Saturday, October 27, 2018

मल्टीप्लेक्स यानी लूट का आनंद-राग


लाई-चना, चना जोर गरम या मूंगफली चबाते हुए सिनेमा देखने का अपना आनंद होता था. इण्टरवल में बाहर जाकर कागज की पुड़िया में आप खस्ता-समोसा भी ला सकते थे. अब मल्टीप्लेक्स का जमाना है. न पीने का पानी साथ ले जा सकते हैं, न खाने का कुछ सामान. जो खाना हो वहीं खरीदना होता है. 40-50 की चीज 200-250 रु में. जेब ढीली कर सकें तो शान बघारते हुए खाइए या फिर तीन घण्टे कुढ़ते हुए सूम बने बैठे रहिए, अगल-बगल से आती चपर-चपर से कान मूंदे हुए.

चंद महीने पहले जब बम्बई उच्च न्यायालय ने एक जन हित याचिका पर महाराष्ट्र सरकार को निर्देश दिया कि जनता को मल्टीप्लेक्स में खाने-पीने का अपना सामान ले जाने की इजाजत दीजिए और वहां बिकने वाले सामान का मूल्य नियंत्रित कीजिए तो मल्टीप्लेक्स वालों ने अदालत में बड़ा मासूम-सा तर्क दिया था कि पंचतारा होटल में जाकर कोई ग्राहक यह तो नहीं कहता कि आपकी कॉफी की दरें बहुत ज्यादा हैं, कम करिए. उस होटल में जाना उसने स्वयं चुना. प्रकारान्तर से वे कह रहे थे कि जिनकी औकात नहीं है महंगा खरीदने की वे मल्टीप्लेक्स में जाएं ही क्यों.

उनका यह तर्क नहीं चला और अदालत के निर्देश पर सरकार को मल्टीप्लेक्स वालों को निर्देश देने पड़े कि वे दर्शकों को अपना सामान लाने दें और अपने यहां निर्धारित मूल्य पर ही चीजें बेचें. महाराष्ट्र से चली यह हवा कर्नाटक और तेलंगाना तक भी पहुंची. इन राज्यों में मल्टीप्लेक्स पर कुछ अंकुश लगने लगे हैं. वे पीने का साफ पानी नि:शुल्क उपल्ब्ध करा रहे हैं, हालांकि इस बहाने पानी की बोतल महंगी बेच रहे हैं.

उत्तर प्रदेश का ध्यान देश की राजनीति पर ज्यादा रहता है. इसलिए यहां अभी इस मुद्दे पर कोई हलचल नहीं हुई है. वैसे भी, मल्टीप्लेक्स की लूटके विरोध में आवाज उठाना पिछड़ापन है. लोग क्या कहेंगे? मल्टीप्लेक्स में फिल्म देखने की औकात नहीं है तो विरोध कर रहे हैं. मध्य वर्ग इसी तरह सोचता है और अपने को लुटवा कर खुश होता है. अधिकारों की बात करना उसे पसंद नहीं है. यह उसकी शान के खिलाफ है. एकल सिनेमा घरों में फिल्म देखना अपमानजनक माना जाने लगा है. इसीलिए वे बंद होते जा रहे हैं.
थोड़ी सी पूंजी वाली किराने की दुकान में झोला लेकर जाने का जमाना गया. बड़ी पूंजी से चलने वाले मॉल और डिपार्टमेण्टल स्टोर से शॉपिंगकरना इन फैशनहै. मल्टीप्लेक्स में फूड कोर्टचलाना बहुत महंगा है. फ्लोर एरियाके हिसाब से किराया और मेण्टीनेंस तय होता है. इसकी भरपाई और अपने अच्छे मुनाफे के लिए सिने-दर्शकों की जेब पर हमला किया जाता है. दरें मनमानी होती हैं और कोई कम्पटीशन वहां होता नहीं.

सारी सुख-सुविधाएं और बेहिसाब धन वालों के लिए बढ़ती जा रही हैं. शहर में नालियों के किनारे या फुटपाथ पर ऐसे खोंचे-ढाबे मिल जाएंगे जहां गरीब लोग पेट भरते हैं. अतिक्रमण हटाओं के नाम पर उन्हें उजाड़ा जाता रहता है. दिन भर हाड़-तोड़ मेहनत करने वाला गरीब आदमी सुकून से कहीं बैठ कर सस्ते में ठीक-ठाक खाना खा सके, मनोरंजन कर सके, बच्चों को अच्छा पढ़ा सके, ऐसी सुविधाएं नहीं मिलेंगी. बड़े-बड़े होटल, शिक्षा के नाम पर बड़ी दुकानें, बार-पब, लाउंज, आदि खूब खुलते जा रहे हैं.

जीवन के हर क्षेत्र में यही हाल है. इसीलिए नयी पीढ़ी इतना कमाना चाहती है कि हर सुखभोग सके. नहीं कमा सकने वाले लुटेरे बन रहे हैं. भोग-विलास ही जीवन का आनंद है, यही धारणा बनती जा रही है.  

(सिटी तमाशा, 27 अक्टूबर, 2018)
  

No comments: