साथियो,
आज हम यहां बहुत असामान्य
परिस्थितियों में मिल रहे हैं। एक महामारी ने पूरी दुनिया को हलकान कर रखा है।
इससे बचाव के तरीके खोज लिए जाएंगे लेकिन जिन कारणों से ऐसी परिस्थितियां जन्म ले
रही हैं और निरंतर विकट होती जा रही हैं, राजनीति के धुरंधरों
और अर्थनीति के नियंताओं का ध्यान उनकी ओर नहीं जाएगा। वे चालाक और धूर्त लोग इस
पूरी सृष्टि को निचोड़ ले रहे हैं। प्रगति के नाम पर मानव जाति ऐसी खतरनाक सुरंग
में धकेली जा रही है जहां अब हवा-पानी और धूप भी दुर्लभ होते जा रहे हैं। इस धरती
पर मनुष्य के सहचर और उससे भी पुरातन अरबों-खरबों जीवों, परजीवियों
और वनस्पतियों को निरंतर नष्ट करने वाली यह विकास पद्धति अंतत: मनुष्य को भी नहीं
छोड़ेगी। वह कैसा जीवन होगा जब मनुष्य को जीवित रहने के लिए हर सांस के साथ एक
वैक्सीन की आवश्यकता होगी! मनुष्य के साथ-साथ सम्पूर्ण जैव-विविधता की चिंता
कतिपय सनकी विज्ञानियों और पर्यावरणवादियों के अलावा क्या हमारे साहित्य में भी नहीं
होनी चाहिए?
एक संवेदनशील पत्रकार और लेखक के रूप में मैं इस तथ्य से
परिचित था कि ‘दुनिया की सबसे तेज बढ़ती’ कहलाने वाली इस
अर्थव्यस्था में एक बड़ी आबादी दो जून रोटी के लिए जूझती-तरसती है और चंद घरानों की
आय दिन दूनी-रात चौगुनी बढ़ती जाती है; लेकिन इस महामारी ने
जिस अदृश्य भारत के ऊपर से पर्दा उठाया वह आंखें खोलने वाला रहा। महामारी से बचाव
के नाम पर बिल्कुल अचानक लागू कर दी गई देशबंदी के बाद कुपोषित बच्चों को कांधे पर
उठाए तपती सड़कों पर छाले पड़े नंगे पैरों से जो भूखा-प्यासा-बेरोजगार विशाल भारत
सैकड़ों-हजारों मील घिसटता देखा गया, उसका अनुमान हमारी पत्रकारिता
को तो नहीं ही था, साहित्य में भी वह नहीं दिखता रहा। धूर्त
राजनैतिकों, अर्थशास्त्रियों और योजनाकारों ने तो बहुत पहले
से इस हिंदुस्तान की तरफ से आंखें मूंद रखी थीं। कैसी विडम्बना है कि इस भारत को
मूर्ख, गंवार और महामारी फैलाने वाला बताया जा रहा है। हाल
के महीनों में हमारे लेखकों-संस्कृतिकर्मियों ने इस मुद्दे का कुछ नोटिस लिया
दिखता है लेकिन जिस साहित्य को समाज का आईना कहा जाता है, उसमें
इसकी आहट का भी अनुपस्थित होना हम लेखकों के बारे में चौंकाने वाली दुखदाई टिप्पणी
है। क्या हमारी सजग लेखक बिरादरी अपने समाज में गहरे पैठकर उसे समझने और साहित्य
का प्रमुख स्वर बनाने में चूकी नहीं है?
