सामान्य चुनावी
रणनीति यह कहती है कि यदि प्रतिद्वंद्वी लोकप्रिय है तो सीधे हमले करने की बजाय
उसे इधर-उधर से घेरा जाए ताकि आपके तीर उसकी लोकप्रियता के कवच से टकरा कर व्यर्थ
हों या आपकी ओर न मुड़ आएं. एनडीए सरकार की विफलताओं और सत्ता-विरोधी रुझानों के
बावजूद अभी तक लोकप्रियता के पैमाने पर प्रधानमंत्री काफी आगे हैं. केंद्र सरकार
से खिन्न अथवा नाराज जनता के बड़े वर्ग में मोदी से अब भी काफी उम्मीदें हैं. कम से
कम उन्हें भ्रष्ट मानने को कोई तैयार नहीं है.
तब क्या कारण है कि
कांग्रेस के युवा अध्यक्ष राहुल गांधी सीधे नरेंद्र मोदी पर लगातार भ्रष्टाचार और
पक्षपात के आरोप लगाये चले जा रहे हैं? हाल के दिनों में उनके आरोप बहुत
तीखे, अशालीन और अवमानना की सीमा तक पहुंच रहे हैं.
फ्रांस के साथ राफाल लड़ाकू विमान सौदे के बारे में वे ‘चौकीदार
चोर है’ चीख रहे हैं. ऐसा दिख रहा है कि राहुल ने 2019 के
मुकाबले में नरेंद्र मोदी के विरुद्ध इसे ही अपना सबसे बड़ा हथियार बना लिया है.
उन्हें इस बात की कोई चिंता नहीं दिखती कि अब तक साफ-सुथरी छवि वाले नरेंद्र मोदी
पर उनके आरोप उनको ही भारी न पड़ जाएं.
इस प्रसंग में 1989 की याद आना स्वाभाविक है जब
विश्वनाथ प्रताप सिंह बोफोर्स-दलाली के संगीन आरोप लगाकर तत्कालीन प्रधानमंत्री
राजीव गांधी पर लगातार हमले किये जा रहे थे. यह उनकी आक्रामक रणनीति ही थी कि ‘मिस्टर क्लीन’ राजीव गांधी के दामन पर धब्बे लगे और
वे लोकप्रियता के शिखर से लुढ़क गये थे. क्या राहुल गांधी कभी अपने पिता के
विश्वस्त सहयोगी रहे और बाद में कट्टर शत्रु बन गये विश्वनाथ प्रताप सिंह की उसी
रणनीति पर चल रहे हैं?
राजीव गांधी और नरेंद्र मोदी के हालात में कई
साम्य भी हैं. सरकारी तंत्र और राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार से मुक्ति,
पारदर्शिता, परिवर्तन और आशा की नयी किरण
दिखाने के लिए राजीव जाने गये तो नरेंद्र मोदी ने भी यही सब वादे करके उम्मीदें
जगाईं. दोनों को ही जनता ने अपार बहुमत के साथ सत्ता में बैठाया. बड़ी उम्मीदों के
कारण दोनों से निराशाएं भी जल्दी घिरने लगीं. असमानताएं भी उल्लेखनीय हैं. राजीव
अपनी माता इंदिरा गांधी की हत्या के बाद अचानक और अनिच्छा से राजनीति में आये जबकि
मोदी राजनीति के पुराने घाघ खिलाड़ी हैं. राजीव सलाहकारों और दोस्तों पर पूरी तरह
निर्भर थे तो मोदी सलाहकारों से ज्यादा अपनी राह चलते हैं. राजीव को बरगलाना आसान
था. मोदी के बारे में ऐसी कल्पना भी नहीं की जा सकती.
सौदे में दलाली की सच्ची-झूठी
कहानियों से राजीव आसानी से घिर गये थे क्योंकि उन्हें चुनौती देने वाला पहले उनका
विश्वस्त सहयोगी हुआ करता था. राजीव गांधी की सरकार से बगावत करके विश्वनाथ प्रताप
सिंह ने जब बोफोर्स सौदे में दलाली के आरोप लगाये तो जनता ने आसानी से उन पर
विश्वास कर लिया था. वीपी सिंह राजनीति के चतुर खिलाड़ी भी थे. वे जनसभाओं में अपनी
जेब से एक पर्ची निकाल कर हिलाया करते थे कि इसमें दलाली खाने वालों के नाम हैं और
जैसे ही हमारी सरकार बनेगी वे सब जेल के भीतर होंगे. विपक्ष के लिए वी पी सिंह
शानदार अवसर बन कर आये थे. इसीलिए वे उनके समर्थन में खड़े हो गये थे. इस तरह 1984
में चार सौ से ज्यादा लोक सभा सीटें जीतने वाले राजीव गांधी 1989 में 200 के आंकड़े
से नीचे रह गये. कई दलों के समर्थन से वीपी सिंह की सरकार बनी थी.
