युद्ध के समय, विशेष रूप से त्रस्त-पीड़ित समाज का साहित्य किस स्वर में बोलता है? उसकी अभिव्यक्तियां कैसी होती हैं? वह केवल देशभक्ति और ओज से परिपूर्ण लेखन करता है या मानवता के हित में विश्व के भविष्य की चिंता का राग छेड़ता और बेहतरी के सपने देखता है? इस सिलसिले में ‘घर लौटने का सपना’ (आज की फिलिस्तीनी कविता, चयन और सम्पादन- यादवेंद्र, नवारुण प्रकाशन) की कविताएं पढ़ते हुए युद्ध की विभीषिका से भीतर तक हिल जाने के बावजूद यह देखना आश्वस्ति देता है कि फिलिस्तीनी कविता का स्वर न आशा का दामन छोड़ता है, न सपने देखना और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह कि वह ‘नज्मों के बंदूक बन जाने’ के विरुद्ध है और इसके प्रति सतर्क है।
इस संग्रह में जो फिलिस्तीनी कवि शामिल हैं, उनमें कुछ अपनी धरती पर ही टिके हुए हैं और प्रतिरोध के लिए जेल भेजे गए, कुछ दुनिया के दूसरे देशों में जाकर बस गए, एक का बेटा इजराइली बमबारी में मारा गया तो एक कवयित्री हिला अबु नादा पिछले वर्ष अक्टूबर में इज्राइली बमबारी में शहीद हो गईं। इनमें महमूद दरवेश जैसे विश्व स्तर पर चर्चित रहे कवि भी शामिल हैं लेकिन अधिकतर नई पीढ़ी के हैं। सभी का हाल शरणार्थी जैसा है और सभी अपनी धरती से गहन और स्थाई रागात्मक रूप से जुड़े हैं। इन कवि-पीढ़ियों की स्मृतियों में सतत युद्ध झेलता समाज है, सड़कों पर बिछी बच्चों-स्त्रियों-युवकों की लाशें हैं, रक्तरंजित वीथियां हैं, चिड़ियों के कलरव की जगह बमवर्षक विमानों का गर्जन है, फूल के सपने देखते सैनिक हैं, मलबे में अपने बच्चों के जीवित होने का भ्रम पाले माताएं हैं और ध्वस्त घरों की दीवार पर भी उग आए गुलाब हैं। इनमें स्वाभाविक क्रोध है, बदले की भावना भी लेकिन उसका मूल स्वर उस नफरत का नहीं है जो उनके विरुद्ध भड़काई गई है। अहलाम बशारत की कविता ‘मैं सैनिकों को कैसे कत्ल करती हूं’ में इस स्वर को स्पष्ट सुना-समझा जा सकता है-
“अपने कातिलों के साथ बदला चुकाने का
मेरे पास कविता आसान उपाय था
पर मैं उन्हें बुढ़ाने दे रही हूं
उन्हें भी तो तजुर्बा हो
जीवन जब कुम्हला जाता है
तो कैसा लगता है
त्वचा में उनके भी झुर्रियां पड़ें
उनकी मुस्कराहट भी तो फीकी पड़े
उनके हथियार पर भी कूबड़ निकल आए”
या, ताहा मुहम्मद अली अपनी कविता ‘हमारा मरना’ में कहते हैं-
“पहली चीज जो सड़-गल कर नष्ट होनी शुरू होगी
हमारे अंदर की दुनिया में
वह होगी नफरत”
भयानक युद्ध, नरसंहार, विध्वंस और पलायन के बीच लिखी गई इन कविताओं में प्रेम है, बेहतरी की उम्मीद है और सुंदर कल का सपना है। मृत्यु के तांडव के बीच ये निराशा की कविताएं नहीं हैं, बल्कि इनमें अटूट विश्वास है और अंतहीन प्रेम है-
“मैंने कभी नहीं टांगी
अपने कंधों पर रायफल
या दबाया उसका घोड़ा
बस है मेरे पास बांसुरी की स्वर लहरी
एक ब्रश अपना सपना रंगने के लिए
स्याही से भरी एक दवात
बस है मेरे पास अगाध अडिग भरोसा
और अंतहीन प्रेम
विपदा के मारे अपने लोगों के लिए” (बस है मेरे पास)
1982 में जन्मी और एक कविता के कारण जेल भीजी गई दारेन तातूर की कविता देखिए-
“एक दिन उन्होंने मुझे पकड़ लिया
और बेड़ियों से जकड़ दिया
मेरी देह, मेरी रूह
मेरा सब कुछ उनकी गिरफ्त में
उन्होंने हुक्म दिया- इसकी तलाशी लो
