Tuesday, October 10, 2023

नींद (कहानी)

 

आज फिर ज़ल्दी नींद खुल गई। मोबाइल में टाइम देखता हूं। चार बजकर दस मिनट हुए हैं। कल सवा चार बजे आंख खुल गई थी। इधर अक्सर ऐसा होने लगा है। लाख कोशिश करने पर भी फिर सो नहीं पाता। जाने कैसी-कैसी बातें सोचने लगता हूं। अपने आप ही ऊटपटांग बातों का सिलसिला शुरू हो जाता है जो रोके नहीं रुकता। साल- डेढ़ साल पहले तक आराम से सात बजे तक सोया रहता था। निम्मी चाय के लिए दो-तीन बार पुकारती, तब अलसाया-सा उठता था। जब कभी स्वास्थ्य-चिंता घेरती और जोश आता तो सुबह घूमने का संकल्प करता, तब भी मुश्किल से छह-साढ़े छह बजे उठ पाता था, हालांकि यह हफ्ते-दस दिन से अधिक कभी चल नहीं पाया। नींद न आने या उचट जाने की कभी समस्या नहीं रही। फिर इधर क्या हो गया है? बूढ़ा हो गया हूं क्या? सुनते हैं, बुढ़ापे में नींद नहीं आती या बहुत कम आती है। आधी रात से बिस्तर पर करवटें बदलते लगते हैं। तीन-चार बजे बिस्तर से उठ जाते हैं और घर भर की नींद में खलल डालने के लिए ताने सुनते हैं।    

बाऊजी को ही हम कितना टोकते हैं!  कभी-कभी तो साढ़े तीन-चार बजे उठकर रसोई में आ जाते हैं। बर्तनों की खट-पट से निम्मी की नींद खुल जाती तो चिढ़कर बड़बड़ाती है- ये बाऊजी भी न खुद सोते हैं, न दूसरों को सोने देते हैं।” अपनी ओर से वे दबे पांव आते होंगे। पूरी कोशिश करते होंगे कि तनिक भी आहट न हो। तो भी कभी उनके हाथ से चम्मच गिर जाती है या बर्तन टकरा जाते हैं। सुबह के नीरव सन्नाटे में तनिक-सी खन-मन भी बहुत जोर से गूंजती है।

ओफ्फो,” निम्मी गुस्सा करती है- “मना करो यार इनको।” चिढ़ मैं भी जाता हूं। सुबह-सुबह की प्यारी नींद में यह खट-पट, झन्न-टन्न सिर में हथौड़े जैसी पड़ती है।

बाऊजी, प्लीज!एक तड़के सिर में ऐसा ही झन्नाटेदार हथौड़ा पड़ने पर रसोई में जाकर उन्हें टोक दिया था। स्टील का गिलास रसोई की फर्श पर गिरकर झन्न-झन्न करता लुढ़कता चला गया था। बाबू जी वैसे ही अपराध-बोध से सहमे खड़े थे। मुझे घूरता पाकर उनकी आंखों में कैसी लाचारी डबडबा आई थी। घनी सफेद भौंहों वाली पलकों के भीतर असहायता और क्षमा-याचना से भरी वे आंखें! मन ही मन ‘‘सॉरी बेटे’‘ भी कहा था शायद। लेकिन नींद और झल्लाहट से भरी मेरी आंखों ने उस समय कुछ देखा ही कहां था। मैं भनभनाता वापस आकर चादर ओढ़कर सो गया था। आज लाचारी और माफीनामे से भरी उनकी वे आंखें याद आ रही हैं। खुद ही फर्श का पानी पोछा होगा। बेचारे! अस्सी बरस के हो रहे हैं। नींद बहुत ज़ल्दी खुल जाती होगी। चाय की तलब लगती होगी। उन्हें उठते ही गरम पानी पीने की आदत है। मां कई वर्ष पहले साथ छोड़ गई। हमारे साथ हैं लेकिन जैसे एकदम अकेले। बुढ़ापे और अकेलेपन की उनकी समस्या अब कुछ-कुछ समझ में आ रही है।

निम्मी ने उस शाम को पूछा था- “तुमने सुबह बाऊजी को क्या कह दिया था?”