राफाल सौदे में भारी भ्रष्टाचार
और पक्षपात का आरोप लगाकर 2019 में नरेंद्र मोदी को परास्त करने की रणनीति पर चल
रहे राहुल गांधी क्या 1989 के वीपी सिंह की स्थिति में हैं?
वीपी सिंह चूंकि सरकार से बगावत करके आये थे इसलिए उन पर ईमानदारी
का ठप्पा लग गया था. इसके ठीक उलट राहुल जिस कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष हैं,
उसकी पूर्व सरकारों पर भ्रष्टाचार के बहुत सारे आरोप हैं. वीपी सिंह
को झूठा साबित करने के लिए राजीव गांधी के पास कुछ नहीं था. राहुल पर जवाबी हमला
करने के लिए मोदी की टीम के पास ढेरों मुद्दे हैं. उनके पिता पर लगे बोफोर्स दलाली
के आरोप भले साबित न हुए हों लेकिन भाजपा ने गांधी परिवार के खिलाफ बोफोर्स-दलाली
को आज तक अपना बड़ा हथियार बना रखा है.
1989 में विरोधी दलों का
साथ आना वीपी सिंह की बड़ी ताकत बना था. देवीलाल, चंद्रशेखर, मुलायम सिंह जैसे कई धुरंधर तब वीपी
सिंह को अपना नेता मानने को मजबूर हो गये थे. 2019 की लड़ाई के लिए विरोधी दल राहुल
की कांग्रेस का साथ देने में कई शंकाओं से घिरे हैं. स्वयं राहुल की छवि ऐसी नहीं
बन पायी है कि अन्य दल उन्हें गठबंधन का नेता मानने के लिए आसानी से तैयार हो जाएं.
मायावती जैसे कई बड़े क्षेत्रीय नेता उन्हें आंखें दिखा रहे हैं.
आज की भाजपा इतनी ताकतवर
है और प्रचार माध्यमों पर उसका इतनी मजबूत पकड़ है कि वह अपने विरुद्ध किसी भी
सही-गलत मुद्दे को विपक्ष का हथियार नहीं बनने देने के लिए पूरी ताकत झोंक देती
है. राहुल की कांग्रेस इस मोर्चे पर भी कमजोर है. वह मोदी सरकार के खिलाफ कुछ बेहतर
अवसरों को भी भुना नहीं सकी.
तब भी राहुल राफाल सौदे को
मोदी के विरुद्ध 2019 का प्रमुख मुद्दा बनाने के लिए पूरी क्षमता से जूझ रहे हैं. महंगाई,
बेरोजगारी, खेती एवं आर्थिक मोर्चे पर सरकार
की असफलताओं, उसकी वादाखिलाफी, जैसे
मुद्दे भी उन्होंने पीछे छोड़ दिये हैं. राफाल के लिए भी सीधा निशाना मोदी पर है. उनकी
रणनीति है कि यदि मोदी के साफ दामन पर वे राफाल के दाग दिखा सकें तो बाजी पलट सकती है. मुद्दा तूल पकड़ गया तो अन्य विरोधी दल भी साथ आ जाएंगे.
1989 में वी पी सिंह की
सफलता का बड़ा कारण यह था कि वे जनता को यह विश्वास दिला पाने में एक हद तक कामयाब
रहे थे कि बोफोर्स तोप सौदे में शीर्ष स्तर पर दलाली खायी गयी है. अभी तक तो मोदी
के खिलाफ राहुल की कोशिश जनता में असर डालती नहीं दिख रही. मगर राहुल ने मुद्दा
जोरों से पकड़ रखा है. राफाल सौदे में बरती जा रही
कतिपय गोपनीयता उनका तरकश है. वैसे भी राजनीति में सबूतों से ज्यादा आरोपों की
बारम्बारता काम करती है. राहुल इसी भरोसे मोदी पर तीर पर तीर छोड़े जा रहे हैं.
वक्त बताएगा कि इतिहास
अपने को दोहराता है या नया प्रहसन रचता है. फिलहाल नरेंद्र मोदी,
राजीव गांधी नहीं हैं. राहुल का नाम भी वी पी सिंह नहीं है.
(प्रभात खबर, 31 अक्टूबर, 2018)
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