Friday, October 14, 2022

मण्डल-पश्चात राजनीति के प्रमुख नायक मुलायम सिंह यादव

 

राममनोहर लोहिया के सहयोगी और 1962 में जसवंतनगर सीट से विधान सभा का चुनाव लड़ चुके नत्थू सिंह ने एक बार मैनपुरी के एक दंगल में मुलायम सिंह यादव को कुश्ती लड़ते देखा। कुश्ती वे अच्छी लड़ते थे और इलाके के चैम्पियन थे। पता नहीं नत्थू सिंह ने मुलायम के कुश्ती के दांव-पेंचों में क्या देखा, लेकिन लोहिया से कहकर उन्हें 1967 में इटावा की जसवंतनगर सीट से प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का टिकट दिलवा दिया। उस चुनाव में मुलायम जीते और विधान सभा में सबसे कम उम्र के विधायक (28 साल) बने। यहां से मुलायम सिंह यादव ने लोहिया के नेतृत्व में समाजवाद की राह पकड़ी। गैर-कांग्रेसवाद का नारा देने वाले लोहिया से वे पहले से प्रभावित थे। 1967 का साल चुनाव कुछ राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारें बनने का साल था। उत्तर प्रदेश में संविद’ (संयुक्त विधायक दल) की जो सरकार बनी उसमें भारतीय जनसंघ (आज की भाजपा का पूर्व अवतार) भी था और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी भी। लोहिया की प्रसपा और अन्य दल तो थे ही। गैर-कांग्रेसवाद के जोश में जनसंघ का साथ लेने की यह रणनीति लोहिया का प्रयोग ही नहीं, मुलायम सिंह की राजनीतिक पाठशाला का भी प्रस्थान बिंदु भी बनी।1975 के क्रूर आपातकाल के बाद इंदिरा गांधी यानी कांग्रेस (इं) को हराने के लिए बनी रणनीति में यही विरोधाभासों से भरी रणनीति जयप्रकाश नारायण ने अपनाई। मुलायम तब भी उस जनता पार्टी के साथ थे जिसमें जनसंघ भी बराबर की हिस्सेदार थी। 1967 और 1977 के गैर-कांग्रेसी राजनीति के प्रयोग जनसंघ के कारण ही बहुत शीघ्र विफल हुए और कांग्रेस सत्ता में वापस लौटी थी।

लोहिया के निधन के बाद मुलायम ने किसानों के पक्षधर बड़े नेता चरण सिंह को अपना गुरु बनाया लेकिन वह रास्ता दूर तक नहीं जा सका। जनता पार्टी की टूट के दौरान और उसके कुछ समय बाद तक वे चंद्रशेखर (सजपा) के साथ रहे। इस बीच उत्तर प्रदेश की राजनीति में वे अपना दम-खम दिखा चुके थे। 1989-91 के 'जनमोर्चा' और 'जनता दल' जैसे प्रयोगों तथा उनकी अस्थिर सरकारों के पतन के बाद जब अंतत: जनता पार्टी टूटी। उसके बाद 1992 में मुलायम सिंह यादव ने अपनी 'समाजवादी पार्टी' का गठन किया, जिसने कालांतर में उत्तर प्रदेश की राजनीति में काफी उथल-पुथल मचाई। यह पिछड़ी जातियों को 27 फीसदी आरक्षण देने वाली मंडल आयोग की सिफारिशों के लागू होने के बाद समाज और राजनीति के पूरी तरह बदलने का दौर था। कांशीराम के अथक प्रयासों से 1984 से राजनीतिक पार्टी के रूप में उभर रही बहुजन समाज पार्टी के भी ताकतवर होने का यही समय था। जेपी आंदोलन से चमके लालू यादव और नितीश कुमार बिहार की राजनीति में छाने लगे थे। कांग्रेस की जमीन दरकने लगी थी। हिंदूवादी राजनीति को चमकाने की कोशिश में, 'जनसंघ' का नया अवतार 'भाजपा' अपने लिए जमीन तलाश कर रही थी। 'मंडल' से परेशान कांग्रेस को नया आधार देने की कोशिश या गफलत में राजीव गांधी ने अयोध्या से 'मंदिर तुरुप' क्या खेला, भाजपा के हाथ में वह इक्का आ पड़ा जिसने राजनैतिक-सामाजिक समीकरणों की बाजी ही पलट दी और इस देश के ताने-बाने को बहुत गहराई तक तार-तार करना शुरू कर दिया था। यह कांग्रेस के पटरी से उतरते जाने की शुरुआत भी थी।1989 के बाद से आज तक वह यूपी की सत्ता के बाहर बनी हुई है।