“कुछ तो नहीं।”

“आज इलेक्ट्रिक केटल ले आए हैं।” उसने बताया।

“ठीक तो है, उन्हीं को आसानी होगी।”

“लेकिन उसका प्लग बड़ा है, पावर वाला । उनके कमरे में कोई पावर सॉकेट नहीं है। मुझे दिखा रहे थे कि शायद मैं गलत केतली ले आया। बिजली वाले को बुलवा के एक बड़ा सॉकेट लगवा देना।” मैंने अनसुनी कर दी थी। वास्तव में, मुझे यह उनकी हेठी लगी थी, जैसे मुझे जवाब देने के लिए ही इलेक्ट्रिक केटल लाए हों। फिर दो-तीन दिन बाद निम्मी ने ही बताया था कि वापस कर आए हैं। मैंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी थी।    

आज मुझे यह सब क्यों याद आ रहा है? तब मुझे अपने व्यवहार में कुछ भी गलत नहीं लगा था। आज क्यों लग रहा है कि बाऊजी के साथ ज्यादती हो रही है? बिजली मिस्त्री को बुलाकर उनके कमरे में पावर सॉकेट लगवा देना चाहिए था। एक अच्छा थर्मस ही उनके लिए ले आता जिसमें सुबह तक पानी खूब गर्म रहता। आज क्यों लगने लगा है कि ऐसा करना चाहिए था? मैं बूढ़ा हो गया हूं, इसलिए? इसीलिए नींद भी कम आने लगी है? नहीं-नहीं, अभी ऐसी उम्र कहां हुई? रिटायर हुए दो साल ही हुए हैं। बाऊजी के साथ ऐसा कब से शुरू हुआ? कुछ याद नहीं लेकिन इतनी ज़ल्दी नहीं हुआ होगा। मां जब तक जीवित रही, पांच-साढ़े पांच बजे से पहले नहीं उठती थी। वही बाऊजी को गरम पानी और चाय देती थी। उन्हें कभी रसोई में खुद आने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी। मां कभी-कभार की अपनी मौसमी तकलीफों के बावजूद बाऊजी का पूरा ध्यान रखती थी। पता नहीं उसे क्या हुआ। अच्छी-भली थी। एक दोपहर कुछ घबराहट हुई, बोलते-बोलते जुबान ऐंठने लगी और अचानक लुढ़क गईं। निम्मी ने दफ्तर फोन किया तो भागा-भागा आया था। अस्पताल ले गया तो डॉक्टर ने कहा कि बहुत देर हो चुकी है। बाऊजी लाचारी से कहते रहे थे कि – “बहुत धोखा दे गई कांता। इतना मौका तो देती कि अस्पताल ले जा सकें। इतना बड़ा शहर था, बड़े-बड़े अस्पताल थे, नामी डॉक्टर थे। कुछ दवा-पानी हो जाती तो बच जाती।” मां की मौत के बाद उनके लिए सब थाहो गया।  

मां रहती तो बाऊजी इस उम्र में इतने अकेले और लाचार न होते। क्या मां के जाने से ही बाऊजी इतने असहाय हुए?  वैसे तो बाऊजी मां को कुछ समझते ही नहीं थे। कभी सीधे मुंह बात भी नहीं करते थे।

कांता, तुम्हारी चाय क्या लंडन से बन कर आ रही?”

कांता, ये पानी पीने के लिए गरम किया या मेरा मुंह जलाने के लिए?”

‘‘कितना घी लगा दिया रोटी में! क्या चाहती हो, मुझे हार्ट अटैक आ जाए?’‘

‘‘कांता! ... कांता! ... कांता!हर वक्त जुबान पर मां का नाम लेकिन कभी प्यार से नहीं। हर समय तीखा, कड़वा, कोसता, गरियाता हुआ स्वर। और मां? कभी हँस देती, कभी झुंझला पड़ती, कभी नाराज़गी दिखाते हुए कह देती थी- “ज़िंदगी गुज़र गई, आपको मेरा किया कुछ पसंद आया कभी?” कभी वह चुपचाप आंसू पोछती भी दिख जाती थी लेकिन बाऊजी का मन मुताबिक करती रहती।

“मां से कितना बुरा बोलते हैं बाऊजी।” निम्मी कभी-कभी कहती थी। अपनी सास से उसे सहानुभूति हो आती।

“मत रोओ, मां। बाऊजी तो बोलते ही ऐसे हैं,” वह मां के कंधे पर हाथ रख देती।

मां डबडबाई आंखों से मुस्करा देती- “हां, मुझसे अच्छी तरह कौन जानता है बहू!”

