Friday, August 21, 2020

हंसते-लड़ते जीने वाले और छुपते-डरते मरने वाले

पिछले सप्ताह बहुत प्यारे इनसान, लेखक, आंदोलनकारी और नवोन्मेषी दोस्त त्रेपन सिंह चौहान की मृत्यु की खबर सुनने के बाद लगातार उसके बारे में सोचता रहा हूं. मात्र 48 साल की उम्र में वह चला गया. पिछले करीब दस-बारह साल से वह मौत को छकाता आया. पहले कैंसर से लड़ा और जीता. फिर उस पर लाइलाज मोटर न्यूरॉन रोग ने हमला कर दिया, वही बीमारी जो विज्ञानी स्टीफन हॉकिंग को थी.

त्रेपन टिहरी की उस बाल गंगा घाटी के एक गांव में जन्मा था जो आंदोलनों की उर्वरा भूमि है. बाल्यावस्था से ही वह आंदोलनकारी बना और लेखक भी. चिपको से लेकर उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन और उसके बाद के कई जन-संघर्षों में वह शामिल रहा. उसने बड़े बांधों के विरुद्ध संघर्ष किया और बाल गंगा घाटी में ग्रामीणों की कम्पनी बनाकर एक मेगावाट का बिजलीघर बनाने का सपना देखा. इस परियोजना का प्रस्ताव आज भी भारत सरकार में कहीं धूल खा रहा होगा. उसने ग्रामीणों के सशक्तीकरण के लिए चेतना आंदोलन चलाया. उसके नवोन्मेषी जन-अभियान घसियारी प्रतियोगिताको बहुत सराहा गया जिसमें उत्तराखण्ड की ग्रामीण महिलाओं के लिए हर साल घास काटने की प्रतियोगिता होती थी. इन महिलाओं को बड़े पर्यावरणवादियों के मुकाबले वह रीयल इकोलॉजिस्टकहता था.

इसी दौरान उसने तीन उपन्यास, दो कहानी संग्रह, डूबती टिहरी पर किताब और कई लेख लिखे. यमुनाऔर हे ब्वारीउपन्यास राज्य बनने से पहले और बाद के उत्तराखण्ड के जीवंत दस्तावेज हैं. अपनी बीमारी के बावजूद वह बहुत दौड़ता-भागता था. पिछले कुछ बरस से वह बिस्तर तक सीमित हो गया. जब उसके हाथों ने काम करना बंद कर दिया तो वह कम्प्यूटर पर बोल कर लिखने लगा. फिर उसकी जुबान ने साथ छोड़ दिया तो उसने एक अमेरिकी मित्र की सहायता से ऐसा सॉफ्टवेयर प्राप्त किया जो आंख की पुतलियों के इशारे से लिख सकता है. अपने अंतिम दिनों तक वह कम्प्यूटर के पर्दे पर पलकें झपका कर एक और उपन्यास लिख रहा था.

हमने उसकी बीमारी के बारे में सुन रखा था लेकिन उस सॉफ्टवेयर के बारे में सुना तक नहीं था जिसके सहारे वह लिखने में जुटा था. पुतलियों के इशारे से लिखे उपन्यास-अंश प्रकाशित हुए तो उन्हें पढ़ते हुए उसकी प्रतिभा के अलावा उसकी अदम्य जीजीविषा से मन भर गया. वह हर साल मुझे घसियारी प्रतियोगिता के लिए गांवों में आमंत्रित करता था. मैं हर बार अपने रोग का हवाला दे देता. वह कहता थाअपना ख्याल रखिएऔर जानलेवा बीमारी के बावजूद जब तक शरीर ने साथ दिया ग्रामीणों के बीच दौड़ता रहा. आंदोलनकारी के रूप में उसके पास जनता के लिए सपने थे और लेखक के रूप में सघन जीवनानुभव.

वह जीवन को सार्थक कर हंसते-लड़ते चला गया. हम सम्भावित रोग की आशंका से मरे-मरे जी रहे हैं. उन अधिसंख्य लोगों की तरह, जिनके सिर पर छत है और खाने को रोटी, मुझे भी अक्सर कोरोना का डर सताता है. कभी छींक आ गई तो लगता है कि बस, हो गया. स्वाभाविक रूप से गला साफ करना या खंखारना आतंकित कर देता है. जब कोरोना नहीं था, तो छोटी-सी शारीरिक व्याधि में भयानक रोग हो जाने की आशंका से डरते रहे. अब सबसे बड़ा डर कोरोना है.

ऐसे में त्रेपन की याद ताकत देती है और सवाल पूछती है- ऐसे जीना भी कोई जीना है? क्या वह अलग ही मिट्टी के बने होते हैं जो डरते नहीं, हर हालात में लड़ते हैं और सामने खड़ी मृत्यु के मुंह पर ठहाका लगाते रहते हैं?

(सिटी तमाशा, नभाटा, 22 अगस्त, 2020)

No comments: