Thursday, August 20, 2020

प्रियंका की बात पर अमल का सवाल

 दो अमेरिकी लेखकों को कोई साल भर पहले एक किताब के लिए दिए गए साक्षात्कार में प्रियंका गांधी की जिस बात ने कांग्रेस और देश की राजनीति में हलचल पैदा कर दी है, वह न तो सर्वथा नई है, न चौंकाने वाली. तो भी, चूंकि बात नेहरू-गांधी परिवार की इंदिरा-जैसीबेटी की है और कांग्रेस के नए अध्यक्ष के बारे में हैं, इसलिए कांग्रेस और परिवारफिर जेरे-बहस है.

प्रियंका का कथन है कि मैं राहुल की इस राय से सहमत हूं कि किसी गैर-गांधी को कांग्रेस का नया अध्यक्ष होना चाहिए.इतना और जोड़ा है कि कांग्रेस को अपना रास्ता तलाशना होगा.भारतीय मूल के दो अमेरिकी लेखकों प्रदीप छिब्बर और हर्ष शाह की पुस्तक टुमारोज इण्डिया: कंवरसेशंस विद नेक्स्ट जनरेशन ऑफ पॉलिटिकल लीडर्समें प्रियंका का यह कथन प्रकाशित हुआ है.

2019 के लोक सभा चुनाव में कांग्रेस की भारी पराजय के बाद कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने सारी जिम्मेदारी अपने सिर लेते हुए पद से इस्तीफा दे दिया था. उसी बैठक में उन्होंने कांग्रेस के बड़े नेताओं पर कुछ आरोप भी लगाए थे, जैसे कि वे अपने निजी हितों को, अपने बेटों को चुनाव लड़ाने को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हैं और उन्हें जिता भी नहीं पाते हैं.इसी बैठक में राहुल ने कहा था कि कांग्रेस का नया अध्यक्ष हमारे परिवार से बाहर का चुना जाना चाहिए.

मई 2019 की इसी बैठक में प्रियंका गांधी भी उपस्थित थीं. अपने भाई के बचाव में तब उन्होंने कहा था कि पार्टी की पराजय के लिए किसी एक व्यक्ति को ही उत्तरदाई नहीं ठहराना चाहिए, वैसे, मैं भी राहुल की बात से सहमत हूं कि पार्टी का नया अध्यक्ष गांधी परिवार से बाहर का हो.प्रियंका ने यही बात उक्त पुस्तक के लेखक-द्वय से कही.  

ऐसे समय में जबकि सोनिया गांधी का कार्यवाहक अध्यक्ष का कार्यकाल समाप्त हो रहा है और राहुल गांधी के पुन: कांग्रेस अध्यक्ष बनने की सम्भावनाओं पर बार-बार चर्चा हो रही है, प्रियंका का यह पुराना कथन प्रासंगिक हो जाता है. इसीलिए बड़ी खबर और बहस का मुद्दा बन गया है. पहले राहुल की जगह प्रियंका के नए अध्यक्ष बनने की अटकलें लगती रहती थीं. वह सदा इनकार करती रही. इस बयान के बाद और साफ हो गया कि वे कमान नहीं सम्भालेंगी. कांग्रेस के भीतर इस पद की महत्वाकांक्षा पाले नेताओं की कमी नहीं है लेकिन आज तक किसी ने सामने आने का साहस नहीं किया.  

प्रियंका के इस कथन के बहाने कांग्रेस के वर्तमान हालात और पूर्णकालिक अध्यक्ष के चुनाव का मुद्दा सतह पर आ गया है. सोनिया गांधी को एक बार फिर कार्यवाहकबनाया जाएगा? या, स्वतंत्रता के पश्चात जो असम्भव-सा माना जाता रहा है, क्या कोई गैर-गांधी सचमुच कांग्रेस के सर्वोच्च पद पर बैठेगा? यही सबसे बड़ा सवाल है.

पिछले साल राहुल गांधी को कई बार मनाया गया. उनका इस्तीफा लम्बे समय तक स्वीकार नहीं किया गया था लेकिन राहुल अपने निर्णय पर अडिग रहे थे. तब कांग्रेस के नए अध्यक्ष के चुनाव पर चर्चा हुई लेकिन कुछ नामों की नेपथ्य में सुगबुगाहट के सिवाय किसी गैर-गांधी के नाम पर विचार ही नहीं किया जा सका. अंतत: पार्टी की सर्वोच्च समिति ने सोनिया को यह उत्तरदायित्व कार्यवाहक रूप में दे दिया गया. कार्यवाहक यानी जब तक कोई पूर्णकालिक अध्यक्ष न चुन लिया जाए. इधर फिर चर्चा चल पड़ी थी कि राहुल के सिर फिर यह कांटों भरा ताज रखा जाएगा लेकिन अब इन अटकलों पर फिलहाल विराम लग जाएगा. तो, होगा क्या?