मर जाऊंगी न, तब याद करेंगे।बाऊजी के तानों और गुस्से से बहुत आहत हो जाने पर एक बार सुना था मां को कहते हुए। बाऊजी ने पता नहीं क्या कहा था, हमें सुनाई नहीं दिया था। कुछ कहा भी था या निचला होंठ दाईं तरफ तनिक सरका कर मुस्करा दिए थे, जो वास्तव में उपेक्षा करना ही होता था। हम बचपन से देखते थे उन्हें इस मुद्रा में, जब कोई बात अनसुनी करनी हो।

मां की बरसी पर मुरादाबाद से ताऊ-ताई जी आए थे। बाऊजी ने पण्डित को मां की पसंद के कपड़े, बर्तन, सोना और दान-दक्षिणा देने में खुले हाथ खर्च किया था। ताई जी ने खुश होकर कहा था- आपने कांता की आत्मा तृप्त कर दी। खूब खुश होगी वह।”

बाऊजी ने बड़े भावुक होकर कहा था- जीते जी तो उसने कभी कुछ मांगा ही नहीं। मेरे हाथ से कभी एक गिलास पानी भी नहीं पीया।”

मां के सामने पानी का गिलास लिए खड़े बाऊजी की छवि बन ही नहीं पाती। सारी छवियां मां की हैं जो बाऊजी के सामने कुछ न कुछ परोसती, निवेदन करतीं या गिड़गिड़ाती प्रस्तुत हैं। उन छवियों में बाऊजी की चढ़ी हुई भृकुटियां या तना हुआ चेहरा या टेढ़ा हुआ निचला होंठ है, बस।

मां पूरी तरह स्वस्थ और फिट रहीं। करीब साठ साल की उम्र रही होगी जब वे अचानक चली गईं। अब लगता है कि पूरी तरह स्वस्थ तो नहीं रही होंगी। अंदर ही अंदर दिल की बीमारी गम्भीर होती गई होगी लेकिन कभी पता नहीं चला या उन्होंने ही पता नहीं चलने दिया। रसोई पर उनका कब्जा जैसा रहता। बाऊजी को खिला-पिला लेने तक वे रसोई से हटती नहीं थीं। सुबह हमारे उठने की आहट पाकर या टाइम देखकर वह हमारे लिए भी चाय बना देतीं। “चाय बन गई,” किचन से उनकी तीखी आवाज आती। निम्मी नाइट गाउन में बेडरूम से निकल कर उनके सामने नहीं जाती थी। तैयार न हो तो उसे जाने में देर हो जाती। तब मां की चिढ़ भरी पुकार आती थी- चाय ठंडी हो रही।” स्वर का टोन बता देता था कि वह बहू को सुनाया गया है। निम्मी बाथरूम में होती तो मैं ही चादर फेंककर चाय लेने चला जाता, हालांकि ऐसा कभी-कभी ही होता था।    

वो क्यों नहीं ले जाती?” मां बुरी तरह टोक देती थीं। मां का चेहरा और स्वर बता देता था कि उन्हें यह कतई पसंद नहीं। मां के रहते बाऊजी ने शायद ही कभी किचन से चाय का कप उठाया हो। नाश्ता या खाना खुद ले लेने का तो सवाल ही नहीं। वह उनकी सेवा में तैनात रहतीं। गुस्सा भी जतातीं लेकिन सेवा भाव में कोई कमी कभी नहीं आ सकती थी।

अब बाऊजी को कई बार अपने लिए खाना भी खुद ही निकालना पड़ता है। हम कहीं जाते हैं, किसी शादी में या कहीं और तो निम्मी कह जाती है- “बाऊजी, खाना तैयार है, आप ले लीजिएगा। फ्रिज में दही रखा है, सब्जी गरम कर लीजिएगा।”

