दौर तो ऐसा था जब लखनऊ से शिव वर्मा जी के सम्पादन में ‘नया पथ’ प्रकाशित होता था, तब उनके आदेश पर मैं ‘गत मास का साहित्य’ नाम से कॉलम लिखा करता था। उसके
लिए भी मैं बहुत सी कहानियों, पत्रिकाओं को पढ़के उनकी अच्छी
रचनाओं की चर्चा करता था। कभी-कभी मैं उसमें अपनी भी तारीफ कर लेता हूँगा। मैंने
शिवदा से कहा था कि ये किसी को मालूम नहीं होना चाहिए कि मैं ये कॉलम लिखता हूं।
उसे मैं ‘सौम्य दृष्टि’ नाम से लिखता
था। मुझे लगता है, शिवदा ने यशपाल जी को बता रखा होगा क्योंकि
एक बार यशपाल जी ने एक स्थानीय लेखक की ‘किताब’ की मुझसे बार-बार प्रशंसा की। मैं समझ गया कि यशपाल जी मुझसे उस कहानी का
उल्लेख करवा चाहते हैं। अब एक तो पत्रिकाएं कम उपलब्ध होती हैं, दूसरा मेरी आंखों की रोशनी बहुत साथ नहीं देती। मैग्नीफाइंग लेंस से जिनको
जरूरी समझता हूं, पढ़ लेता हूं। तो, उत्सुकता
बनी रहती है कि आखिर क्या नया लिखा जा रहा है। अकेलापन भी हो गया है। ऐसे साथी भी
नहीं हैं कि जिनसे नए साहित्य के बारे में चर्चा की जा सके।
[] आपकी पीढ़ी के, बल्कि आपके साथ के बहुत ही कम रचनाकार अब सक्रिय हैं। किनसे बातचीत हो जाती है? इलाहाबाद
कितना याद आता है और पुराने साथी?
-
दुर्भाग्य से मेरी उम्र के अधिकांश लोग अब इस दुनिया में
नहीं हैं। जो बहुत थोड़े-से लोग बचे हैं, जैसे डॉ विश्वनाथ त्रिपाठी। बहुत कम साथी
ऐसे हैं जिनसे मैं बात कर सकूं। ये भी है कि बात करने के लिए समकालीन साहित्य के
सम्बंध में उसका अध्ययन पूरी तरह से हो जो कि अब नेत्र विकार के कारण सम्भव नहीं
है। जो लोग बाद की पीढ़ी के हैं, जैसे कवि हरिश्चंद्र पाण्डे,
संतोष चतुर्वेदी, आप हैं, तो उनसे कुछ साहित्यिक चर्चाएं हो जाती हैं। मैं जानने की कोशिश करता हूं
कि क्या नया लिखा जा रहा है, क्या पढ़ा जा रहा है। अब ये है
कि हम अपनी पारी खेल चुके। कोई अफसोस नहीं। जो कुछ भी हमने किया, ईमानदारी से किया। किसी तरह की महत्वाकांक्षा नहीं रखी, बल्कि एक मिशन के रूप में उस काम को अंजाम दिया।
बहुत याद आते हैं कुछ लोग। मार्कण्डेय का एक चुम्बकीय व्यक्तित्व था। वो मुझ पर बहुत भरोसा करते थे। सपने में वो बहुत आते हैं। अमरकांत के साथ बिल्कुल पारिवारिक सम्बंध थे। इलाहाबाद शहर, जहां मैं पचास साल रहा हूं, वो सपनों में बहुत आता है। खास तौर से 100- लूकर गंज, जो ‘टंडन का हाता’ कहलाता था। उस हाते के बीच में एक पुराना बंगला था। उसके आधे हिस्से में मकान मालिक रहते थे और आधे में मैं रहता था। और, तीन तरफ छोटे-छोटे क्वार्टर बने हुए थे, निम्न मध्यम वर्गीय लोगों के लिए। वहां बड़ी पारिवारिकता थी। सब याद आता है। इधर मैंने एक लम्बी कविता लिखी है 100-लूकरगंज की स्मृति में। प्रतीक रूप में मैंने पहाड़ी गांवों की ‘बाखई’ (मकानों की लम्बी कतार) को लिया है। ‘बाखई’ में इतना खुलापन, इतनी सहकारिता, सहभागिता, सुख-दुख का साझापन रहता है। ‘बाखई वाला गांव’ कविता वास्तव में 100-लूकर गंज की ही प्रतीक है।
[] आप सुबह से शाम तक की कारखाने की नौकरी को लेखन के लिए
बाधा मानते थे लेकिन क्या वही आपकी एक बड़ी रचनात्मक पूंजी नहीं बनी?