उन्नीस सौ साठ के दशक से ही कांग्रेसियों की समस्या यह रही कि वे पूरी तरह नेहरू-गांधी वंश पर आश्रित हो गए. इंदिरा गांधी के बाद तो यह सम्भावना ही नहीं रही कि इस परिवार के बाहर का कोई कांग्रेस अध्यक्ष बनने की सोच सकता है. राजनीति में आने के लिए सर्वथा अनिच्छुक राजीव गांधी को लाया जाना और उनकी दुर्भाग्यपूर्ण हत्या के बाद कांग्रेसियों की आतुर सोनिया-सोनियापुकार में यह लाचारी प्रकट होती रही. सोनिया ने 2004 में प्रधानमंत्री पद का त्याग किया लेकिन कांग्रेस और यूपीए की चेयरपर्सन वे बनी रहीं. राहुल के इस्तीफे के बाद कार्यवाहक अध्यक्ष भी बिना किसी आनाकानी के बन गईं.

यह बात गौर करने वाली है कि राहुल और प्रियंका की इस सहमति के बाद भी, कि पार्टी का अध्यक्ष कोई गैर-गांधी बने, सोनिया ने इस बारे में कभी मुंह नहीं खोला. लगता नहीं कि वे इस राय से सहमत हैं. मान लिया कि अब सोनिया भी परिवार से बाहर के अध्यक्षकी बात कह दें, तो क्या पार्टी को एक रखते हुए कांग्रेसी अपने बीच से नेता चुनने का साहस दिखा पाएंगे?

कांग्रेस आज जहां पहुंच गई है, उसके संकेत राजीव गांधी की चमत्कारिक विजय और मिस्टर क्लीनछवि के बावजूद 1985 से ही दिखने लगे थे. उन्होंने स्वयं बम्बई (मुम्बई) में हुए पार्टी के शताब्दी अधिवेशन में कहा था कि कांग्रेस दलालों की पार्टी बन गई है. उनका वादा था कि वे उसे दलालों के चंगुल से मुक्त करके जनता से जोड़ेंगे. विडम्बना ही है कि राजीव सर्वथा असफल रहे, बल्कि उसी परम्परा के वाहक बने. यह निरंतर खोखली होती कांग्रेस का सौभाग्य ही था कि तब से लेकर 2014 तक उसे किसी अखिल भारतीय प्रतिद्वंद्वी की चुनौती नहीं मिली. बेमेल गठबंधनों के प्रयोगों की असफलता के बाद वह बार-बार सत्ता में लौट आती रही, जब तक कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली मजबूत भाजपा ने उसे जमीन नहीं चटा दी.

आज उसे खड़ा होने के लिए ऐसे नेता की आवश्यकता है जो उसमें प्राण फूंक सके, कांग्रेसी-मूल्यों की पुनर्स्थापना करके जनता को बेहतर विकल्प के प्रति आश्वस्त कर सके और नरेंद्र मोदी के टक्कर में खड़ा हो सके. नेतृत्व कौशल के धनी कई कांग्रेसी होंगे लेकिन क्या यह पार्टी गांधी परिवार की तरफ टकटकी लगाना छोड़ेगी? सक्षम नेतृत्व के अभाव के कारण ही कई प्रतिभाशाली युवा कांग्रेस की डगर-मगर नाव से छलांग लगा चुके हैं.

कांग्रेस के विरुद्ध भाजपा का सबसे बड़ा आरोप परिवारवाद ही है. इंदिरा गांधी की तरह नेतृत्व की चमत्कारिक क्षमता हो तो इस आरोप की धार कुंद हो जाती लेकिन राहुल यह साबित नहीं कर सके. परिवार से बाहर नेतृत्व तलाशने में कांग्रेसियों को सबसे बड़ी आशंका पार्टी के बिखर जाने की है. इस भय से उबरने का यही सबसे उचित समय है. कांग्रेस को अपने अस्तित्व के लिए और देश को सशक्त विपक्ष के लिए इसकी बहुत आवश्यकता है.    

लाख टके का प्रश्न फिर यही कि राहुल और प्रियंका की राय पर अमल कैसे होगा?  

(प्रभात खबर, 21 अगस्त, 2020)    

   

             

     

    

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