“हां-हां, तुम लोग जाओ।” वे कह देते हैं। कम ही होता है लेकिन कभी हमें शाम को लौटने में देर हो जाती है, रास्ते में कुछ जरूरी काम हुआ या ऐसा ही कुछ तो बाऊजी का खाने का टाइम निकल जाता है। बरसों से वे आठ-साढ़े आठ बजे खाते आए हैं। मां के रहते वे दस मिनट की देरी भी बर्दाश्त नहीं करते थे, हंगामा मचा देते। रसोई में निम्मी की हड़बड़ी देखकर कहते हैं- “कोई बात नहीं बहू।उनके स्वर में नाराजगी का कोई पुट नहीं होता। तो भी एक दिन मैंने कह दिया था- “नौ ही तो बजा है, कौन बहुत देर हो गई!निम्मी ने आंखें चढ़ाकर मुझे घुड़का था। बाऊजी चुपचाप अपने कमरे में चले गए थे।

मुझसे कोई ऐसा कह देगा तो? अगर निम्मी मुझसे पहले चली गई तो?

छी, ऐसे ख्याल क्यों आने लगे हैं, वह भी सुबह-सुबह? पहले तो कभी ऐसा नहीं होता था। कभी नींद उचट गई या ज़ल्दी खुल गई तो दफ्तर के काम याद आते थे, बच्चों के बारे में सोचने लगता था या ऐसा ही कुछ। सोचते-सोचते पता नहीं फिर कब नींद आ जाती थी। ऐसे बुरे विचार पास फटकते भी न थे। अब क्या हो गया है? उम्र का असर है क्या? ऐसी क्या उम्र हुई है अभी!  

निम्मी मुझसे तीन साल छोटी है। देखो, कितनी प्यारी, गहरी नींद सो रही है। चेहरे पर कितनी शांति है! कोई तनाव या शिकन नहीं। सपना देख रही होती तो भी चेहरे पर कुछ लक्षण अवश्य दिखते। कुछ आनंददायक या परेशानी के लक्षण। कहते हैं सपनाविहीन नींद सबसे अच्छी और सुकून भरी होती है। स्वास्थ्यदायक भी। नींद आने के बाद वह मुश्किल से ही कभी करवट लेती है। मैं नींद में भी बेचैन रहने लगा हूं शायद। कहती तो है कि कितना उलटने-पुलटते हैं आप। नींद में हाथ-पैर पटकते हैं। सारी चादर लपेट लेते हैं।” कभी झुंझला कर दूसरी चादर निकाल लेती है और ओढ़कर फिर गहरी नींद में चली जाती है। मैं हूं कि छत को ताकता जा रहा हूं जो नाइट लैम्प की मद्धिम रोशनी में रंगमंच के धुंधले पर्दे-सा लग रहा है।

क्या डॉक्टर के पास जाना चाहिए? वह नींद की दवा लिख देगा। दवा की लत और लग जाएगी। मंजुल कहता है- “पापा, अब आप दोनों को खूब घूमना चाहिए। यूरोप हो आइए। सिंगापुर-बैंकॉक चले जाइए। मैं टिकट करा देता हूं। दक्षिण भारत की तरफ ही घूम आइए।” बीनू फोन पर हर बार कहती है- “पापा, कुछ दिन के लिए मम्मी को लेकर हमारे पास बंगलूर आ जाइए।” ठीक तो कहते हैं बच्चे। निम्मी से कहता भी था कि रिटायरमेंट के बाद खूब घूमा करेंगे। दो साल होने वाले हैं, सोचते ही रह गए। सुंदर और परेश पिछले साल सपरिवार अंडमान गए थे। प्लेन से गए, वहां मोटर बोट से द्वीपों पर घूमे, स्कूबा-डाइविंग की। कितने खुश होकर लौटे थे। हमें भी जाना चाहिए लेकिन बाऊजी को छोड़कर कैसे जाएंगे? बाऊजी के कारण ही हम एल टी ए के लिए छुट्टी लेकर भी घर में ही रहने को मजबूर थे और फर्जी बिल बनवाने के लिए पैसा खर्च करते थे। साफ-साफ कहते नहीं थे लेकिन तब लगता ही था कि बाऊजी बड़ा बंधन हैं, उन्हें अकेले घर में छोड़कर हफ्ते-दस दिन के लिए बाहर कैसे जाएं। आज तड़के बिस्तर में करवटें बदलते हुए सोच रहा हूं कि तब बाऊजी को भी साथ ले चलने की बात दिमाग में क्यों नहीं आती होगी? बच्चे जब छोटे थे तो बाजार जाने पर भी दादू को साथ ले चलने की जिद करते थे। उन्होंने जरूर कहा होगा, उनके सामने कभी इस समस्या पर चर्चा हुई ही होगी, कि दादू को भी घुमाने ले चलो न। हमने इस बात पर गौर क्यों नहीं किया होगा? शहर में कहीं जाने पर तो बच्चों के साथ उन्हें स्कूटर में नहीं ले जाया जा सकता था लेकिन ट्रेन और बस से ले जाने में क्या समस्या थी? बाऊजी ने कभी यह नहीं जताया कि उन्हें भी कहीं बाहर ले जाया जाए लेकिन क्या वे मन ही मन सोचते न होंगे? मां तो साफ कह देती थी कि अलाना अपने मां-बाप को द्वारिका घुमा लाया या फलाना पूरे परिवार को गंगासागर ले गया था। वह तो खैर, बहुत पहले ही इन तमन्नाओं से मुक्त हो गई लेकिन बाऊजी? क्या वे निरे संत हैं, समस्त इच्छाओं-कामनाओं से परे? बूढ़े होने पर ही यह बात समझ क्यों आ रही है? क्या मैं सचमुच बूढ़ा हो गया हूं? क्या मैं धीरे-धीरे बाऊजी की तरह हो रहा हूं? क्या जब मंजुल भी जब बाल-बच्चों में मस्त हो जाएगा तो मेरे और निम्मी के बारे में सोचना भूल जाएगा?          