-
हां, इस नौकरी में मुझे बहुत रचनात्मकता मिली।
हर दिन नया कुछ सृजित करना। जो हम लोगों ने दक्षता हासिल की थी ऑटोमोबाइल
इंजीनियरिंग की, उसका अध्याय सन 62 की लड़ाई के बाद खत्म हो
गया था। चीन के साथ मुठभेड़ में हमारे जो रिवर्सेज हुए, उसकी
जब इंक्वायरी हुई, तो पाया गया कि हमारी विदेशी गाड़ियों की
फ्लीट, जिनके कल-पुर्जे अब दुर्लभ थे, की
कमजोरी भी इसकी वजह थी। तो, रातों-रात तय हुआ कि अब व्हैकिल
रिपेयर नहीं होंगे। स्वदेशी गाड़ियां खरीदी जाएंगी और उस पर अपनी सेना की
रिक्वायरमेंट के हिसाब से बॉडी बिल्ड की जाएगी। तो, रिपेयर
वर्कशॉप को हम लोगों ने प्रॉडक्शन यूनिट में बदला और वो इतना प्रेरक था...। नई
मशीनें मंगाई गईं, लगाई गईं और वर्कर्स, जवानों को एक प्राइवेट कम्पनी में ट्रेनिंग के लिए भेजा गया। वो वहां से
सीख के आए, बड़ी-बड़ी मशीनें, जिनमें 8x10
की बड़ी-बड़ी चादरें, दस गेज की, बारह
गेज की, चौदह गेज की, कटती हैं,
उनको कैसे ऑपरेट करना है, ब्रेक प्रेस है,
पावर प्रेस है, बेंडिंग कैसे करनी है। ये कमाल
लोगों का था कि जो लोग बढ़ई थे, इलेक्ट्रीशियन थे, फिटर थे, वो लोग भी इन मशीनों पर काम करने लगे और एक
भी एक्सीडेंट नहीं हुआ। अलग-अलग गाड़ियों की चेसिस बनती थी, बॉडी
बनती थी, ऐसे कि आप उनको खोल के फिर जोड़ सकें, फोल्डिंग करके। तो, इतना सृजनात्मक था, हर चीज, कि देख के तबीयत प्रसन्न हो जाती थी। ये
जरूर है कि पढ़ने-लिखने के लिए समय नहीं मिला लेकिन काम में ताजगी रही। ट्रेनिंग के
दौरान प्राप्त मिकैनिकल ड्रॉइंग की शिक्षा अब काम आई। ऊपर से प्राप्त ड्रॉइंग का
खुलासा करके मैं प्रोटोटाइप बनवाता था। तब प्रॉडक्शन शुरू होता था। दूसरी बात मैंने
जिन लोगों के साथ मैकेनिक के रूप में काम किया था, उस पीढ़ी
से आत्मीय सम्बंध थे। उसके बाद जो नई पीढ़ी आई, अपने बच्चों
की तरह से हमने उनकी रुचियों के हिसाब से, उनके मित्रों के
ग्रुप के हिसाब से उनकी प्लेसिंग की। तो, वो बहुत आदर देते
थे। ऐसे-ऐसे काम किए गए और ऐसी उपलब्धियां रहीं कि बयान नहीं किया जा सकता। ये बड़ा
सृजनात्मक सुख था … मेरी एक कहानी है 'गलता
लोहा', कुछ लोग इसे डी-क्लास होने की कहानी समझते हैं लेकिन
मेरी दृष्टि में यह कहानी उस सृजन सुख की है जो एक चित्रकार को अपनी कलाकृति की
पूर्णता पर और एक शिल्पकार को अपने शिल्प की पूर्णता पर मिलता है। वो ब्राह्मण
पुत्र जो है, वो अपने रिश्तेदार के साथ पढ़ाई करने के लिए गया
था लेकिन रिश्तेदरों ने उसे आईटीआई में काम सीखने भेज दिया। तो, उसने लोहारी काम भी सीखा। जब वो गांव आया तो उसके पिता ने कुछ औजार उसे
लोहार के यहां तेज करवाने के लिए दिए। तो, वो लोहार को काम
करते हुए देखता रहा। लोहार एक सरिया को मोड़कर गोल छल्ले का रूप देने की कोशिश कर
रहा था लेकिन वो सफल नहीं हो रहा था। इसने उसको हटा के अपने हाथ में औजार लेकर
उसको कर दिया। ये लोहार के लिए बड़ी एम्बेरेसिंग पोजीशन थी कि एक ब्राह्मण उसके साथ
काम कर रहा है लेकिन ब्राह्मण को जातिवाद की चिंता की बजाय एक सृजनात्मक सुख मिल
रहा था। खैर, अंतत: मैंने समय से आठ साल पहले लिखने-पढ़ने के लिए
ही रिटायरमेंट लिया लेकिन मैं उस वर्कशॉप के वातावरण को, उसकी
आत्मीयता को कभी नहीं भूल पाया। नॉर्मल होने में मुझे समय लगा। लेकिन मुझे आराम
मिला और जो लिखना-पढ़ना छूट गया था, वह हुआ। संगठन (जनवादी
लेखक संघ) में पदाधिकारी होने के कारण मुझे घूमने को भी मिला। दूसरे लेखकों से भी
सम्पर्क साधने का मौका मिला, लिखने के लिए प्रेरणा मिली और
बहुत कुछ लिखा भी।
[] अतीत और वर्तमान के प्रसंगों को लेकर तो कहानियां लिखी
जाती हैं। क्या भविष्य की सम्भावित सामाजिक स्थितियों के बारे में भी कहानियां
लिखी गईं?