व्यथित और उद्वेलित करने वाली परिस्थितियां और भी कई हैं।
हर चिंतनशील और संवेदनशील मनुष्य के लिए यह चुनौतियों भरा समय है। रचनाकारों के
लिए और भी अधिक। असहमति की संविधान प्रदत्त स्वतंत्रता खतरे में हैं। संवैधानिक
संस्थाओं की स्वायत्तता छीनी जा रही है। लोकतांत्रिक प्रतिरोध के स्वर सुने जाने
की बजाय कुचले जा रहे हैं। सरकार से असहमति को सीधे राष्ट्रदोह ठहराया जा रहा है।
कई पत्रकार, लेखक, सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ता और
बौद्धिक इसी कारण जेल में हैं। साम्प्रदायिक राजनीति ने समाज को इस कदर विभाजित कर
दिया है कि किसानों, छात्रों, अल्पसंख्यकों,
दलितों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, बौद्धिकों, आदि का मुद्दा-आधारित सत्ता-विरोध
देश-विरोध बता दिया जाता है और जनता का विशाल वर्ग उसी भाषा में बोलने लगा है। जीवन
की मूलभूत समस्याओं से ध्यान भटकाने के लिए इस वर्ग को धर्म की अफीम चटा दी गई है,
सोचने-समझने का उसका विवेक सुला दिया गया है। यह अत्यंत चिंताजनक
स्थिति है।
किसी भी देश-काल में किशोर और युवा वर्ग स्वाभाविक रूप से
विद्रोही होता है। उसकी प्रकृति सवाल पूछने, पुरानी परम्पराओं को खारिज करने और परिवार
से लेकर समाज तक में बदलाव का झण्डा उठाने की होती है। ऐसा किसी विचारधारा-विशेष
के अध्ययन या प्रभाव में आए बिना भी होता रहा है। कॉलेजों-विश्वविद्यालयों से
निकले परिवर्तनकामी आंदोलनों ने पूरी दुनिया में बड़े परिवर्तनों की शुरुआत की है।
दुर्भाग्य से यह ऐसा समय है जब हमारा युवा वर्ग भी प्रतिगामी शक्तियों के सम्मोहन
में दिखाई देता है। हाल के वर्षों में इस आयु वर्ग में भी धर्मांधता बढ़ी है,
ऐसा कुछ सर्वेक्षणों ने भी साबित किया है। कहीं से आवाज उठती भी है
तो कुचल दी जाती है और उसे व्यापक समर्थन नहीं मिल पाता। कॉलेजों- विश्वविद्यालयों
में छात्र-राजनीति की सम्भावनाओं के द्वार बंद कर दिए गए हैं।
अपवाद हमेशा होते हैं लेकिन पत्रकारिता में जो अपवाद होते
थे, वे नियम और सिद्धांत बन गए हैं। जिस पत्रकारिता को जनता की आवाज और सरकार
के नाक-कान का काम करना था, वह उसके भौंपू का काम कर रही है।
साहित्य में भी क्या सत्ताश्रयी प्रवृत्तियां बहुत नहीं बढ़ गई हैं? कितने चोले बदलते और मुखौटे उतरते हम देख रहे हैं।
इसलिए यह बहुत कठिन समय है और निराशाजनक भी। अंधेरा सघन हो
रहा है। ऐसे में मशाल थामने का गुरुतर दायित्व साहित्य समेत सभी रचनात्मक विधाओं
को उठाना होगा। अपने समय की स्थितियों, प्रवृत्तियों और चुनौतियों को प्रभावी ढंग
से दर्ज करके रचनाधर्मियों ने यह दायित्त्व पहले भी निभाया है। लेखन की मशाल ही यह
अंधेरा चीरेगी, यह पक्की उम्मीद है।
कथाक्रम सम्मान, उसके आयोजन और चर्चाएं इसी उम्मीद का
हिस्सा हैं। इस वर्ष के कथाक्रम सम्मान हेतु मुझे चुनने के लिए इसके संयोजक
शैलेंद्र सागर जी एवं चयन समिति के सम्मानित सदस्यों का आभार व्यक्त करता हूं। इस
सम्मान ने लेखक के रूप में मेरी जिम्मेदारियां बढ़ा दी हैं।
आज इस मंच से मैं उन सब अग्रजों को आदर के साथ याद करता हूं
जिन्होंने अंगुली पकड़ी, रास्ता दिखाया और प्रोत्साहित किया। राज
बिसारिया जी, जिन्हें हम सब राज साहब कहते हैं, के नाटक देख-देखकर मैंने नाटकों की समीक्षा लिखना सीखा। आज उनके हाथों से
यह सम्मान ग्रहण करना बड़े गौरव की बात है। नरेश सक्सेना जी को विशेष रूप से प्रणाम
करता हूं जिन्होंने बिल्कुल शुरुआती दौर से मुझे राह दिखाई और जिन्हें आज इस
समारोह की अध्यक्षता करनी थी लेकिन दो दिन पहले ही युवा पुत्र की आकस्मिक मृत्यु
से उन पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा है। हमारे समय के महत्त्वपूर्ण कवि, बड़े भाई जैसे मंगलेश डबराल को चार दिन पहले यह महामारी लील गई। आप खो गए
हैं मंगलेश जी लेकिन यहां आपकी जगह बची हुई है, जैसे हमारे
बीच बची हुई है उन रचनाकारों की जगह जो अपने होने का मौलिक दायित्व निबाह गए।
आप सबका बहुत-बहुत आभार जो कोरोना काल के बावज़ूद यहां
उपस्थित हुए और जो ऑनलाइन इसे देख रहे हैं।
-नवीन जोशी
कैफी आज़मी सभागार, लखनऊ, 13 दिसम्बर,
2020
....
5 comments:
बधाई नवीन जी। कथाक्रम सम्मान आपसे सम्मानित हुआ है।
बधाई नवीन जी। कथाक्रम सम्मान आपसे सम्मानित हुआ है।
आप कथाक्रम सम्मान के असल हकदार हैं। बहुत-बहुत बधाई।
पुरस्कार के लिए बधाई...बहुत चिंतन परक है आपका वक्तव्य...
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