दोबारा सो पाने की कोशिश में करवटें बदलते हुए मौत के ख्याल ही सबसे ज़्यादा आते हैं। अपनी मृत्यु के, निम्मी की मौत के। निम्मी मर गई तो मैं कैसे और कितना रोऊंगा? मर्दों को फूट-फूट कर रोते नहीं देखा। मां की मौत पर बाऊजी कहां रोए थे! एक बार मां के सिर पर हाथ रखा, चुपचाप कुछ पल खड़े रहे और फिर दूर पड़ी कुर्सी पर जा बैठे थे। जो भी उनके पास आता, अफसोस, दु:ख और आश्चर्य व्यक्त करता तो असहायता में हाथ और गर्दन हिला देते। उनके चेहरे पर शोक की कोई गहरी छाया नहीं दिखी थी, जैसे कि उन्हें पता था कि ऐसा होगा। क्या वे मां की मौत के लिए तैयार थे? मां में बीमारी का कोई लक्षण तो था ही नहीं। फिर? क्या पुरुषों को रोना नहीं आता? महिलाएं ही दहाड़ मारकर, पछाड़ खाकर क्यों रोती हैं? यह स्वाभाविक होता है? निम्मी के मरने पर मैं रो पाऊंगा? क्यों नहीं रोऊंगा, मैं उससे लिपट जाऊंगा, कहूंगा कि तुम ऐसे मुझे छोड़कर नहीं जा सकती। लोग क्या कहेंगे मुझे ऐसे रोते देखकर? क्या महिलाएं सोचेंगी कि बेचारा, कितना चाहता था अपनी पत्नी को? बहुत दिनों तक इसकी चर्चा होती रहेगी। या, क्या लोगों को मौका दूंगा कहने का कि सिन्हा जी ने अपने को बहुत सम्भाल रखा है? कहीं महिलाएं यह न कहने लगें कि बंदे ने एक भी आंसू नहीं बहाया। मर्द होते ही ऐसे निर्मोही हैं। बीवियां ही हैं जो पतियों पर प्राण न्योछावर किए रहती हैं। क्या बाऊजी के लिए किसी ने ऐसा कहा था?

