Tuesday, September 25, 2018

भाजपा सेकुलर और कांग्रेस हिंदू हुई ?


रोचक ही है यह दृश्य या इसे राजनैतिक प्रहसन कहा जाए? 2019 का आम चुनाव आते-आते धर्मनिरपेक्ष और  आयडिया ऑफ इण्डिया की रखवालीकांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी शिव-भक्तहो गये हैं. उधर कट्टर हिंदुत्ववादी, उग्र राष्ट्रवाद की पोषक भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री मस्जिद में जा रहे हैं. मुसलमानों को देश का शत्रु मानने वाली राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघ चालक मोहन भागवत कहने लगे हैं कि मुसलमान इस देश में अवांछित हुए तो हिंदुत्व ही नहीं रह जाएगा.

क्या कांग्रेस और भाजपा एवं संघ सचमुच बदल गये हैं? संघ ने कह दिया है कि मुसलमानों के बारे में गुरु गोलवलकर के विचार शाश्वत नहीं हैं यानी कभी वह धारणा प्रासंगिक रही होगी लेकिन आज स्थितियां बदल गयी हैं. इसलिए भारत में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति हिंदू है’. क्या कांग्रेस भी कहेगी कि भारत के बारे में अब पार्टी का विचार वही नहीं रहा जो उसकी लम्बी विरासत है, जिस पर वह गर्व करती रही है? जिस कांग्रेस को मोदी मुसलमानों की पार्टीबताते हैं, कांग्रेस के नये अध्यक्ष उसे हिंदुओं की पार्टीसाबित करने पर तुले हैं. भाजपा से कुछ कम हिंदू. राम मंदिर नहीं, राम वन-गमन-पथ बनवाने का वादा.    

क्या 2019 का चुनाव इतना कठिन है कि दोनों पार्टियों को अपना मूल चरित्र बदलना पड़ रहा है? यह बदलाव दिखावा है या सचमुच दिशाएं बदल रही हैं? जैसा भी हो, क्या यह छवि-परिवर्तन दोनों दलों को 2019 की लड़ाई जीतने का ब्रह्मास्त्र लग रहा है?

भारतीय जनता पार्टी और संघ का अपनी छवि बदलने का प्रयास समझ में आता है. कभी उत्तर भारत के उच्च जातीय कट्टर हिन्दुओं की पार्टी रही जनसंघ और फिर भाजपा आज गोवा और सुदूर उत्तर-पूर्व तक के राज्यों में शासन कर रही है तो उसे अखिल भारतीयता का मतलब समझ में आ रहा होगा. अन्यथा क्या कारण है कि उत्तर के राज्यों में गोवध और बीफ पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने वाली उसकी सरकारें दक्षिण और उत्तर पूर्व में यही फैसला लागू करने का साहस नहीं कर सकीं? यानी उसे लगने लगा है कि इस देश पर पचास साल तक राज करनेकी मंशा सभी धर्मों-जातियों-संस्कृतियों को अपनाये बिना सम्भव ही नहीं है. फिलहाल तो 2019 के लिए ही गुरु गोलवलकर के निर्देश शाश्वत नहीं मालूम दे रहे. भीतर से वह बदले या नहीं, फिलहाल ऊपर से संघ और भाजपा को बदला हुआ दिखना जरूरी लग रहा होगा. प्रधानमंत्री मोदी के पहली बार एक मस्जिद में जाने और मोहन भागवत के ताजा उद्गारों का निहितार्थ समझना कठिन नहीं होना चाहिए.

कांग्रेस को क्यों आवश्यक लग रहा है कि उसे हिंदू पार्टी हो जाना या कम से कम दिखना चाहिए? राहुल गांधी क्यों तेजी से परम संस्कारी, जनेऊ धारी, मत्था-टेकू, कैलास-यात्री हिंदू बनने में लगे हैं? क्या उन्हें लगता है कि इस रास्ते चलकर ही वे मोदी की भाजपा का मुकाबला कर पाएंगे? क्या वे यह समझ रहे हैं कि देश का आम मतदाता 2014 के बाद इस कदर हिंदूवादी हो गया है कि उसके वोट पाने के लिए हिंदू-चोला धारण करना आवश्यक है? जिन मूल्यों के लिए कांग्रेस जानी जाती थी, क्या उनकी जगह इस देश में नहीं रह गयी? ‘कांग्रेसहो कर ही क्यों नहीं भाजपा को हराया जा सकता?  क्या कांग्रेसी मूल्य भाजपाई विचार के सामने पस्त हो गये हैं?

राहुल के सभा मंचों पर मंत्रोच्चार करते पण्डों, ‘शिव-भक्त राहुलके पोस्टरों और कुर्ते के ऊपर से जनेऊ दिखाते युवा कांग्रेस अध्यक्ष को देख कर उनके पुरखे जवाहरलाल नेहरू की बरबस याद आ जाती है. नेहरू की धर्मनिरपेक्षता का पैमाना यह था कि उन्हें तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के शंकराचार्य के चरण स्पर्श करने और गृह मंत्री सरदार पटेल के  सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार समारोह में शामिल पर भी घोर आपत्ति थी. उनके विविध लेखों, भाषणों,  मुख्यमंत्रियों के नाम लिखे पत्रों और स्वयं उनके आचरण में  ये मूल्य दिखाई देते रहे. उन्हीं नेहरू की कांग्रेस आज कहां आ गयी है?

