Friday, September 14, 2018

‘ओडीएफ’ यानी सरकारी अभियानों की त्रासदी



पहले यह तय कर दिया गया कि इस दो अक्टूबर को मुख्यमंत्री लखनऊ जिले को खुले में शौच-मुक्त (ओडीएफ) घोषित करेंगे. आपा-धापी मचनी ही थी. जिले के अधिकारी दौड़-भाग में लगे हैं. कर्मचारियों, एजेंसियों, ठेकेदारों, आदि को चेतावनी दी जा रही है कि शौचालय बनवाओ. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक ही अभी हजारों शौचालय बनने हैं और बड़ी संख्या में बनने की प्रक्रिया में हैं. बनवाने वालों के पेच कसे जा रहे हैं कि जल्दी करो.
महापौर सुबह-सुबह दौड़ रही हैं. उन्हें बताया गया है कि कम से कम 114 जगहें ऐसी हैं जहां लोग खुले में शौच जा रहे हैं. उन इलाकों का दौरा हो रहा है. लोगों को चेतावनी दी जा रही है कि खुले में क्यों जा रहे हैं. उन पर जुर्माना भी लगाया जा रहा है. लोग फिर भी मान नहीं रहे हैं.

वे क्यों नहीं मान रहे हैं? कारण जानने के लिए बहुत मेहनत करने की जरूरत नहीं. आपके इसी अखबार ने कई रिपोर्ट छापी हैं जो बताती हैं कि लक्ष्य पूरा करने के लिए शौचालय बनवाने की खानापूरी की जा रही है. ज्यादातर इस लायक बने ही नहीं कि उन्हें इस्तेमाल किया जाए. किसी में दरवाजे नहीं है तो किसी की दीवारें बनते ही ढह गईं. सीटें टूटी हैं. पानी की व्यवस्था नहीं है. लोग उनका इस्तेमाल शौच के लिए करने की बजाय उनमें भूसा, कण्डे, आदि रख रहे हैं.

प्रशासन चूंकि दो अक्टूबर को जिले को खुले में शौच मुक्त घोषित किये जाने की तैयारी कर रहा है, इसलिए उसे यह देखने की फुर्सत नहीं है कि शौचालय कैसे बने हैं, वे इस्तेमाल लायक हैं या नहीं या जनता को कैसे प्रेरित करना है. टूटे शौचालयों के लिए वह जनता को ही दोषी ठहरा रहा है. उन पर कार्रवाई की बात हो रही है.
खुले में शौच से मुक्ति का जो अभियान प्रधानमंत्री ने चलाया है, वह वास्तव में सराहनीय है. इस लक्ष्य को पूरा किया ही जाना चाहिए. दुर्भाग्य यह है कि इसे भी बाकी सरकारी लक्ष्यों की तरह पूरा करने की होड़ मची है. कई जिले इससे मुक्त घोषित किये जा चुके हैं. यानी फाइलों में लक्ष्य के मुताबिक शौचालय बना दिये गये हैं. बजट पूरा खर्च कर दिया गया है. वे इस्तेमाल लायक हैं या नहीं, जनता वास्तव में उनका उपयोग कर रही है या नहीं, या ठेकेदार ही ने टूटी सीट तो नहीं लगा दी, यह देखना जरूरी नहीं समझा जाता. खबरें हैं कि बहुत सारे लोग अब भी खुले में जा रहे हैं.

जनता की इच्छा और सहभागिता के बिना ऐसे अभियान सफल नहीं होते. ज्यादातर ग्रामीण खुले में जाना आदतन अच्छा समझते हैं तो शहरों की बड़ी आबादी मजबूरी में . शौचालय दोनों की ही जरूरत हैं. उससे ज्यादा जरूरी है मानसिक परिवर्तन. सरकार अनुदान देकर निजी और सामुदायिक शौचालयों के भवन खड़े करवा दे रही है. उनमें पानी की व्यवस्था हो, नालियां और सोक-पिटसही बने हों, हवादार हों और बदबू न करते हों, तब तो जनता उनका इस्तेमाल करे. तब भी उनका मन बदलने के उपाय करने होंगे. प्रशासन डण्डा लेकर तैनार रहे, लुंगी-लोटा छीने, जुर्माना लगाए, इससे तो उद्देश्य पूरा होने वाला नहीं.

सरकारी अनुदान देकर शौचालय बनवाने का अभियान सरकारें दशकों पहले से चला रही हैं. मोदी जी ने कोई नयी घोषणा नहीं की. उन्होंने एक लक्ष्य जरूर तय कर दिया. काम कराने वाला सरकारी तंत्र वही है. पहले भी शौचालय बनवाने की औपचारिकताएं होती थीं. आज भी हो रही हैं. कागज पर लक्ष्य पूरे हो जाएंगे, जमीन पर नहीं.  
('सिटी तमाशा', नभाटा. 15 सितम्बर, 2018) 

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