और, अगर किसी सुबह मेरी ही आंख न खुले? मरा मिलूं बिस्तर में, जैसे पड़ोस के नंदू गोयल के साथ हुआ था। रात में अच्छा-भला सोया था। सुबह बीवी ने जगाया तो बिल्कुल ठंडा मिला। एक करवट पड़ा था, जैसे कि आराम से सोया हो। नींद में ही जाने कब सांस रुक गई। डॉक्टर ने बताया था कि पांच-छह घण्टे तो हो ही गए होंगे। मतलब कि उसकी बीवी लाश के साथ सोई रही रात भर! हे भगवान! निम्मी कितना रोएगी मेरे न उठने पर, जब डॉक्टर कह देगा कि नींद में ही हार्ट फेल हो गया? बेहोश ही न हो जाए! बच्चे भी साथ में नहीं। वह मंजुल और बीनू को कैसे खबर देगी? बता भी पाएगी? सबसे पहले किसे बुलाएगी? या, उसका चीखना, दहाड़ मारना सुनकर पड़ोसी आ जाएंगे? मंजुल को मुंबई से और बीनू को बंगूलर से आने तक शाम हो ही जाएगी। दिन भर लाश के पास बैठी रोती रहेगी निम्मी! ... ओ हो, ये सब में क्या सोच रहा हूं? क्यों ऐसा सोचने लगा हूं? मौत के ख्याल क्यों आ रहे हैं आजकल? क्या यह किसी बीमारी का लक्षण है? या उम्र का? बूढ़ा होते समय ऐसा होता है क्या? … परेश ठीक कहता है कि बैंक अकाउण्ट, एफ डी, वगैरह में भाभी का नाम जॉइंट करा दो या नॉमिनी में डलवा दो। कभी नंदू की तरह अचानक कुछ हो गया तो दौड़ती फिरेंगी। नंदू की वाइफ को सौ जगह दौड़ना पड़ा। परेश बैंक में है तो उसने काफी मदद की। आज ही बैंक जाकर निम्मी का नाम जुड़वाना होगा।        

किचन की लाइट जल गई है। साढ़े चार बज रहा है। बाऊजी आए होंगे। बिना आहट किए पानी गरम करेंगे। फिर उसी बर्तन में चाय बनाएंगे। पूरी कोशिश करेंगे कि कतई कोई आवाज न हो। निम्मी बता रही थी कि अब वे रात से ही चाय के बर्तन में पानी डालकर चूल्हे पर चढ़ा देते हैं। सुबह सिर्फ गैस जलानी होती है। इतनी अतिरिक्त सतर्कता में कुछ न कुछ गड़बड़ हो ही जाती है। किट-किट-किट से पता चल रहा है कि लाइटर ही उन्हें तीन-चार बार जलाना पड़ गया है। बेचारे!  क्या मैं भी उठ जाऊं? पानी गरम कर दूं उनके लिए और बाहर घूमने निकल जाऊं? नींद तो आनी नहीं। खाली पड़े-पड़े ऊलजलूल सोच रहा हूं। नहीं, उस तरफ गया तो बाऊजी मुझे आया देखकर सहमे से खड़े रह जाएंगे। उन्हें लगेगा कि उन्होंने मेरी नींद खराब कर दी है। अपराध-बोध से भरे बाऊजी का चेहरा मुझे भी अपराध-बोध से भर देगा। ... किचन की लाइट बंद हो गई है। बाऊजी धीरे-धीरे अपने कमरे की ओर जा रहे होंगे। एक हाथ में पानी और दूसरे में चाय होगी। गिलास में ही चाय पीते हैं। रास्ते में डाइनिंग टेबल से टकरा न जाएं! बहुत ध्यान से धीरे-धीरे चल रहे होंगे। उनके दिमाग में क्या चल रहा होगा, कैसे ख्याल आ रहे होंगे? क्या वे इस समय रोज मां को याद करते होंगे? या, सोचते हों कि बेटा-बहू ही सुबह उठकर इतना कर देते? ऐसी अपेक्षा क्या बिल्कुल अनुचित है?   

पानी और चाय पीकर वे बाथरूम जाएंगे। फिर कमरे की खिड़की के पास बैठकर प्राणायाम करेंगे। अब वे घूमने नहीं जाते। पहले साढ़े पांच बजे बिना नागा निकल जाते थे। कोविड काल ने सब उलटा-पुलटा कर दिया। बाऊजी के दो पक्के दोस्त थे कॉलोनी में, शर्मा जी और सिद्दीकी साहब। तीनों सुबह-शाम घूमते और पार्क में बैठकर गप्पें मारते। तीनों विधुर आपस में सुख-दुख साझा करते। अक्सर दिन में भी एक-दूसरे के यहां चले जाते और बैठे रहते। कोई उलझन या परेशानी में देर तक धीरे-धीरे बातें करते रहते थे। उन्हें एक-दूसरे के बारे में सब कुछ पता रहता था, घर की अंदरूनी बातें भी, जिन्हें वे किसी और से कभी नहीं कहते थे। वर्ना ऐसी बातें फैलते क्या देर लगती है! उनके ठहाके भी सुनाई देते थे। सबसे ऊंची आवाज में बाऊजी हँसते थे। कितना अरसा हुआ बाऊजी को हँसते नहीं देखा। लगता है वे हँसना ही भूल गए। किसके साथ दिल खोलकर बातें करें!

