Wednesday, July 08, 2020

राजनीति का ही चेहरा है विकास दुबे



सन 1989 का प्रसंग है. समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. एक सार्वजनिक कार्यक्रम के मंच पर उनके साथ प्रदेश के एक आपराधिक चरित्रके सरगना भी बैठे थे, जो उन दिनों अपनी नई राजनैतिक पारी शुरू करने की भूमिका तैयार कर रहे थे. उसके साथ मुख्यमंत्री का मंच साझा करना तब खबरथी. लगभग सभी समाचार पत्रों में वह तस्वीर प्रकाशित हुई, कुछ में पहले पृष्ठ पर. अगले दिन मुलायम सिंह से इस पर सवाल भी किए गए. पहले नाराजगी जताने के बाद उनका बहुत भोला-सा उत्तर था- उनके खिलाफ कुछ मुकदमे ही तो हैं. एफआईआर होने से कोई अपराधी हो जाता है क्या? मुकदमे तो मेरे भी खिलाफ हैं.

यह 31 वर्ष पुरानी बात है. तब तक पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक-दो माफियाप्रदेश की राजनीति में सम्मानजनक स्थान हासिल कर चुके थे. कई अन्य सरगना अपने लिए भी राजनीतिक राह तलाश रहे थे.  तब तक यह आम रास्ता नहीं बना था. राजनीति की पृष्ठभूमि में अपराधियों की खूब उपयोगिता थी. हर नेता के अपने क्षेत्र में खास व्यक्तिहोते थे जो उनके लिए मतदाताओं को डराने-धमकाने, बूथ लूटने, बैलेट छापने से लेकर विरोधियों को ठिकाने लगाने में काम आते थे. नेता उन्हें संरक्षण देते थे और लाइसेंस-परमिट-ठेके से उपकृत करते थे.

मुलायम सिंह यादव का उपर्युक्त उत्तर तब नेपथ्य में सक्रिय अपराधियों के राजनैतिक मंच पर आने का रास्ता बना रहा था. आज राजनैतिक नेताओं और आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं के बीच कोई पर्दा या अन्तर नहीं है. कई वर्ष हो गए, प्रादेशिक सरकारों से लेकर केन्द्रीय सरकारों तक वे सम्मानित पदों पर विराजमान होते आए हैं.

कभी नेताओं के खास आदमी रहे हों या आज स्वयं नेता पद को सुशोभित करने लगे हों, अपराधियों के इस सत्तारोहण में पुलिस की बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है. उनके विरुद्ध संगीन आपराधिक मुकदमों को हलकी धाराओं में दर्ज करना या जांच में उन्हें बचा ले जाना या गवाहों को तोड़ना या जिस भी तरीके से चरित्र का दाग उज्ज्वल बन सके, वह सब पुलिस करती आई है. कभी आपराधिक चरित्र के या माफिया कहे जाने वाले अनेक नेता आज अदालतों से बाइज्जत बरी हैं. पुलिस के सहयोग के बिना यह सम्भव नहीं था. जिस किसी पुलिस अधिकारी ने सहयोग नहीं किया, उसका क्या हस्र हुआ, इसकी कई नजीरें चर्चित रही हैं.

उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर के एक उपनगर इलाके में कुख्यात अपराधी विकास दुबे ने जो सनसनीखेज जघन्य कारनामा किया, जिसमें आठ पुलिस वालों की जान गई, उसे नेता-पुलिस-अपराधी गठजोड़ की इसी पृष्ठभूमि में देखा-समझा जाना चाहिए. इस गठजोड़ या अन्तर्सबंध को समझने में एक और प्रसंग सहायक होगा.

सन 2002 के अंतिम या 2003 के शुरुआती महीनों की बात है. बिहार-झारखण्ड के एक बड़े अखबार के छायाकार का बिहार के उसके गांव से अपहरण हो गया था. पटना के आक्रोशित पत्रकारों का बड़ा जुलूस एक, अणे मार्गपहुंचा. लालू प्रसाद यादव ने, हालांकि मुख्यमंत्री पद पर राबड़ी जी बैठती थीं, बड़े धैर्य से पत्रकारों का आक्रोश सुना और तत्काल वहीं से कुछ थानेदारों को फोन मिलवाया. उन्होंने थानेदारों से  सीधे स्वयं बात की और उनके नाम लेकर. रेखांकित यह करना है कि लालू जी ने न गृह सचिव को फोन मिलवाया, न पुलिस महानिदेशक को, जबकि किसी भी मुख्यमंत्री या मंत्री के लिए यही उपयुक्त रास्ता होना चाहिए था. संयोग से यहां दिए गए दोनों उदाहरण भारतीय मध्य जातियों के दो ताकतवर नेताओं के हैं लेकिन ऐसा नहीं कि बाकी नेता इससे अछूते हैं. अंतर सिर्फ इतना है कि किसी ने खुले आम यह किया तो दूसरे बड़ा आदर्शवादी मुखौटा लगाए हुए पर्दे के पीछे से यही सब करते रहे.