हमें पक्का यकीन है यह आतंकी है
.... सो, उन्होंने मेरी बार-बार तलाशी ली
थक गए तो मुझ पर खीझते हुए बोले-
कुछ नहीं मिला सिवा चिट्ठियों के
एक कविता के अलावा
इसकी जेब में और कुछ नहीं था” (एक कविता को कैद करना)
लेकिन कविता का होना इन कवियों के लिए, जो फिलिस्तीनी जनता के मुखर प्रतिनिधि हैं, बहुत बड़ी ताकत और आशा का होना है। वह युद्धों, अत्याचारों, बमों और नरसंहारों के मुकाबले के लिए कारगर हथियार है। एक कविता का होना एक बीज का होना है। फव्वाज तुर्की इसी भरोसे ‘बीजों की रखवाली’ करते हैं-
“मैं तुम्हारी दरिंदगी से डरने वाला नहीं
मैं पूरे एहतियात के साथ बचा लूंगा
दरख्त का वह बीज
जो पीढ़ियों से हमारे पुरखों ने
खूब जतन से बचा रखा था
उस बीज को मैं फिर से रोप दूंगा
अपनी मातृभूमि की मिट्टी पर”
इन कविताओं का मार्मिक होना, और भावुक होना भी स्वाभाविक है। विस्थापन की पीड़ा है, घर न लौट पाने की कसक है और ऐसी सहज-स्वाभाविक मृत्यु की कामना भी है जिसमें ‘कमीज पर गोलियों से बने सूराख न हों’ और ‘साफ-सुथरे तकिया, गद्दे और दोस्तों से घिरे-घिरे’ मौत आ जाए, ‘हमारे हाथ गुंथे हों हमारे प्रिय हाथों के साथ’ (यह भी अच्छा है- मोरीद बरगूती)। फिलिस्तीन की धरती पर मौतें कितनी खौफनाक और वीभत्स होती हैं!
यादवेंद्र जी ने इन कविताओं का संकलन हिंदी पाठकों के लिए तैयार करके सराहनीय काम किया है। इनकी मार्फत सदियों से नेस्तनाबूद किए जा रहे एक समाज और संस्कृति के दिल की आवाज सुनी जा सकती है। इस आवाज को सुनना भी अब कम होता जा रहा है। अपनी टिप्पणी में यादवेंद्र जी ने जो एक बहुत जरूरी बात रेखांकित की है, उस पर गौर किया ही जाना चाहिए- “पहले जहां दुनिया के किसी भी हिस्से में आज़ादी और लोकतंत्र के लिए संघर्षरत जनता का पक्ष अपने लोगों के बीच रखने को हमारे बुद्धिजीवी अपनी नैतिक जिम्मेदारी मानते थे, अब समय और साधन के लाभ-हानि का ख्याल निर्णायक भूमिका निभा रहा है.... बदलते राजनय में फिलिस्तीन का स्थान इजराइल ने बड़े हास्यास्पद और विडम्बनापूर्वक बतौर विक्टिम ले लिया है और पश्चिमी तर्कों की तर्ज़ पर हमारी हुकूमत फिलिस्तीनी भूमि पर कब्जे के पिछले पूरे इतिहास पर मिट्टी डालकर हालिया घटनाओं को बमबारी और कत्लेआम का कारण बताकर जनमानस बदलने का अभियान चला रही है।” इस माहौल में यह संग्रह आवश्यक हस्तक्षेप है।
‘नवारुण प्रकाशन’ की विशेष रूप से सराहना इसलिए भी की जानी चाहिए कि पिछले ही वर्ष उसने रूस के हमले के बाद लिखी गई यूक्रेनी कविताओं का एक संकलन प्रकाशित किया था। निधीश त्यागी के संकलन और अनुवाद में प्रकाशित संकलन “इस जमीं पर बिखरे हुए हमारे सपने” भी “बहादुर लोगों की कविताएं हैं जो उन्हें नेस्तनाबूद करने की साजिश के बीच उनके होने, हुए होने और होते रहने की मुलायम निशानियां छोड़े जाती हैं।” (देखें- https://apne-morche-par.blogspot.com/2023/05/blog-post_25.html )
- - न जो, 5 फरवरी, 2024
(घर लौटने का सपना। चयन और अनुवाद- यादवेंद्र, नवारुण प्रकाशन, जनवरी 2024। मूल्य- 225/-। सम्पर्क- 9811577426
‘इस जमीं पर बिखरे हुए हमारे सपने। संकलन और अनुवाद- निधीश त्यागी। नवारुण प्रकाशन, मई 2023। मूल्य- 150/-)
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