इस भटकाव के लिए अकेले राहुल गांधी को दोष देना उचित न होगा. नेहरू का कुछ रास्ता राहुल की दादी इंदिरा गांधी ने ही छोड़ दिया था. उनके पिता राजीव गांधी ने राजनीति में जिस तरह हिंदू कार्ड खेला उसने कांग्रेस की नींव हिलाने का काम ज्यादा किया. बाबरी मस्जिद का ताला उन्होंने खुलवाया. अयोध्या की विवादित भूमि पर राम मंदिर के शिलान्यास की अनुमति भी उन्होंने ही दी. कहते हैं कि देवरहा बाबा का आशीर्वाद लेने गये राजीव को बाबा ने कहा था-बच्चा, हो जाने देऔर उन्होंने शिलान्यास हो जाने दिया. उत्साहित राजीव गांधी ने 1989 के लोक सभा चुनाव के लिए प्रचार-अभियान की शुरुआत अयोध्या की धरती से की थी. किंतु हुआ क्या? यह हिंदू कार्ड राजीव की कांग्रेस को फला क्या? उलटे, मुसलमान कांग्रेस से नाराज हुए और राम मंदिर की पहल बरास्ता विश्व हिंदू परिषद, भाजपा ने हथिया ली. वह उग्र अभियान चलाकर हिंदुओं को अपने खेमे की तरफ बहका ले गयी. दलित राजनीति का उभार उस समुदाय को भी कांग्रेस से दूर ले गया.

हिंदू-राजनीति की ओर झुकाव कांग्रेस की भारी भूल साबित हुई थी. 1984 में राजीव गांधी लोकप्रियता के चरम पर थे. 1989 आते-आते वे हाशिये पर चले गये. आज कांग्रेस अपने अस्तित्व-संकट से जूझ रही है तो राहुल उसी हिंदू-मंत्र से कांग्रेस को पुनर्जीवित करना चाहते हैं. क्या उनका निष्कर्ष यह है कि 2014 से 2018 तक देश भर में कांग्रेस की पराजय थोड़ा कम हिंदू होने के कारण हुई? इसलिए उसे कुछ और हिंदू दिखना चाहिए? क्या इस पर विचार करने की आवश्यकता नहीं समझी गयी कि आज की कांग्रेस अपने मूल मार्ग से कितना भटक गयी है? क्या आज वह इस बहु-धार्मिक, बहु-भाषाई, बहु-सांस्कृतिक देश का प्रतिनिधित्व कर पा रही है? क्या वह संवैधानिक मूल्यों की रक्षा कर पाने में सक्षम रही है?            

कांग्रेस की असफलताएं ही भाजपा के विस्तार का कारण बनीं. उन भूलों-भटकनों की भरपाई हिंदू बाना धारण करने से होगी या उन मूल्यों की ओर लौटने से जिनके लिए कांग्रेस पहचानी-सराही जाती थी और जो इस विविधतापूर्ण देश को एक सूत्र में बांधने में सक्षम है? जनता को हिंदू पार्टी ही चुननी है तो वह पूरी हिंदू भाजपा को  क्यों नहीं चुने? अगर आयडिया ऑफ इण्डियाखतरे में है तो उसे बचाने का उपाय क्या है? कांग्रेस के पास जनता को दिखाने के लिए राहुल का शिव-भक्तके अलावा कोई दूसरा चेहरा भी है?

यह समझना कठिन नहीं होना चाहिए कि मोदी को हराने के लिए मोदी की नकल करना नहीं, मोदी का बेहतर विकल्प बनना जरूरी है. कांग्रेस इस दिशा में क्या सोच रही है?

(प्रभात खबर, 26 सितम्बर 2018)

1 comment:

सुधीर चन्द्र जोशी 'पथिक' said...

बहुत सुन्दर और सटीक लेख। मुझे लगता है कि वास्तव में चेहरे ही बदले हैं इन सबके, चरित्र नहीं। आज राजनीति कोई राष्ट्र या समाज सेवा का माध्ययम नहीं है, यह तो स्वयं में एक लक्ष्य सा हो गया है। कांग्रेस या बीजेपी को छोड़ दें तो शेष पार्टियों का भी वही हाल है। वे भी किसी धर्म या जाति की ओर झुकी नज़र आती हैं।

आपक लेख ने देश के दो प्रमुख दलों के बदलते चेहरों का सही चित्रण किया है । यह भी सही है कि बीजेपी के समझ में भी आने लगा होगा कि इतने विशाल देश में समर्थन पाने के लिये सबको ही लेकर चलना होगा। कांग्रेस के पास तो यह आधार पहले से उपलब्धध था, वे क्यों भटके यह तो वे ही जानते होंगे।