Thursday, July 02, 2020

‘इंग्लिश हार्टलैण्ड’ में हिंदी के लिए क्या रोना!


आज का स्तम्भ कोरोना के बारे में नहीं है. यह हिंदी के बारे में है. हिंदी जो हमारी मातृ-भाषा है. मातृ-भाषा माने जो हम मां के दूध के साथ सीखना शुरू करते हैं, जो हमारे घर-परिवार और आस-पास बोली जाती है. वह भाषा जिसका व्याकरण भले हम बाद में पढ़ें, उसे बोलने-लिखने के लिए किसी पाठ की आवश्यकता नहीं होती. कम से कम ऐसा माना जाता रहा है.
उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद (यू पी बोर्ड) की 10वीं और 12वीं परीक्षा के नतीजे चंद दिन पहले आए हैं. उनके बारे में सबसे चर्चित समाचार यह है कि दोनों कक्षाओं में कुल मिलाकर सात लाख 97 हजार विद्यार्थी हिंदी में फेल हो गए. हाईस्कूल में 5.28 लाख और इण्टर में 2-70 लाख परीक्षार्थी हिंदी में पास होने लायक नम्बर नहीं पा सके. इसके अलावा दो लाख 39 हजार परीक्षार्थी हिंदी की परीक्षा देने ही नहीं गए.
वैसे इसमें चौंकने जैसी कोई बात नहीं है. यह सिलसिला पिछले कई सालों से चला आ रहा है. अपने प्रदेश में जिसे हिंदी हृदय प्रदेशकहा जाता है. दसवीं और 12वीं की बोर्ड परीक्षा में 2018 में 11 लाख और 2019 में 10 लाख बच्चे फेल हुए थे. आप खुश होनी चाहें तो हो सकते है कि इस बार फेल होने वालों की संख्या पिछले दो सालों में फेल होने वालों से कम है और घट रही है.
हिंदी के हाल पर स्यापा करने का अब कोई अर्थ रहा नहीं, हालांकि हम हिंदी वाले रोने को हमेशा तैयार बैठे रहते हैं. इस बात पर क्यों सिर पीटा जाए कि हाईस्कूल के हिंदी विद्यार्थी आत्मविश्वासनहीं जानते. खुश होना चाहिए कि वे कांफीडेंसजानते हैं, भले ही अभी उसकी सही स्पेलिंग नहीं लिख पाते. सही स्पेलिंग का जमाना भी अब कहां रहा. अंग्रेजी के विद्वान भी पूराकांफीडेंसनहीं लिखते. ‘कांफीसे काम चल रहा है तो नए बच्चों से क्यों आशा की जाए कि वे पूरी और सही स्पेलिंग लिखें. आप यह प्रगति देखें और प्रसन्न हों कि आत्मविश्वासजा रहा है, ‘कांफीआ रहा है. फिलहाल आत्मनिर्भरकी बात मत कीजिए. उसकी शुरुआत ही हुई है.
हाईस्कूल-इण्टर बड़े दर्जे हैं. प्राइमरी-मिडिल के बच्चे हिंदी ठीक से पढ़-लिख नहीं पा रहे. असरकी सालाना रिपोर्ट इसकी गवाह हैं. प्राइवेट कॉन्वेण्ट” स्कूलों ने तो गर्भ से ही इंग्लिशपढ़ाना शुरू कर दिया था. अब सरकारी प्राथमिक विद्यालय भी इंग्लिश मीडियमबना दिए गए हैं. सरकार ही इंग्लिशपर जोर दे रही है, आप अकारण हिंदी में फेल छात्रों का कांफीडेंसबिगाड़ रहे हैं.
बच्चा तुतलाना बाद में सीखता है, ‘वॉटर’, ‘शूज’, ‘मिल्क’, ‘मम्मा’, ‘पापा’, आदि-आदि उसके भोले दिमाग में दिन-रात ठूंसना शुरू कर दिया जाता है. नो-नोसुनकर घर का पालतू कुत्ता और बच्चा दोनों एक साथ सहम जाते हैं. किसी को यह भरोसा नहीं रह गया कि ठीक से हिंदी जानने वाला बच्चा दूसरी भाषाएं भी आसानी से सीख सकता है. डर यह है कि बच्चों को अंग्रेजी नहीं आई तो वह सिर नहीं उठा पाएगा, ‘लल्लूबना रहेगा. अंग्रेजी प्रगति की भाषा है, गलत ही सही, वह आनी चाहिए.
भाषा ही नहीं मर रही, पूरा हिंदी-पर्यावरण लुप्त हो रहा है. खान-पान, रहन-सहन, पहनावा, बोली-बानी, चाल-ढाल, गीत-संगीत, सब इंग्लिश हुआ जा रहा है. वही हमारी शान बन गई है. हिंदी हमारा गर्व है ही नहीं. मातृ भाषा हम उसे कब तक कहते रहेंगे
हिंदी हृदय प्रदेशको अब इमरजिंग इंग्लिश हार्टलैण्डकहा जाना चाहिए. हिंदी को लेकर फिर कोई कुंठा नहीं होगी.
(सिटी तमाशा, नभाटा, 04 जुलाई, 2020)

    


3 comments:

Anita Shukla said...

कटु सत्य यही है।

नीलाभ said...

विडम्बना ही है कि 'हिन्दी' की उपेक्षा पर लिखे गये इस लेख में पूर्णविराम के स्थान पर आपने फुल-स्टॉप का प्रयोग किया है। "हमाम में सब नङ्गे हैं।"

विनय सिंह बैस said...

पूरी तरह सहमत