(हिमांक से क्वथनांक के बीच, पुस्तक चर्चा, भाग-2)
गंगोत्री-कालिंदीखाल-बदरीनाथ यात्रा में शेखरदा (प्रो शेखर पाठक) की देखने वाली निगाह ही नहीं, सुनने वाले कान भी गजब कर जाते हैं। वे गल के भीतर की विविध ध्वनियां सुनते हैं तो उससे बात करने लगते हैं। गल भी उन्हें जवाब देने लगता है- “धड़म-बड़म-खड़म। सुनो शेपा, मैं हूं गंगोत्री गल। सहस्राब्दियों पहले तो मैं बहुत नीचे तक पसरा था और कोई मनुष्य या भगवान मुझ तक न आते थे। राजा भगीरथ की कहानी तो मुझसे हाल ही मैं जुड़ी। करोड़ों-लाखों साल तक मैं यू ही सोया रहा। ...”
अड़म-बड़म-खड़कम की भाषा में गंगोत्री गल अपनी कहानी बताता है कि 1808 में जब सर्वे ऑफ इण्डिया वाले आए तब मैं आज की गंगोत्री से मात्र पांच किमी ऊपर था लेकिन आज मैं 15 किमी से अधिक ऊपर को सरक आया हूं, आदि-आदि। यह ग्लेशियरों का निरंतर सिकुड़ने यानी गलते जाने की कथा है। बर्फ पर चमकती चांदनी का चिड़िया से संवाद भी वे सुन लेते हैं। बल्कि, “यहां तो भरल, कव्वे, गल, चट्टानें और वनस्पतियां न जाने चांद से कैसे बोलती हैं?” समझने का सूत्र यह कि “मनुष्य के लिए जरूरी है कि प्रकृति को सुनने के लिए वह स्वयं चुप रहना सीखे।”
हिमालय अध्येता के अलावा सचेत-संवेदनशील इतिहासकार शेखरदा के इस वृतांत (हिमांक से क्वथनांक के बीच, नवारुण प्रकाशन) में हम हिमालय की अनेक कठिन और पहले-पहल हुई यात्राओं का संदर्भ पाते हैं तो कालिंदीखाल के पथ पर पड़े पहले और फिर बार-बार चले कदमों के निशान भी पढ़ने को मिलते हैं।
माना जाता था कि एरिक शिप्टन और टिलमैन 1934 में पहली बार कालिंदीखाल होकर गोमुख तक गए थे लेकिन शेखरदा अपनी पड़ताल से बताते हैं कि वास्तव में 1931 में कैप्टन ई जे बरनी और उनके छह साथी इस दर्रे को पार करने वाले पहले यात्री थे। तब तक यह दर्रा कालिंदीखाल नहीं कहलाता था। बरनी की यात्रा के बाद इसे ‘बरनी कॉल’ नाम दिया गया और बाद में कालिंदी शिखर के नाम पर इसे कालिंदीखाल कहा जाने लगा। बाद में शिप्टन व टिलमैन के अलावा और भी कुछ पर्वतारोही इस इलाके में आए।
1945 में स्वामी प्रबोधानंद के साथ पांच अन्य साधुओं ने गंगोत्री से कालिंदीखाल पार करते हुए बदरीनाथ की यात्रा की थी। इनमें से एक साधु परमानंद शून्य से नीचे के तापमान में दिगम्बर यानी पूरी तरह वस्त्रहीन थे। बाद में स्वामी सुंदरानंद ने दस बार दुर्गम कालिंदीखाल को पार किया। ये वही प्रसिद्ध छायाकार स्वामी सुंदरानंद हैं जिनके हिमालय सम्बंधी छायाचित्र देश-विदेश में ख्यात हुए।
यह जानना रोचक होगा कि अपनी पहली यात्रा में स्वामी सुंदरानंद एक बर्फीली खाई में गिर गए थे। उनके साथी यात्री ने खाई में गिरे हुए उनका फोटो खींचा था लेकिन बाद में स्वामी जी के मांगने पर भी उन्हें दिया नहीं। अगली बार स्वामी सुंदरानन्द अपना कैमरा लेकर उसी मार्ग पर गए और हिमालय के चर्चित छायाकार भी बने।
सितंबर 1990 में नवभारत टाइम्स, लखनऊ के हमारे साथी पत्रकार गोविंद पंत राजू ने भी अपने चंद साथियों के साथ इस कठिन मार्ग को सफलतापूर्वक पार किया था। उन्होंने लखनऊ लौटकर एक छोटी सी स्मारिका प्रकाशित की थी जिसमें इस दुर्गम हिमालयी यात्रा के अनुभव लिखे और कालिंदीखाल के कुछ रंगीन चित्र हाथ से चिपकाकर मुझे दिए थे।
यह रोमांचक इतिहास को इस किताब और भी पठनीय व उपयोगी बनाता है। अनूप साह तथा प्रदीप पाण्डे के (कुछ अन्य के भी) कई रंगीन और श्वेत-श्याम चित्र यात्रा के अनुभव को जीवंत बनाने में सहायक हुए हैं।
यात्री और सहायक एक दूसरे से बिछड़ गए। लुढ़कने-फिसलने में कुछ सामान गिर गया। कुछ जान बचाने के लिए छोड़ दिया गया। कहीं मार्ग खो गया और कहीं भूस्खलन ने अवरुद्ध कर दिया। कोई बर्फ में गिरा तो उठ नहीं सका। किसी के पैर हिमदंश से सुन्न हो गए। बिना खाए-पिए गीले कपड़ों और छपछपाते जूतों से वे चलते रहे। वर्षों के अनुभवी सहायक भी असहाय हो गए।
शेखरदा किराए पर एक सैटेलाइट फोन साथ ले गए थे। उससे देहरादून में अधिकारियों को हालात की गम्भीरता और बचाव दल भेजने की गुहार लगाई गई। वहां से आईटीबीपी के घासतोली कैम्प को सतर्क किया गया लेकिन मौसम इतना खतरनाक हो गया था कि बचाव दल भी यात्रियों तक पहुंच न सका।
यात्री गिरते-पड़ते-भटकते रहे। कभी एक-दूसरे को सहारा देते और कभी अपने हाल पर छोड़ देते। गुजरात के युवक नीतेश का बदन अनूप साह और प्रदीप पांडे के हाथों में ही अकड़कर लुढ़क गया। मृत्यु की परियां सबके ऊपर नाचने लगी थीं।
अंधेरा होने और भूस्खलन के कारण भटक जाने पर हमारे तीनों यात्री एक बड़ी चट्टान की आड़ में बैठ गए। अनूप साह के पर्वतारोहण के अनुभव काम आए कि किसी को सोने नहीं दिया। वहां नींद का मतलब मौत की नींद होता। एक-दूसरे की मालिश करके ऊर्जा बटोरते हुए, अंत्याक्षरी खेलते और गीत गाते हुए रात बिताई गई।
मृत्यु आसपास नाच रही थी लेकिन तीनों के जीवट से हारकर चली गई। सुबह हुई तो जैसे पुनर्जन्म हुआ। परंतु सभी इतने भाग्यशाली नहीं थे। इस दल के दो सहायक और ऑस्ट्रियाई दल के चार लोगों के प्राण वहीं छूट गए। दूसरे दिन बहुत खोजने के बाद उनकी देह मिलीं।