Friday, September 07, 2018

मेट्रो से ज्यादा जरूरत नगर बस सेवा की



एक अंतर्राष्ट्रीय एजेंसी ने हाल के अपने अध्ययन से बताया है कि भारतीय शहरों में सार्वजनिक परिवहन की हालत अत्यनत दयनीय है. नगर बसें कम होती जा रही हैं. जनता निजी वाहनों पर ही भरोसा करती है. यह चिंताजनक हालत बताने के लिए हमें किसी विश्व स्तरीय एजेंसी की रिपोर्ट की जरूरत नहीं थी. हम रोज ही इस कटु सत्य से रू-ब-रू होते हैं. सड़कों पर हर महीने बढ़ते निजी वाहन और चारों तरफ जाम लगने का एक बड़ा कारण निरन्तर घटती नगर बसें हैं. 

यह आंकड़ा चौंका सकता है कि इस वक्त लखनऊ के नगर बस बेड़े में मात्र 180 बसें हैं. इनमें भी सड़कों पर रोजाना चलने की हालत में कितनी हैं, पता नहीं. लखनऊ की विशाल आबादी के लिए सिर्फ 180 बसें! मोटा अनुमान है कि यहां कम से कम 1500 बसों की जरूरत है. कुछ वर्ष पहले 650 नगर बसें चलती थीं. यह शायद किसी समय चलने वाली बसों की अधिकतम संख्या थी. कोई भी सरकार राजधानी को बेहतर और चुस्त बस सेवा नहीं दे सकी. बातें बहुत हुईं लेकिन किसी भी पार्टी की सरकार की प्राथमिकता में यह नहीं रहा.

नतीजा क्या हुआ? लखनऊ आरटीओ में तीन-चार वर्ष पहले तक हर महीने दस हजार वाहनों की रजिस्ट्री होती थी. आजकल हर अट्ठाईस दिन में दस हजार नम्बरों की शृंखला खत्म हो जाती है. यानी अब दस हजार वाहन सिर्फ 28 दिन में सड़कों पर आ जाते हैं. इनमें सबसे ज्यादा संख्या दो पहिया और चार पहिया वाहनों की है. हर कोई अपना वाहन लेना चाहता है. गाड़ी खरीदने की मध्यवर्गीय तमन्ना के अलावा इसका कारण भरोसे लायक परिवहन सेवा का न होना है. सड़कों पर जाम क्यों नहीं लगेगा? गाड़ी चलाने, यातायात नियम मानने और पार्किंग की तमीज के बारे में यहां बात करना बेकार है.

मेट्रो चलने का बड़ा हल्ला है. पहले की सपा सरकार और अब भाजपा सरकार दोनों मेट्रो संचालन का श्रेय खुद लेते हैं लेकिन किसी ने भी इस पर ध्यान नहीं दिया कि मेट्रो-मैन श्रीधरन ने क्या कहा था. उन्होंने सलाह दी थी कि मेट्रो चले इससे पहले शहर में कम से कम 700 बसें चलाई जाएं ताकि लोगों में निजी वाहन की बजाय सार्वजनिक वाहन इस्तेमाल करने की आदत पड़े. हम शहरियों की आदत ऐसी हो गयी है कि घर से अपना वाहन निकाला और चल पड़े. बस स्टॉप तक जाना और इंतजार करना हम भूल ही गये. नवाब साहेब मेट्रो स्टेशन तक कैसे पहुंचेंगे?

मेट्रो की सवारी महंगी है. चारबाग से ट्रांसपोर्ट नगर तक साढ़े सात किमी के तीस रुपये लगते हैं. ऑटो सिर्फ दस रु में पहुंचा देता है. शहर की एक बड़ी आबादी महंगी मेट्रो में नहीं चल सकती. विशेषज्ञ तो यह भी मानते हैं कि लखनऊ जैसे शहर को अभी आने वाले कई वर्षों तक बेहद खर्चीली मेट्रो सेवा की जरूरत ही नहीं थी. मेट्रो यहां घाटे में ही रहेगी. उसे पर्याप्त सवारियां नहीं मिलेंगी. इसके बावजूद गोरखपुर जैसे शहर में मेट्रो चलाने की बात के जा रही है. जनहित पर राजनीति हावी है.

हमारे शहरों की सबसे बड़ी जरूरत  सस्ती, सुलभ और चुस्त नगर बस सेवा है. तभी सड़कें चलने लायक रह सकेंगी. मेट्रो चमत्कारिक लगती है, जनता का ध्यान खींचती है और इसीलिए  पार्टियों में श्रेय लूटने का कारण बनी है. अच्छी नगर बस सेवा भी सरकार की उपलब्धि हो सकती है, यह सोच ही नदारद है. कोई छह-सात महीने पहले घोषणा की गयी थी कि चालीस इलेक्ट्रिक बसें एक महीने में चलने लगेंगी. कोई बतायेगा कि उनका क्या हुआ?

 

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