कोरोना के डेल्टा वैरिएण्ट ने बड़ा कहर ढाया। बाऊजी के दोनों दोस्त जाते रहे। शर्मा जी को अस्पताल में जगह तो मिल गई थी लेकिन शायद वही उनके लिए जानलेवा हुआ। बाऊजी पहले से डर रहे थे- “अस्पताल से ज़िंदा लौटना मुश्किल है! वहां दवा, खाना, पानी को भी कौन पूछ रहा! न मरने वाला भी मर जाए।” अखबार दिल दहला देने वाली खबरों से भरे रहते थे। सिद्दीकी साहब भी जब पॉजिटिव निकले तो बाऊजी सुबह-शाम फोन करके कहते थे- “खबरदार सिद्दीकी, अस्पताल न जाना। घर में ही मैनेज करो। उलटा लेटो, प्राणायाम करो... देखो, कहीं से ऑक्सीजन मिल जाए तो।” बाऊजी की चिंता और तड़प उनके चेहरे पर साफ दिखाई दी थी जब उन्होंने मुझसे कहा था- “तुम्हारा कोई जानने वाला है जो एक सिलेंडर का इंतज़ाम कर सके?” वे सिद्दीकी साहब के लिए बहुत चिंतित थे वर्ना मुझसे किसी चीज के लिए कहते ही कहां थे। मैंने कई जगह फोन किए लेकिन हर ओर से निराशा हाथ लगी। हम सब बहुत डरे हुए थे। इसलिए भी सोचा था कि ऑक्सीजन के एक सिलेण्डर का जुगाड़ हो जाए तो इमरजेंसी में काम आएगा। सारी कोशिशें बेकार गईं। सिद्दीकी साहब का पूरा परिवार बीमार पड़ा था। बाऊजी ने निम्मी से बनवाकर तीन-चार दिन खाना और सूप भिजवाया, दवाएं भिजवाईं। परिवार में बाकी लोग बच गए लेकिन सिद्दीकी साहब नहीं बच सके। बाऊजी उस दिन बहुत देर तक अपने गेट से उनके घर की तरफ झांकते रहे थे, जो मकानों की उसी सीधी कतार में होने से दिख भी नहीं रहा था। गेट के ऊपर झूलते हुए उधर झांकने की कोशिश भी उन्होंने की थी। तब हमने उन्हें लगभग डांटकर अंदर भेजा। अपने कमरे में आकर भी उन्होंने मास्क नहीं उतारा था। संक्रमण बचाने से अधिक वह चेहरे के भाव छिपाने के काम आ रहा होगा। दो-तीन दिन उनसे खाना नहीं खाया गया। बिल्कुल मुरझा गए थे। तब से उनका चेहरा मुरझाया ही रह गया है। इस वय में भी उनके मुख पर कुछ चमक रहती थी, जो दोस्तों के साथ होने पर खिल उठती थी। अब वे बिल्कुल अकेले हैं, मित्रविहीन। अकेले घूमने नहीं जाते। एकाध बार निकले तो लेकिन तुरंत लौट भी आए।

बाऊजी को देखकर लगता है कि दोस्त होने बहुत जरूरी हैं- अंतरंग मित्र, जिनसे सब कुछ कह सको, झगड़ा कर सको, हँस सको, रो सको। क्या मेरी यही समस्या है? दोस्त तो हैं लेकिन वैसे करीबी नहीं, जैसे बाऊजी के थे। मेरे ऐसे मित्र क्यों नहीं बने होंगे? शायद कुछ कमी मुझमें ही है। मैं तो निम्मी से भी सारी बातें नहीं कह पाता। खुलकर हँस-बोल नहीं पाता। वह कितनी खुली है, जरा-जरा-सी बात पर हँसेगी, मजाक करेगी, बुरा लगा कुछ तो फट से रो देगी। अभी-अभी गुस्सा और तत्काल खुश। कहती भी है मुझसे कि तुम घुन्ने हो, मन में ही सब रखे रहते हो। अब यही देखो, इतनी बातें पड़े-पड़े सोच रहा हूं, उसको कुछ बता नहीं पाऊंगा। चुप रहने, मन की बातें बाहर न निकालने का ही परिणाम है कि नींद आना कम होता जा रहा है। वर्ना बासठ साल में कोई बूढ़ा होता है!