जिस गैर-कांग्रेसवाद के सिद्धांत से मुलायम की राजनीति शुरू हुई थी, उसकी धीरे-धीरे जरूरत ही खत्म होती गई। उनके सामने प्रदेश में बसपा के अलावा भाजपा भी खड़ी हो गई थी। बसपा से वे हाथ मिला  सकते थे, मिलाया भी और लड़े भी, लेकिन भाजपा-विरोध उनकी राजनीति का मुख्य केंद्र बिंदु बनता गया। 1992 के बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद कांग्रेस से पूरी तरह दूर चले गए मुसलमानों को अपनी पार्टी का पूरा संरक्षण देने में मुलायम ने देर नहीं की। यादव-मुस्लिम वोट बैंक उनकी ताकत बना। उत्तर-प्रदेश के 18-19 प्रतिशत मुसलमानों को अपना वोट बैंक बनाए रखने के लिए मुलायम ने हर पैंतरा चला और कई बार सीमाएं भी पार कीं। 'मौलाना मुलायम' का तमगा पाकर वे प्रसन्न ही हुए। यह अलग बात है कि इस प्रयास में वे भाजपा को फलने-फूलने के लिए पूरा खाद-पानी देते रहे। वे जितना ही मुसलमानों के सरपरस्त होते गए, भाजपा को 'तुष्टीकरण' के बहाने हिंदू-ध्रुवीकरण का पूरा अवसर मिलता गया। इसी कारण एक दशक का दौर यूपी में ऐसा रहा जब भाजपा और सपा में शी-शॉ जैसा खेल चला रहा। दोनों एक-दूसरे को पछाड़ने के नाम पर उभरने का अवसर ही दे रहे थे। बीच-बीच में बसपा दोनों का खेल बिगाड़ती या बनाती रही। लालू यादव भी बिहार में ऐसी ही यादव-मुस्लिम राजनीति करते रहे। वहां बसपा जैसी तीसरी ताकत न होने से दलितों के वोट बैंक पर भी उनका एकाधिकार बना रहा।

लालू और मुलायम दोनों भाजपा विरोधी राजनीति के केंद्र में बने रहे। भाजपा का उभार उत्तर भारत से हो रहा था और पिछड़ी जातियों एवं अल्पसंख्यकों के सरपरस्त बने ये दोनों क्षत्रप उसका मुकाबला करने को डटे थे। कांग्रेस उत्तर प्रदेश और बिहार में लगातार कमजोर होती गई। इस तरह भाजपा-विरोधी जो राजनैतिक स्पेश बन गया था, उस पर काबिज होने के लिए दोनों में प्रतिद्वंद्विता भी चलती थी। लालू ने तब बाजी मार ली थी जब आडवाणी का राम-रथ बिहार में रोककर उन्होंने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। मुलायम की पूरी राजनीति को ध्यान में रखते हुए आज यह कहना कठिन है कि लालू तब आडवाणी को बिहार में गिरफ्तार न करते तो मुलायम यूपी में आने पर उनके साथ क्या सलूक करते, हालांकि मुलायम लगातार यही कहते रहे थे कि 'अयोध्या में परिंदा भी पर नहीं मार सकता।' उनका ही राज था जब 1990 में पहली बार उपद्रवी भीड़ बाबरी मस्जिद के गुम्बदों पर चढ़कर प्रतीकात्मक तोड़-फोड़ कर आई थी।

