प्रख्यात कथाकार शेखर जोशी ने अपने नब्बे वें जन्म दिन से करीब दो-ढाई महीने पहले अपनी वसीयत लिखी थी- ‘मन की बात’ शीर्षक से। मई-जून में वे बेटी कृष्णा के पास पुणे में थे। कोविड का हलका झटका लगा था लेकिन उबर आए थे। तभी यह ‘मन की बात’ लिखी थी। आंखों की बीमारी के कारण लिखना आसान नहीं था। तीस जून से लिखना शुरू किया और थोड़ा-थोड़ा करके छह जुलाई तक पूरा किया। बाद में भी कुछ जोड़ा। स्वस्थ होकर वे छोटे बेटे संजय के पास गाजियाबाद आ गए थे। 10 सितंबर, 2022 को परिवारीजनों के बीच बड़े उत्साह से उनके नब्बे वर्ष पूरे करने का आननद-उत्सव मनाया गया। उन्होंने बहुत खुश होकर फोन पर मुझे बताया था – "तुम्हारा भेंट किया कुर्ता पहनकर जन्मदिन मनाया। बच्चों ने खूब धूमधाम कर दी।" चंद रोज बाद वे बीमार पड़े। अस्पताल ले जाए गए और चार अक्टूबर को अनन्त यात्रा पर चले गए।
‘मन की बात’ में उन्होंने अपने बीते दिनों
की चर्चा करने के बाद कहा है कि –“मैं एक सुखी और संतुष्ट व्यक्ति की तरह दुनिया
को प्रसन्नतापूर्वक अलविदा कहूंगा।” इसी तरह वे गए भी। उनकी इच्छानुसार मेडिकल
कॉलेज को देहदान करते हुए ‘शेखर जोशी- लाल सलाम’ के नारे लगाए गए और उनकी कविता का पाठ किया गया। दुख स्वाभाविक था लेकिन
कोई रोया नहीं। यह एक प्रतिबद्ध और विनम्र जन कथाकार की शानदार विदाई थी, जैसा वे चाहते थे।
उनके जाने के बाद उनकी ‘मन की बात’ पढ़ी गई। अपनी किताबों और बैंक में जमा छोटी-सी पूंजी का बच्चों में
रचनात्मक उत्तरदायित्व के साथ बंटवारा करने के बाद उन्होंने अपने ‘ओलिया गांव’ और आस-पास के इलाके के बारे में अपने
कुछ स्वप्न भी साझा किए हैं और उत्तराखण्ड की सरकार से कुछ अपेक्षाएं की हैं। उनका
उअह स्वप्न और अपेक्षाएं बताती हैं कि वे पहाड़ और अपने इलाके के बारे में कितना
कुछ सोचते थे और उसमें कैसा ऐतिहासिक, सांस्कृतिक चिंतन और
विकास दृष्टि शामिल थे।
वे लिखते हैं – “मैंने कभी सम्पत्ति जोड़ने की कोशिश नहीं
की। मेरी प्रकाशित और अप्रकाशित पुस्तकें ही मेरी स्मपत्ति हैं। गांव की पैतृक
सम्पत्ति जो अभी ताऊ जी और बाबू के नाम पर है, उसका उपयोग उनके वारिस
जिस तरह चाहेंगे करेंगे। मेरी एक इच्छा है कि गुसांई सिंह के परिवार को जिस प्रकार
बाबू ने अपने घर में आश्रय दिया था, उसे बेदखल न किया जाए।
उनके कारण हमारा प्यारा घर आज भी पूरी शान से खड़ा है। मैं अगर स्वस्थ होता और यदि
मेरे आंख-कान सही-सलामत होते तो मैं उत्तराखण्ड सरकार से अपनी तीन मांगों के लिए
आग्रह करता। मेरी इच्छा है कि सुनाड़ी दड़मिया से लेकर विनायक थल तक (गणनाथ) की
जंगलात की सड़क का नामकरण पं हरिकृष्ण पाण्डे मार्ग किया जाए। पाण्डे जी ने
स्वतंत्रता संघर्ष काल में इस क्षेत्र में जो जागृति प्रदान की और कई बार जेल गए,
विद्यापीठ की स्थापना कर इलाके के बच्चों की स्कूली शिक्षा की
व्यवस्था की, उन्हें यह सम्मान दिया जाना चाहिए। दूसरी इच्छा
है कि सरकार हमारे ओलिया गांव को हर्बल विलेज बना दे। इस गांव की जलवायु औषधि पादपों
के उत्पादन के लिए बहुत अनुकूल है। वहां आज भी ममीरा (जोके
जड़ि), शंखमूसली, ब्राह्मी, बनप्शा, दालचीनी, तिमूर,
