‘नेतृत्वविहीन’ कांग्रेस के संकट बढ़ते जा रहे हैं. इससे कुछ दूसरे संकट पैदा हो रहे हैं. राहुल
गांधी के अध्यक्ष पद छोड़ने के फैसले पर अडिग रहने के बाद पार्टी
नेताओं-कार्यकर्ताओं के लिए नया नेता चुनना बहुत मुश्किल काम होगा. विशेषकर तब,
जब नेहरू-गांधी परिवार का कोई सदस्य इस चुनाव में प्रकट या अप्रकट
रूप में कोई ‘सहायता’ न कर रहा हो. एक
युग हुआ, कांग्रेसियों को इस परिवार के नेतृत्व की आदत हो गई
है.
दूसरी समस्या कांग्रेस के भीतर नए और
पुराने नेताओं के आसन्न टकराव का है. इसका हालिया और तीव्र टकराव हमने राजस्थान और
मध्य प्रदेश में देखा. दोनों राज्यों में
कांग्रेस की विजय के बाद मुख्यमंत्री चुनने में राहुल गांधी को भी पसीने आ गए थे
क्योंकि नई पीढ़ी पुराने कांग्रेसियों को खुली चुनौती दे रही थी. सचिन पायलट और
ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस की नई पीढ़ी के ऐसे प्रभावशाली प्रतिनिधि हैं जो
पुराने नेतृत्व से कांग्रेस को मुक्त करना चाहते हैं.
राहुल गांधी की ताज़पोशी के बाद इस नई
पीढ़ी को ताकत भी मिली थी किंतु स्वयं राहुल युवा नेतृत्व को नव-विजित राज्यों की
कमान देने का साहस नहीं दिखा पाए. उनके अध्यक्ष रहते भी युवा कांग्रेसी नेताओं को
दूसरे पायदान पर ही संतोष करना पड़ा. अब जबकि राहुल गांधी ने अपने को नए नेता के
चयन से पूरी तरह अलग रखने का फैसला किया है, कांग्रेस
के भीतर नए और पुराने का यह टकराव जोरों से सिर उठाएगा.
कांग्रेस कार्यसमिति पार्टी के नए
अध्यक्ष के चुनाव की प्रक्रिया कब तय करेगी, अभी
यही निश्चित नहीं है. इस बीच कांग्रेसियों में बेचैनी बढ़ रही है. कांग्रेस विरोधी
ताकतें, विशेष रूप से भाजपा इस कमजोरी का लाभ उठाने से नहीं
चूक रहीं. कांग्रेस में नेतृत्व-संकट न होता और पार्टी की कमान मजबूत हाथों में
होती तो कांग्रेसी विधायकों को ‘तोड़ना’ इतना आसान नहीं होता. भाजपा नेतृत्व लाख इनकार करे लेकिन कर्नाटक में कांग्रेस-जद
(एस) के विधायकों की ‘खरीद-फ़रोख्त’ करके
गठबन्धन सरकार को अस्थिर करने के आरोप लगाकर कांग्रेस के लोक सभा में हंगामा करने
को अकारण नहीं माना जा सकता.
लोक सभा चुनावों में भाजपा की
प्रचण्ड जीत के साथ ही यह आशंका व्यक्त की जाने लगी थी कि शीघ्र ही कर्नाटक,
राजस्थान और मध्य प्रदेश सरकारों को अस्थिर करने का राजनैतिक खेल
शुरू होगा. इस आशंका के कारण थे. भाजपा शासन के पहले दौर में अरुणाचल से लेकर
उत्तराखण्ड तक इस तरह के खेल किए जा चुके थे. उत्तराखण्ड में तो हाई कोर्ट के
फैसले के बाद वहां कांग्रेस की सरकार सदन में अपना बहुमत साबित कर बहाल हो पाई थी.
एनडीए की अटल बिहारी सरकार के दौर में भी बिहार में बहुमत वाली राबड़ी सरकार को
अपदस्थ कर दिया गया था.
राज्यों में विरोधी दलों की कमजोर
सरकारों को किसी न किसी बहाने अस्थिर करके गिराने का यह राजनैतिक खेल नया नहीं है
कि ‘लोकतंत्र की हत्या’ के लिए सिर्फ भाजपा को दोषी ठहराया जाए. इंदिरा गांधी के समय से कांग्रेस
ने अपने वर्चस्व के दौर में ऐसे खूब खेल खेले. दल-बदल, तोड़फोड़,
राज्यपालों और विधान सभाध्यक्षों के ‘विवेकपूर्ण’
फैसलों की आड़ में बहुमत की
सरकारों को गिराया गया. इसी कारण संविधान के अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग हमारे देश
में एक बड़ा विवाद बनता रहा और कई बार सर्वोच्च न्यायालय तक पहुँचा.
