Tuesday, February 06, 2024

उत्तराखण्ड में सुरंगें बनाने में गम्भीर लापरवाहियां जारी

उत्तराखण्ड विधान सभा में समान नागरिक संहिता विधेयक पेश होने और उसके शीघ्र पारित होने के बाद कानून बन जाने की सम्भावना के 'जोश' एवं 'उत्साह' में (आजकल ऐसी ही ऋतु चल रही है) जनता सिल्क्यारा सुरंग हादसे को भूल जाएगी। वैसे भी, अब तक वह अत्यंत गम्भीर मुद्दा चर्चा से बाहर हो चुका है। उत्तराखण्ड की संवेदनशील पहाड़ियां काफी समय से बड़े बांधों और सुरंगों से आक्रान्त हैं। कहीं बारामासी चार धाम रोड परियोजना के लिए तो कहीं ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेलवे लाइन और कहीं बांधों के लिए सुरंगें बनाई जा रही हैं। सिल्क्यारा जैसे हादसे कई जगह सिर पर मंडरा रहे हैं। युवा पर्यावरण पत्रकार और गम्भीर अध्येता कविता उपाध्याय ने उत्तराखण्ड के ऐसे क्षेत्रों का दौरा करके एक विस्तृत खोजपूर्ण रिपोर्ट तैयार की है जो चंद रोज पहले thethirdpole.net में प्रकाशित हुई है। 

कविता कई विशेषज्ञों से बात करके तथ्यों-प्रमाणों के साथ लिखती हैं कि सिल्क्यारा एक ऐसा हादसा था जिसकी चर्चा अंतराष्ट्रीय स्तर पर हो गई, वर्ना उत्तराखंड में तो कई हादसे हो चुके हैं और कई सिर पर मंडरा रहे हैं क्योंकि सुरंगों के निर्माण के जो मानक हैं, उनकी घोर उपेक्षा की जा रही है। सरकार सिर्फ काम निपटाने की ज़ल्दबाजी में है। निर्माण में लगी कम्पनियां खर्च तथा समय बचाने के लिए आवश्यक सावधानियों का ही नहीं, भू-तकनीकी व भूगर्भीय चेतावनियों की भी अनदेखी किए जा रही हैं। यह तथ्य तो पहले ही सामने आ चुका है कि सिल्क्यारा-बारकोट सुरंग बनाने में सुरंग के समानांतर एक वैकल्पिक बचाव मार्ग का निर्माण नहीं किया गया, जो आवश्यक था और जिसका प्रावधान भी था लेकिन खर्च और समय बचाने के लिए इसे नहीं बनाया गया। इसकी पुष्टि कई विशेषज्ञों ने की है। अगर यह बनाया गया होता तो 41 मजदूरों को 17 दिनों तक मौत से लड़ना नहीं पड़ता। 'रैट होल माइनर्स' ने उन्हें अंतत: बचा लिया और इस वाहवाही में सुरंग निर्माण में बरती गई गम्भीर लापरवाहियां दबा दी गईं। 

कविता उपाध्याय की ताज़ा रिपोर्ट एक विशेषज्ञ के हवाले से दावा करती है कि सिल्क्यारा-बारकोट सुरंग निर्माण के लिए पूरे मार्ग पर मात्र तीन जगह छेद करके मिटी और चट्टानों की भूतकनीकी जांच करने की औपचारिकता निभा ली गई, जबकि 4.53 किमी सुरंग निर्माण के लिए सिर्फ तीन जगह जांच करना नितांत अपर्याप्त और अस्वीकार्य है क्योंकि हिमालयी क्षेत्र में मिट्टी और चट्टानों की प्रकृति थोड़ी-थोड़ी दूरी पर बदल जाती है। भारत के हिमालयी क्षेत्र में सुरंग निर्माण की नौ परियोजनाओं का जो अध्ययन 2022 में किया गया था वह बताता है कि इस काम में बहुत सी जटिल भूगर्भीय और भूतकनीकी चुनौतियों होती हैं। यही नहीं, सिलक्यारा-बारकोट सुरंग के निर्माण में पर्यावरण मूल्यांकन की अनिवार्यता को भी टाल दिया गया। पहाड़ों में 100 किमी से अधिक लम्बी सड़क के निर्माण के लिए सख्त पर्यावरण मानक हैं लेकिन इस शर्त से बचने के लिए पूरे चार धाम मार्ग (करीब नौ सौ किमी) को 53 छोटे-छोटे हिस्सों में बांट दिया गया। 

इस तथ्य और चेतावनी की उपेक्षा की गई कि उत्तराखण्ड में सुरंगों में कई हादसे हो चुके हैं। 2007 में जे पी ग्रुप की विष्णुप्रयाग जल विद्युत परियोजना की सुरंग में रिसाव हो गया था। 12 परिवारों को अन्यत्र बसाना पड़ा था। ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल लाइन के निर्माण में कई जगह सुरंगें बन रही हैं। 2016 में इसकी एक सुरंग के कारण स्वीठ गांव के कई घरों में दरारें पड़ गईं। 2021 में उत्तराखण्ड सरकार के भूगर्म एवं खनन विभाग ने एक सर्वेक्षण में गांव के 224 घरों को नुकसान होना पाया था। एक और गांव मरोदा में भी कई घरों को नुकसान हुआ था। 7 फरवरी 2021 को ऋषिगंगा और धौलीगंगा में आई भयानक बाढ़ से जो कम से कम 204 लोग मरे थे उनमें तपोवन-विष्णुगाड़ जल विद्युत परियोजना की सुरंग में मलबे में फंसकर मरने वाले 37 श्रमिक भी शामिल थे। जोशीमठ शहर में पिछले वर्ष आई बड़ी-बड़ी दरारें सुरंगों के निर्माण में विस्फोट करने का ही परिणाम हैं, हालांकि अधिकारी इसे स्वीकार नहीं करते। जोशीमठ से करीब एक किमी दूर सुरंग बन रही है जिसके लिए गुपचुप विस्फोट किए जाते हैं। 

विशेषज्ञों के अनुसार सड़कों के लिए पहाड़ काटने की बजाय सुरंगें बनाना अधिक सुरक्षित हो सकता है बशर्ते कि सभी मानकों, अनिवार्य स्वीकृतियों और सावधानियों का सख्ती से पालन किया जाए। उत्तराखण्ड में यही नहीं हो रहा। बल्कि राज्य सरकार परियोजनाओं को पूरा करने की ज़ल्दबाजी मे दिखाई देती है, जिसके लिए घातक लापरवाहियां की जा रही हैं।

कविता की पूरी रिपोर्ट इस लिंक पर पढ़ी जा सकती है-

https://www.thethirdpole.net/en/climate/as-norms-are-ignored-uttarakhand-faces-tunnelling-disasters/

- न जो, 7 फरवरी, 2024

 


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