अब कहीं कंटेनमेंट जोन बन रहे न मीडिया के माध्यम से
जानकारी दी जा रही है कि कौन से इलाके अधिक संक्रमित हुए हैं. यह प्रशासन की
संसाधन-सीमा भी हो सकती है और करीब पांच महीने से चली आ रही कवायद से उपजी थकान एवं
उदासीनता भी. क्या यह माना जाए कि शहर के सभी इलाकों में संक्रमण फैल गया है जिसके
कारण कंटेनमेण्ट जोन बनाना निरर्थक हो गया है? ‘कम्युनिटी स्प्रेड’ कहते हैं जिसे, सरकार अब भी यह नहीं मान रही.
शुक्रवार रात से सोमवार सुबह तक की बंदी क्या संक्रमण को रोक
या सीमित कर पा रही है? इस पर विशेषज्ञों में ही विवाद है. कुछ कह
रहे हैं कि इसका कुछ तो लाभ हो रहा है, लेकिन दूसरे आंकड़े
देकर बता रहे हैं कि कोई फायदा नहीं. जो भी हो, संक्रमण बढ़ने
की रफ्तार बढ़ी है. अब काफी जांचें हो रही हैं लेकिन उसे गिनने का तरीका क्या है?
एक ही व्यक्ति की जांच तीन बार करने की आवश्यकता पड़ी तो वह तीन
जांचें हुईं या एक? यह स्पष्ट नहीं है. जांचें भी अलग-अलग
तरह की हैं. क्या जो आंकड़े दिए जा रहे हैं, वे पुष्टिकारक ‘आरटी-पीसीआर’ जांच के हैं या उनमें अन्य अपेक्षाकृत
अविश्वसनीय परीक्षण भी शामिल हैं? हमारे सरकारी विभाग आंकड़ों
के मामले में विश्वसनीय कभी नहीं रहे.
संक्रमण से ठीक होने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है. यह
आशाजनक बात है लेकिन बहुत सारे लोग, जो अन्य बीमारियों से ग्रस्त हैं, आशंकित हैं. एक गलत धारणा शुरू से प्रचलित हो गई कि कम उम्र के लोगों को
खतरा कम है और वे संक्रमित हो जाएं तो अपने आप ठीक हो जाएंगे. यह भ्रम अब भी बना
हुआ है. यूरोप-अमेरिका ने इस भ्रांति की बड़ी कीमत चुकाई और हम भी चुका रहे हैं.
दो तथ्य बहुत अच्छी तरह जन मानस को समझाने में हमारा तंत्र
सफल नहीं रहा है. एक यह कि युवा खतरे से बाहर नहीं हैं. उनका कोरोना से सकुशल बाहर
निकल आना निश्चित नहीं है. दूसरे, संक्रमण से युवा भले बच आएं लेकिन परिवार
और समुदाय में उनके कारण संक्रमण अधिक फैल रहा है.
मास्क पहनने और शारीरिक दूरी बनाए रखने की सावधानियां सड़कों-बाजारों में तो बिल्कुल ही नहीं बरती जा रहीं. दिहाड़ी वालों को कोसा रहा है कि वे ही महामारी फैला रहे हैं. इस तथ्य पर ध्यान ही नहीं दिया जा रहा कि अशिक्षा और नासमझी से बड़ी समस्या रोजी-रोटी है. लोगों को पेट पालने के लिए निकलना ही है.
विफलता इस तंत्र की है जो सबसे कमजोर तबके को
स्वास्थ्य सम्बंधी सतर्कताएं और सुविधाएं कभी नहीं दे पाया. गंदगी और रोगों के बीच
जीने-मरने को जो विवश हैं, उनसे कोरोना-काल में हम मास्क पहनने
और दूरी बरतने की अपेक्षा का क्या करें? यहां तो पढ़ा-लिखा
बड़ा वर्ग भी पुलिस के डर से मास्क लगा लेता है अन्यथा वह गर्दन में लटका रहता है. मास्क
न हुआ हेल्मेट हो गया!
दिनचर्या में शामिल हमारी लापरवाहियां ही इस दौर में सबसे बड़ी मुसीबत हैं.
(सिटी तमाशा, नभाटा, 15 अगस्त, 2020)
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