विरोधी दलों की राज्य सरकारों को अस्थिर
करने या बहाने गिराने के ये राजनैतिक खेल लोकतंत्र के लिए तो ‘अशुभ’ हैं ही, महत्वपूर्ण
संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों के फैसलों को प्रभावित करके संविधान के
प्रावधानों की मनमानी व्याख्या करने का रास्ता भी खोलते हैं. राज्यपाल और विधान
सभाध्यक्ष के पदों को गैर-राजनैतिक, पार्टी-निरपेक्ष और
स्वतंत्र रखने का उद्देश्य यह नहीं था कि उनके फैसले परिस्थिति-विशेष में
पार्टी-विशेष को लाभ पहुँचाने वाले हों, जैसा कि पिछले कई
दशकों से दिखाई देने लगा है.
कर्नाटक विधान सभा अध्यक्ष ने कहा है
कि जिन विधायकों ने अपने इस्तीफे भेजे हैं, उनमें
से कुछ निर्धारित प्रारूप में नहीं हैं. जिन्हें भी इस्तीफा देना हो वे मुझसे
मिलकर निर्धारित प्रारूप में त्यागपत्र दें. यह फैसला देते हुए विधानसभाध्यक्ष ने
कहा है कि मुझे अत्यंत विवेकपूर्ण निर्णय देना है ताकि आने वाली पीढ़ियाँ मुझ पर
किसी तरह का आरोप न लगा सकें.
हमारा संविधान इन मामलों में बहुत
उदार और उदात्त है. वह राज्यपालों या विधान सभा अध्यक्षों को विशेष परिस्थितियों के
लिए विशेष निर्देश नहीं देता. वह लोकतंत्र और संविधान की मूल भावना के अनुरूप
विवेकपूर्ण निर्णय लिए जाने की रास्ता छोड़ता है. यही विवेक कभी विधायकों के
इस्तीफे को तुरंत स्वीकार कराता है और कभी उनके प्रारूप-परीक्षण में समय लगाने की
गुंजाइश देता है. यह इस पर निर्भर करता है कि विधान सभाध्यक्ष का पद किस पार्टी के
हिस्से आया. इसीलिए गठबंधन सरकार बनने की स्थिति में मुख्यमंत्री पद की दावेदारी
से कम महत्त्व विधानसभाध्यक्ष पद की दावेदारी को नहीं दिया जाता.
राज्यपालों का पद भी इसीलिए बहुत
महत्त्वपूर्ण हो जाता है. अस्थिर एवं गठबंधन सरकारों के दौर में यह राज्यपाल के ‘विवेक’ पर निर्भर है कि वह सम्बद्ध मुख्यमंत्री को
सदन में बहुमत साबित करने के लिए सिर्फ दो दिन देता है या पूरा एक पखवाड़ा.
विधायकों के सदन से इस्तीफे के मामलों में राज्यपाल सीधे हस्तक्षेप नहीं कर सकते
लेकिन विधान सभाध्यक्ष को सलाह देने का ]विवेक’ तो उनका भी
है ही. सो, कर्नाटक के राज्यपाल ने विधान सभा के अध्यक्ष को
पत्र लिखा है कि वे विधायकों के त्यागपत्रों पर ‘शीघातिशीघ्र’
निर्णय लें. राज्यपाल का विवेक ‘शीघ्रातिशीघ्र’
कहता है जबकि विधान सभा अध्यक्ष का विवेक फूक-फूक कर कदम रखने को
कहता है ‘ताकि कोई उन पर अंगुली न उठाए.’
‘विवेक’ का यह विरोधाभास एक दल के लिए ‘संवैधानिक’ है तो दूसरे दल के लिए ‘लोकतंत्र का गला घोटना.’
संविधान निर्माताओं ने यह नहीं ही सोचा होगा कि ‘विवेक’ के कई कोण हो सकते हैं. यह संविधान के ‘छिद्र’ नहीं हैं, जैसा कि कुछ
लोग कह देते हैं. यह आम्बेडकर की वह भविष्यद्रष्टा चेतावनी है जो उन्होंने संविधान
सभा की अंतिम बैठक में इस तरह दी थी- ‘संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो, यदि वे लोग,
जिन्हें संविधान को अमल में
लाने का काम सौंपा जाए, अच्छे नहीं निकलें तो निश्चित रूप से
संविधान भी खराब सिद्ध होगा.’
राजनैतिक दलों के कमजोर नेतृत्व,
राजनीति की मूल्यहीनता, अल्पमत या अस्थिर
सरकारों के दौर और संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों का विवेक हमारे लोकतंत्र और
संविधान की बार-बार परीक्षा लेता है. इसीलिए सशक्त विपक्ष लोकतंत्र की सेहत के लिए
अनिवार्य कहा गया है.
कांग्रेस का यथाशीघ्र नया अवतार इस
कारण भी आवश्यक है.
(प्रभात खबर, 11 जुलाई, 2019)
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