Friday, June 18, 2021

कोविड के धीमे पड़ते दौर की सिहरनें

 

कोविड-19 महामारी का दूसरा भयावह दौर धीमा पड़ गया लगता है, हालांकि इसके समाप्त होने के कोई आसार नहीं हैं। तीसरा दौर आने की चेतावनी लगातार मिल रही है। वैसे भी, इस वायरस को पूरी तरह समाप्त नहीं होना है। दूसरे असंख्य वायरसों की तरह यह हमारी दुनिया में रहने वाला है। हमें इससे बचने के जतन करते रहने होंगे। पूरी आबादी के टीकाकरण के अलावा मास्क पहनना, भौतिक दूरी बनाए रखना और हाथों की निरंतर सफाई दिनचर्या का अनिवार्य हिस्सा बनाने होंगे।

अमेरिका और यूरोप के विकसित देश अपने लगभग प्रत्येक नागरिक का टीकाकरण कर चुके हैं। कई देशों में तो बाहर निकलने पर मास्क पहनना अनिवार्य नहीं रह गया। सिर्फ किसी के घर जाने या रेस्तरां-मॉल आदि के भीतर मास्क लगाना होता है। उन देशों ने कोविड महामारी पर काफी सीमा तक नियंत्रण पा लिया है। हमारे यहां दोनों ही उपाय सुनिश्चित करना अत्यंत कठिन है। इतनी बड़ी आबादी का पूरा टीकाकरण कई वर्ष लेने वाला है, हालांकि केंद्र सरकार इस वर्षांत तक इसे पूरा करने की घोषणा कर रही है। अंधविश्वासी, कठमुल्लों के बंधक और सरकारों पर भरोसा न करने वाले समुदाय हैं जो टीका लगाने को अपने विरुद्ध साजिश मानते हैं। इसलिए अपने देश को इसकी सबसे बड़ी कीमत चुकानी है।

कितनी कीमत हम चुका चुके हैं। पिछले डेढ़ साल में अर्थव्यवस्था का जो हाल हुआ है, जितनी बेरोजगारी बढ़ी है और चिकित्सा तंत्र की जैसी लाचारी सामने आई है, उसकी सबसे बुरी मार कमजोर और कामगार वर्ग ने झेली है। वे अभी झेल रहे हैं और पता नहीं कितने समय तक उन्हें ज़िंदा रहने और घर-परिवार चलाने के लिए जूझते रहना होगा।

वे कौन लोग थे जिनकी लाशें नदियों में बहाई गईं या किनारे पर रेत में दफ्न की गईं? रेत में दफ्न जिन लाशों के ऊपर से रामनामी या दुशाले हटाए जा रहे थे, उन्हें दो दिन की बारिश ने उघाड़ दिया है। अकेले प्रयागराज के दो घाटों में दो दिन में कम से कम चालीस लाशें उघड़ी पाई गईं क्योंकि बारिश ने रेत बहा दी थी। प्रशासन उन शवों का अंतिम संस्कार करवा रहा है। पिछले दिनों नदियों में बहती पाई गई लाशों से सरकारों की किरकिरी हुई थी, इसलिए अब उघड़ी लाशों का अंतिम संस्कार किया जा रहा है। तथ्यों को छुपाने-दबाने की बजाय इतनी सद्बुद्धि तो आई।

मोबाइल में किसी का नम्बर खोजने लगता हूं तो कई नाम ऐसे सामने आते हैं जो महामारी में काल-कवलित हो गए। कितने ही मित्र, सम्बंधी और परिचित। अब भी लोग जा रहे हैं। उन नाम-नम्बरों को देखकर सिहरन होती है। क्या उनके नाम मिटा दूं? मोबाइल से डिलीट किया जा सकता है लेकिन अपनी स्मृति से कैसे बाहर किया जा सकेगा? अपने जीवित और स्मृति के बने रहते उनकी याद धूमिल भले हो जाए, मिटाई नहीं जा सकेगी।

रह-रहकर उन बच्चों का ध्यान आता है जिनके सिर से माता-पिता का साया अचानक उठ गया। सैकड़ों बच्चों के बारे में पढ़ने को मिल रहा हि जिनके परिवार में कोई नहीं बचा या बूढ़े दादा-दादी में कोई एक और असहाय। कई परिवारों के अकेले कमाऊ पूत चले गए। ऐसे बच्चों के आगे अनिश्चित भविष्य है। सरकार और समाज उनके लिए चिंतित हैं लेकिन हमारे यहां के बाल गृहों या अनाथालयों का हाल किसी से छुपा है क्या? बहुत कम बच्चे होंगे जिन्हें चाचा-चाची या बुआ-मौसी की स्नेहिल छांव मिलेगी। बाकी इस आघात से मानसिक रूप से आजीवन त्रस्त रहेंगे।

इस महामारी ने बहुत कुछ छीना और नष्ट किया है, जिसकी भरपाई सम्भव नहीं है। जो बचे रहेंगे वे भी कितना उबर पाएंगे?

(सिटी तमाशा, नभाटा, 19 जून 2021)    

1 comment:

सुधीर चन्द्र जोशी 'पथिक' said...

सही कहा आपने । इस महामारी के दिये घावों का दर्द लम्बे समय तक सहना पड़ेगा। सच ! हमारे फ़ोन की कॉन्टेक्ट लिस्ट में कई नाम ऐसे हैं, जो अब इस दुनिया में हैं ही नहीं। उन्हें कोविड लील गया। बेचैनी तो होती ही देखकर। अनाथ बच्चे कहाँ जायेंगे, क्या करेंगे, ईश्वर ही जाने। जैसा आपने कहा अनाथालयों के नाम पर चलने वाली संस्थाएँ का हाल भी अच्छा नहीं है।

इस वाइरस के साथ रहना तो सावधानी बरतनी ही पड़ेंगी हमें। वाइरस तो हमें छोड़ने वाला ही नहीं है।

अच्छा लेख !