-
कई लेखकों ने काल्पनिक पात्रों और उपकरणों को लेकर भविष्य
के बारे में रोचक फैंटेसी लिखी हैं। यदि लेखक की दृष्टि समाज-सापेक्ष हो तो कभी
अनायास ही उनकी रचना में भविष्यवाणी-सी हो जाती है। जैसे, सन
1925 में ‘मतवाला’ पत्रिका में
प्रकाशित प्रेमचंद की कहानी ‘गमी’ को
लें। उस जमाने में लोगों के भरे-पूरे परिवार होते थे लेकिन प्रेमचंद की कहानी का
नायक अपने परिवार में तीसरे बच्चे के आगमन पर मित्रों को पत्र द्वारा सूचित करता
है कि मेरे घर में गमी हो गई है। प्रकारांतर से प्रेमचंद परिवार नियोजन की
आवश्यकता पर उस कालखण्ड में संकेत करते हैं। आलोचक डॉ सत्य प्रकाश मिश्र ने कहीं
लिखा था कि बंगाल में टाटा द्वारा नैनो मोटर कारखाने के लिए अधिगृहीत की गई जमीन
को लेकर किसानों की पीड़ा को लेखक ने ‘आखिरी टुकड़ा’ (यह शेखर जी की कहानी है- सम्पादक) में 35 वर्ष पूर्व व्यक्त कर दिया था।
[] आखिरी सवाल। गीतांजलि श्री के उपन्यास ‘रेत
समाधि’ को अन्तर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार मिला है। आपकी
प्रतिक्रिया?
-
हिंदी की एक लेखिका को एक अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिला, इस
बात का बहुत संतोष है। उस भारी भरकम उपन्यास को, मैंने उसका
अंग्रेजी संस्करण देखा है, मेरी पोती ले आई थी, नेत्र विकार के कारण पढ़ने की हिम्मत नहीं हुई। मैंने उसका कथा सार और लेखिका
और अनुवादिका के बारे में जानने की कोशिश की। बहुत अच्छा लगा कि अनुवादिका डेजी
रॉकवेल पहले भी कई हिंदी उपन्यासों के अनुवाद कर चुकी हैं और स्वयं चित्रकार हैं,
लेखिका हैं। अश्क जी की ‘गिरती दीवारें’,
भीष्म साहनी का ‘तमस’ का
उन्होंने अनुवाद किया है। जहां तक पुरस्कार की चयन समिति की रुचि का प्रश्न है,
क्या ‘तमस’ जैसे उपन्यास
को अपने समय में ये पुरस्कार नहीं मिलना चाहिए था, जिस कोटि
का वह है? पश्चिमी जगत में तो ‘लोलिता’
जैसे उपन्यास को भी उछाला
जाता है। मैं ये नहीं कह रहा हूं कि गीतांजलि श्री के उपन्यास में कुछ असामाजिक
बात होगी। उसमें एक अस्सी साल की बुढ़िया है, उसके पति की
मृत्यु हो जाती है तो वह डिप्रेशन में चली जाती है। फिर उसकी मित्रता एक
ट्रांसजेण्डर व्यक्ति से हो जाती है। फिर वो पाकिस्तान जाती है। पठनीयता की दृष्टि
से बहुत रोचक होगी पुस्तक लेकिन जिन मूल्यों
के लिए हम साहित्य को देखते हैं, उसमें वह कहां तक खरी उतरती
है, ये मैं कमेण्ट नहीं कर सकता, चूंकि
मैंने पढ़ा नहीं उपन्यास। मैं चाहता हूं कि पुस्तक और सामाजिक स्वीकृति पाए।
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