औषधीय गुणों वाले किरमोला की झाड़ियां प्रचुर मात्रा में पाई जाती
हैं। औषधीय पादपों के अलावा ओलिया गांव की जलवायु कुछ विशेष प्रकार की
साग-सब्जियों के लिए भी बहुत उपयुक्त है। गडेरी, शिमला मिर्च,
कैरुवा (एस्परेगस), मशरूम और लिंगुण भी यहां
प्राकृतिक रूप से उग जाते हैं। उगल और चुवा (कोटू और रामदाना) तो भोजन की अनिवार्य
सामग्री है। अब तो सिसूण (बिच्छू घास) भी प्रचलन में आया है। बंदरों द्वारा नष्ट न
किए जाने वाले उत्तम फलों- अखरोट, दाड़िम, जामिर, नारंगी, माल्टा,
पोदीना और पिपरमेण्ट तो यहां सामान्य बात है। अखरोट का काष्ठ खेलों
के उपकरण और इमारती लकड़ी के रूप में बहुत कीमती होता है। तिमूर दंत मंजन के रूप
में भी बहुत उपयोगी है।
मेरी तीसरी इच्छा है कि पूर्व दिशा में बमणतोई से सुपकोट
जाने वाले मार्ग एक दीवार उठाकर एक विस्तृत जलाशय का निर्माण कर दिया जाए। यह बहुत
सुंदर पर्यटन स्थल बन सकता है। चातुरमस में इस गांव की नदी में इतना अधिक पानी आता
है कि कई बार बड़ी-बड़ी शिलाएं बहकर नई जगहों में बैठ जाती हैं। ऊपर का सदानीरा झरना
भी खूब जल प्रवाहित करता है। चारों ओर के ऊंचे पहाड़ों से बारिश का पानी आकर नदी
में गिरता है। एक-दो वर्षों की बारिश के बाद जलाशय लबालब भर जाएगा। विनायक थल पर
एक हैलीपैड बन जाए तो पर्यटक ट्रैकिंग करते हुए माई का थान से हिमालय के दर्शन कर
सकते हैं। पर्यटन स्थल बन जाने से इस क्षेत्र में रोजगार की अपार सम्भावनाएं
बढ़ेंगी और इस क्षेत्र से मैदानी शहरों के लिए जनता का पलायन रुकेगा। मैं अपने प्रवासी
बिरादरों से भी आग्रह करता हूं कि अपने पूर्वजों के गांव की उन्नति के लिए सरकार
पर जोर डालें और सहयोग करें।”
शेखर जी बचपन में ही इजा की मृत्यु के बाद अपने मामा के पास
केकड़ी (राजस्था) चले गए थे। फिर दिल्ली चार साल के प्रशिक्षण के बाद इलाहाबाद में
नौकरी की और वहीं रहे। उसके बाद उनका ठिकाना लखनऊ, पुणे और गाजियाबाद रहा।
लेकिन अपने ओलिया गांव से उनका सम्पर्क हमेशा बना रहा। उत्तराखण्ड उनके लेखन और
चिंतन में बराबर शामिल था। 'मन की बात' में अपने गांव और क्षेत्र के बारे में जितनी आत्मीयता और विकास दर्शन के
साथ वे जो लिख गए हैं, उससे उनके पहाड़ से गहन जुड़ाव का पता
चलता है। चंद वर्ष पूर्व उन्होंने 'मेरा ओलिया गांव' नाम से एक किताब ही लिख दी थी, जो स्वयं में एक
महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है।
अलग उत्तराखण्ड राज्य बन जाने के बाद उसका शोषण दोहन ही
अधिक हुआ है। जो विकास हुआ, उसके केंद्र में न प्रकृति है, न जन। राज्य से जनता का मोहभंग ही हुआ है। ऐसे में सरकार पहाड़ के एक
विख्यात लेखक के मन की बात सुनेगी और उस पर ध्यान देगी, इस
पर सहसा विश्वास नहीं होता। सरकार में बैठे लोगों को शायद ही शेखर जोशी जी के बारे
में ठीक से मालूमात हो। तो भी इस आशा के साथ कि आज या कल सत्ता में बैठने वाले
किसी संवेदनशील आंख-कान तक उनका व्यावहारिक सपना पहुंचेगा और उस ओर कुछ काम होगा,
यह उम्मीद करना बिल्कुल बेमानी भी नहीं। - न जो, 21 अक्टूबर 2022
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