अरे, लगता है बाऊजी के कमरे में कुछ गिरा है। गिलास लुढ़कने की आवाज। शायद उनकी चाय गिर गई। पानी तो पी चुके होंगे। निम्मी बढ़िया सो रही है। मैं चलकर देखता हूं।                  

पूरे फर्श में चाय फैली हुई है। खाली गिलास उठाते-उठाते बाऊजी मुझे देखकर सहमे हुए आधे झुके खड़े रह गए हैं। आंखों से क्षमा-याचना टपक रही है। बड़ा अपराध हो गया है जैसे। चाय फैलकर उनकी चप्पलों में लिथड़ रही है लेकिन वे अपराधी-से मुझे देखे जा रहे हैं। मैं दौड़कर किचन से पोछे का कपड़ा लाता हूं और फर्श पोछने लगता हूं।

“मैंने तुम्हें डिस्टर्ब कर दिया!” उनकी क्षीण आवाज निकलती है, माफीनामे जैसी।

“लाइए, गिलास मुझे दीजिए। मैं बना देता हूं चाय।” पोछा एक किनारे रखकर मैं भरसक मुलायमियत से कहता हूं।

 “पता नहीं कैसे हाथ लग गया, गिलास रखा तो दूर था।” इस बार उनकी आवाज कुछ साफ है। उन्हें मुझसे कुछ और शंका रही होगी।

“कोई बात नहीं, मैं बना दूंगा। गरम पानी तो और नहीं चाहिए?

“तुम सो जाओ, मैं बना लूंगा।” अब वे कुछ आश्वस्त हैं। चप्पलें हाथ में लेकर बाथरूम गए और उन्हें धो लाए- “जाओ, सो जाओ, नींद आ रही होगी।” हाथ पोछते हुए उन्होंने फिर कहा।

“मैं जगा था। नींद नहीं आती आजकल।”

उनका चौंकना दिखाई दिया है- “क्या बात? तबीयत तो ठीक है? नींद क्यों नहीं आती?

“मतलब, सुबह बहुत जल्दी खुल जाती है।” मैं सफाई देता हूं।

“अरे, तो घूमने निकल जाया करो। दिन में कुछ देर सो लिया करो। कोई ऑफिस जाना तो है नहीं।” उनकी आवाज में पुरानी खनक आ गई- “सुबह घूमने से दिन भर ताजगी रहती है।”

मेरे पीछे-पीछे वे किचन में आ गए हैं। अभ्यस्त हाथों से उन्होंने चाय का बर्तन चूल्हे पर चढ़ा दिया। मैं लाइटर उठाकर गैस जला देता हूं। बर्तन में दो कप पानी डालता हूं। वे धीरे से कहते हैं- “तुम अपनी सेहत का ध्यान नहीं रखते। अभी से बूढ़े लगने लगे हो।” उनके मुंह से अपने लिए बूढ़ा सुनकर मेरे चेहरे पर हँसी खेलने लगी है। चेहरा दूसरी ओर घुमाकर कहता हूं-

“आप चलिए, मैं चाय लेकर आता हूं।” वे अपने कमरे की तरफ मुड़ गए हैं। मैं उन्हें देखता हूं। उनकी पीठ सीधी है और चाल बता रही है कि चेहरे पर चमक लौट रही है। क्या उन्हें मां की याद आ गई या अपने दिवंगत मित्रों की?

एक ट्रे में उनके लिए गिलास और अपने लिए कप में चाय लेकर उनके कमरे की ओर जाते हुए मुझे लग रहा है कि बूढ़ा होना और नींद जल्दी खुल जाना कोई चिंताजनक बात नहीं।  

-न जो

...

- परिकथा, सितम्बर-दिसम्बर-2023 में प्रकाशित कहानी

 

        

 

 

   

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