बहरहाल, 1990 का दशक भारतीय राजनीति, अन्तरराष्ट्रीय राजनय और अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के लिए भी बहुत महत्त्वपूर्ण रहा। नरसिंह राव की अलप्संख्यक सरकार के पांच साल चलने के अलावा बाकी दशक राजनैतिक उठापटक और अस्थिर सरकारों का रहा। मुलायम और लालू दोनों ने केंद्र सरकारों में अंदर या बाहर से अपनी-अपनी भूमिकाएं निभाईं। इसी दौर में मुलायम का डोलायमान रुख और लालू की एकनिष्ठता भी सामने आने लगी। मुलायम कभी केंद्र सरकार की नीतियों के खिलाफ खड़े हुए तो कभी उसे समर्थन भी देते रहे। कभी अपने रुख में वे पलटी मार जाते। अटल बिहारी बाजपेई की सरकार गिरने के बाद 1999 में जब सोनिया ने केंद्र में सरकार बनाने का दावा राष्ट्रपति के समक्ष पेश किया तो मुलायम पलटी मार गए। सोनिया का उन्होंने विदेशी कहकर भारी विरोध किया, जबकि सोनिया उनसे समर्थन मांग रही थीं। अमेरिका से परमाणू समझौते और अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति बनाने के मामले में भी उन्होंने पहले किए वादे से पलटी मार दी थी। कभी यूपीए के साथ गए तो कभी अचानक एनडीए के साथ खड़े हो गए। वाम मोर्चे के साथ भी वे खड़े दिखना चाहते रहे। बीच-बीच में प्रधानमंत्री बनने का उनका सपना भी जोर मारता। इसके उलट लालू यादव ने न केवल सोनिया गांधी का पूरा साथ दिया बल्कि, विपरीत परिस्थितियों में भी बिहार में कांग्रेस को अपने गठबंधन में साथ बनाए रखा। मुलायम की तरह उन्होंने पलटी नहीं मारी। बल्कि, कई बार लगता है कि लालू को अपनी धुर-भाजपा विरोध की राजनीति की भारी कीमत चुकानी पड़ी है।                

भ्रष्टाचार और राजनीति में अपराधियों को बढ़ावा देने के लिए भी मुलायम खूब चर्चा में रहे। उनके खिलाफ, बल्कि उनके पूरे परिवार के खिलाफ आय से अधिक सम्पत्ति के मामले सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचे। नौबत यहां तक आ गई थी कि शायद उनके खिलाफ भी लालू यादव की तरह सख्त कार्रवाई हो लेकिन वे अपनी डोलायमान राजनीति का लाभ लेकर आधी-अधूरी क्लीन चिट हासिल कर ले गए। प्रारम्भ में समाजवादी राजनीति के मूल्यों से बंधे मुलायम अपने परिवार को राजनीति में लाने के विरुद्ध थे। अखिलेश यादव को उन्होंने अपनी राजनैतिक छाया से दूर ही रखा था लेकिन बाद में वे पुत्र-मोह में इतना फंसे कि सदा सहायक भ्राता शिवपाल को नाराज कर अखिलेश को मुख्यमंत्री बनवा दिया। उनका पूरा कुनबा राजनीति में है। अपराधियों को राजनीति में लाने का श्रेय अकेले मुलायम को नहीं दिया जा सकता लेकिन वे सदा संगीन अपराधों से घिरे बाहुबलियों का बचाव कर उन्हें महत्त्व देते और मंच पर अपने साथ बैठाते रहे। उनके शासनकाल में अपराध बहुत बढ़ जाते हैं, यह आरोप उनके साथ ही नहीं, आज अखिलेश यादव की छवि के साथ भी चिपका हुआ है, जिसका लाभ भाजपा ने खूब उठाया।

अपने राजनैतिक जीवन की संध्या में उन्होंने एक और चौंकाने वाला कारनामा किया। सोलहवीं लोक सभा की विदाई वेला में उन्होंने सदन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ करने में शब्दों की कोई कंजूसी नहीं की। यहां तक कह दिया कि मैं कामना करता हूं कि वे जीतकर फिर प्रधानमंत्री बनें। उनकी पलटी मारने की राजनीति के बावजूद यह बहुत आश्चर्यजनक बयान था जिसकी लानत-मलामत होनी ही थी। एक बार वे लखनऊ में मोदी के सार्वजनिक मंच पर उपस्थित होकर उनके कान में कुछ फुसफुसाकर भी हास्यास्पद रूप से चर्चित हो चुके थे।

कुश्ती के अखाड़े से राजनीति के मैदान में उतरे मुलायम सिंह यादव ने अपने विरोधियों पर खूब चरखा दांव लगाए और कभी अपने दांवों से चित भी हुए। जो भी हो, मंडल-पश्चात तीन दशकों की उत्तर भारतीय राजनीति को गहरे प्रभावित करने वाले नेताओं में वे बराबर याद किए जाएंगे। पिछड़ी जातियों के राजनैतिक उभार और उत्तर भारत की राजनीति का चेहरा पूरी तरह बदल देने वाले नेताओं में भी उनका शुमार होता रहेगा।              

- न जो, 9 अक्टूबर, 2022         

           

 

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