Friday, July 26, 2019

एनजीटी : मूदहुँ आँख कतहुँ कछु नाहीं


हिण्डन नदी को प्रदूषण से मुक्त करने के बारे में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) की मॉनीटरिंग कमिटी के मुखिया, हाई कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश एस यू खान ने उत्तर प्रदेश सरकार पर असहयोग का आरोप लगाते हुए पिछले दिनों इस्तीफा दे दिया. यह ताज़ा मामला है लेकिन अकेला नहीं. एनजीटी की विभिन्न अनुश्रवण समितियाँ पहले भी असहयोग और उपेक्षा की शिकायतें करती रही हैं. यमुना और गोमती नदी के लिए गठित एनजीटी की समितियाँ भी ऐसी लिखित शिकायतें कर चुकी हैं. ठोस कचरा प्रबंधन अनुश्रवण समिति के सचिव की तरफ से भी इस तरह का बयान आया है.

यह हाल तब है जबकि उत्तर प्रदेश में नदियों का प्रदूषण अरबों रु के व्यय के बावज़ूद थमा या सुधरा नहीं है. नगरों के ठोस कचरे के प्रबंधन का हाल भी बहुत बुरा है. प्रदेश का एक भी नगर केंद्र सरकार के राष्ट्रीय स्वच्छता सर्वेक्षणों में पहले दस स्थान में नहीं आ सका. लखनऊ समेत कई शहरों का नम्बर तो बहुत नीचे है. हालत यह है कि राजधानी लखनऊ समेत सभी बड़े नगरों में प्रतिदिन जितना ठोस कचरा निकलता है, उसे उठाने की क्षमता भी नगर निगमों के पास नहीं हो सकी है. इसीलिए कूड़ा जमा होता जाता है.

एनजीटी की समिति ने कूड़ा प्रबंधन के मामले में लखनऊ समेत गाज़ियाबाद और वाराणसी का काम अत्यंत असंतोषजनक पाया था.लखनऊ नगर निगम ने समिति की आपत्ति के बाद रिपोर्ट दी थी कि उसने शहर में अनधिकृत जगहों पर कचरा जमा करना बंद कर दिया है लेकिन समिति ने पाया कि यह रिपोर्ट झूठी थी. समिति को गुलाला घाट, फैज़ुल्लागंज और गोमती नगर समेत कुछ जगहों पर ठोस कचरे के ढेर मौज़ूद मिले. निगम को नोटिस भी दी गई थी.

गाज़ियाबाद में बॉटेनिकल पार्क के लिए आरक्षित भूमि पर कचरे का विशाल ढेर पाया गया था, जबकि समिति ने वहाँ कूड़ा डालने से मना किया था. इसलिए गाज़ियाबाद प्रशासन पर दो करोड़ रु का दण्ड लगाने की सिफारिश की गई थी. वाराणसी में वरुणा नदी के किनारे कूड़े का पहाड़ देखकर वहाँ के अधिकारियों को चेतावनी दी गई थी. समिति का यह भी कटु अनुभव रहा कि सरकारी तंत्र उसकी सिफारिशों को गम्भीरता से नहीं लेता. दोषी व्यक्तियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं की जाती.

गोमती नदी के बारे में रिपोर्ट देते हुए अनुश्रवण समिति ने उसकी दुर्दशा के लिए राजनैतिक हस्तक्षेप, भ्रष्टाचार और आला अधिकारियों की दायित्वहीनता को सीधे ज़िम्मेदार ठहराया था. अभी तीन दिन पहले समिति के सचिव पूर्व जिला जज राजेंद्र सिंह की एक विज्ञप्ति कुछ समाचार पत्रों में प्रकाशित हुई तो यह बात और खुली. इस विज्ञप्ति के अनुसार सरकार ने समिति को न ठीक-ठाक दफ्तर दिया और न ही कई माह तक वेतन. कम्प्यूटर, आदि की अनुपलब्धता के कारण काम करने में परिशानियाँ हुईं, हालाँकि एनजीटी ने सरकार को निर्देश दिए थे कि समिति को पर्याप्त सुविधाएँ दी जाएँ.

ऐसा लगता हैकि सरकारी तंत्र स्वतंत्र और निष्पक्ष समितियों की निगरानी और प्रतिकूल रिपोर्ट स्वीकार नहीं करना चाहता. ऐसी भी चर्चा चल रही है कि सरकार नदियों के प्रदूषण और कचरा प्रबंधन की निगरानी अपने हाथ में लेना चाहता है. सरकारी समितियाँ मॉनीटरिंग करेंगी तो उसकी रिपोर्ट सरकार के अनुकूल ही होगी. जमीनी वास्तविकता चाहे जैसी हो. शायद इसीलिए अब ठोस कचरे के निस्तारण के लिए मॉडल एक्शन प्लान बनाने की बातें सुनाई दे रही हैं.

जल-थल-वायु प्रदूषण की स्थिति निरंतर गम्भीर होती जा रही है. एनजीटी की रिपोर्ट और सलाह को सकारात्मक ढंग से नहीं लिया गया तो सुधार मुश्किल है. 

(सिटी तमाशा, नभाटा, 27 जुलाई, 2019) 

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