कुख्यात अपराधी विकास दुबे के इस कदर दुस्साहसी हो जाने के पीछे नेता-पुलिस-अपराधी अंतर्सबंधों का यही जाल है. जैसे-जैसे लोकतंत्र के बाने में जाति-आधारित वोट की राजनीति हावी होती गई, वैसे-वैसे इस गठजोड को जातीय समीकरण और मजबूत बनाते गए. कुछ अपराधी मध्य और दलित जातियों के गौरव-पुरुष बनते गए तो कुछ को उच्च जातियों के नेताओं ने अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए पाला-पोषा. आज इस बात पर क्या आश्चर्य करना कि करीब तीन दशक से अपराध की दुनिया में सनसनी मचाने वाला विकास दुबे, जिसने उन्नीस वर्ष पहले पुलिस थाने में घुसकर राज्यमंत्री स्तर के एक भाजपा नेता को भी गोलियों से भून दिया था, आजाद घूमता रहा, बेहिसाब सम्पत्ति जुटाता रहा, अपना गिरोह बढ़ाता और अपनी राजनैतिक महत्त्वाक्षाएं पूरी करता रहा.

राजनीति के आपराधीकरण का यह विद्रूप चेहरा भी किसी से छुपा नहीं है कि सत्ता में पार्टी बदलने के साथ-साथ आपराधिक चरित्र के नेता और सम्बद्ध अपराधी पाला बदलते रहते हैं. यह उनके राजनैतिक और आपराधिक साम्राज्य की सुरक्षा के लिए आवश्यक होता है तो सत्तारूढ़ पार्टी के लिए वे जमीनी ताकत साबित होते हैं. बहुत कम ही उदाहरण मिलेंगे जब किसी सत्तारूढ पार्टी ने दूसरे दलों से आए आपराधिक प्रवृत्ति के नेताओं को अंगीकार करने से इनकार किया हो. विकास दुबे ने भी अपने आकाओं के साथ पार्टियां बदलीं. इस तरह वह आजाद, सुरक्षित और ताकतवर बना रहा. अंदरखाने खबर है कि वह एक बार फिर सत्तारूढ़ पार्टी के पाले में आना चाहता था लेकिन कुछ नेताओं के कारण इसमें अड़चन आ रही थी. उसे पकड़ने का अभियान और मुखबिरी इसी टकराहट का परिणाम थे.    

विकास दुबे के प्रकरण में एक बात अवश्य चौंकाती है. उसे पकड़ने के लिए पुलिस टीम आ रही है, यह मुखबिरी उसके पुलिस दोस्तों ने कर दी थी. आम तौर पर सूचना पाकर अपराधी ठिकाना बदल लेते हैं. वे पुलिस से सीधी भिड़ंत से बचते हैं. इसीलिए अक्सर पुलिस टीम अपना-सा मुंह लेकर लौट आती है. विकास दुबे ने भागने की बजाय पुलिस से मुकाबला करने की ठानी और उसकी अच्छी तैयारी भी कर ली. अपना गिरोह एकत्र किया और पुलिस के लिए जाल बिछाया. ऐसा पहले चम्बल के बीहड़ों के डाकू-गिरोह करते थे. यह एक दुर्दांत अपराधी के दुस्साहस की पराकष्ठा ही कही जाएगी. इसका कारण उसका अपनी उस ताकत पर भरोसा रहा होगा जिसे उसने राजनैतिक रसूख के बल पर हासिल किया है. राजनीति एवं पुलिस में लम्बे समय से उसकी ऐसी धाक रही कि एक बड़ी सशस्त्र पुलिस टीम का आना उसे कोई डर की बात नहीं लगी.

विकास दुबे की ऊंची आपराधिक उड़ान इस भयावह काण्ड के बाद शायद खत्म हो जाएगी. इस वारदात ने राजनीति-पुलिस-अपराधी नापाक दोस्ती के राज एक बार फिर सबके सामने खोल दिए हैं. फिर भी नहीं कहा जा सकता कि यह सिलसिला थमेगा. राजनीति इसी पर टिकी है.  
(प्रभात खबर, 09 जुलाई, 2020)      

                              

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