युवा जितिन प्रसाद ऐसे समय में कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हुए हैं जब न केवल उत्तर प्रदेश में, बल्कि देश भर में भी केसरिया रंग मद्धिम होता लग रहा है। कोविड महामारी के प्रबंधन में विफलता या विसंगतियों, आर्थिक मंदी, बढ़ती बेरोजगारी और निम्न मध्य वर्ग एवं कामगार वर्ग की बेहाली के कारण मोदी सरकार की लोकप्रियता कम हुई है। उत्तर प्रदेश में योगी सरकार के विवादास्पद काम-काज और छवि से चिंतित भाजपा का शीर्ष नेतृत्व उसकी समीक्षा कर रहा है। हाल में सम्पन्न पंचायत चुनावों के परिणाम उसकी घटती लोकप्रियता के संकेत दे गए जिसमें विपक्षी समाजवादी पार्टी से भाजपा पिछड़ गई। कोविड महामारी के दूसरे दौर में अव्यवस्था, ऑक्सीजन एवं दवाओं की कमी और नदियों में लाशें बहाए जाने की वायरल खबरों से भी योगी सरकार अंतराष्ट्रीय स्तर तक आलोचनाओं के केंद्र में रही है। ऐसे समय में कभी राहुल गांधी के करीबी रहे जितिन प्रसाद का भाजपा में जाना जहां केसरिया पार्टी के लिए मनोबल बढ़ाने वाला है, वहीं विपक्ष के लिए अनुकूल होती स्थितियों का लाभ उठाने में कांग्रेस नेतृत्व की असमर्थता भी साबित करता है।
जितिन प्रसाद अचानक भाजपा में नहीं गए हैं। 2019 के चुनाव
से ठीक पहले उनके भाजपा में शामिल होने की चर्चा चली थी। उस समय राहुल गांधी ने
जितिन को मना लिया था। फिर प्रियंका गांधी ने यूपी में कांग्रेस को दुरस्त करने का
बीड़ा उठाया। जितिन को उस प्रक्रिया में महत्व भी मिला। कांग्रेस कार्य समिति के तो
वे सदस्य थे ही, हाल में सम्पन्न बंगाल विधान सभा चुनाव में उन्हें
राज्य-प्रभारी बनाया गया था। इस सबके बावजूद जितिन की नाराजगी शायद दूर नहीं हुई
या कहें कि लगातार निजी पराजयों (2014 से वे दो लोक सभा और एक विधान सभा चुनाव हार
चुके हैं। बंगाल में भी कुछ नहीं कर सके) से अपनी जमीन खोते जाने से बेचैन जितिन
ने अंतत: भाजपा का दामन थाम लिया।
जितिन प्रसाद उतने बड़े कांग्रेसी नेता थे नहीं, पार्टी
को जितना बड़ा झटका लगने की बात कही जा रही है। उनकी बराबरी मध्य प्रदेश के
ज्योतिरादित्य सिंधिया और राजस्थान के सचिन पायलट से की जाती रही है लेकिन इन
दोनों की तरह जितिन का यूपी में कोई विशेष प्रभाव नहीं रहा। उन्हें अपने पिता
जितेंद्र प्रसाद की राजनीतिक जमीन विरासत में मिली थी, जो
राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के बड़े और प्रभावशाली नेता थे। जितिन उस विरासत को
सम्भाल पाने में विफल रहे। अपने परम्परागत चुनाव क्षेत्र में वे कुछ समय प्रासंगिक
भले रहे हों, कालांतर में उसे भी खो बैठे। ज्योतिरादित्य
सिंधिया और सचिन पायलट ने अपने पिताओं की राजनीतिक विरासत खूब सम्भाली है। इसके
बावजूद जितिन को कांग्रेस में पर्याप्त महत्त्व मिला। उस प्रदेश में जहां कांग्रेस
पिछले तीन दशक से भी अधिक समय से लगातार अपना प्रभाव खोती आई और जिसे बचाने में
जितिन प्रसाद का कोई योगदान नहीं रहा, आखिर वे पार्टी से
क्या चाहते थे?
स्पष्ट है कि जितिन की महत्वाकांक्षा ही उन्हें भाजपा में
ले गई, जिसके लिए वे तीन साल से छटपटा रहे थे। उनके अनुसार कांग्रेस में रहते हुए
‘जनता की सेवा करने का अवसर’ नहीं मिल
रहा था, लेकिन भाजपा में ही उन्हें यह अवसर कितना और कब मिल
पाएगा, जहां ‘जनता की सेवा’ करने के लिए लालायित नेताओं की लम्बी कतार प्रतीक्षारत है? ज्योतिरादित्य भी राज्य सभा सीट के अलावा और कुछ अब तक हासिल नहीं कर पाए
हैं। भाजपा को अवश्य एक युवा ब्राह्मण चेहरा मिल गया है, जिसकी
उपेक्षा के आरोप योगी सरकार पर लगते रहे हैं।
जितिन का जाना कांग्रेस के लिए दो मायनों में बड़ी हानि है।
वे स्वयं कांग्रेस के लिए कुछ न कर पाए हों, लेकिन उत्तर प्रदेश में वे पार्टी का नाम
लेवा एक युवा और चमकदार चेहरा तो थे ही जिनकी तीन पीढ़ियां कांग्रेस का झण्डा उठाए
रहीं। दूसरा बड़ा नुकसान पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व के बारे में इस धारणा का
निरंतर पुष्ट होना है कि वह कांग्रेस को पुनर्जीवित करने के लिए बड़े कदम उठाना तो
दूर, रही-सही पार्टी को भी बचा पाने के लिए कुछ नहीं कर पा
रहा। जितिन के पार्टी छोड़ने को कांग्रेसी प्रवक्ता चाहे जितना महत्त्वहीन बताएं,
यह सीधे-सीधे सोनिया गांधी और राहुल के नेतृत्व पर सवाल उठाता है और
उन तेईस कांग्रेसी नेताओं की सतत चिंता को रेखांकित करता है जो चिट्ठी लिखकर और
बार-बार दोहरा कर मांग कर रहे हैं कि पार्टी अध्यक्ष का चुनाव कराया जाए ताकि देश
की सबसे पुरानी यह पार्टी जड़ता से बाहर निकल सके। जितिन प्रसाद भी उन नेताओं में
शामिल थे।
यह सचमुच हैरत की बात है कि मोदी सरकार की घटती लोकप्रियता
और हाल के संकटों का मुकाबला कर पाने में उसकी असफलता को अपने लिए अवसर में बदलने
का जतन करने की बजाय कांग्रेस नेतृत्व हाथ पर हाथ धरे बैठा है। यह भी बड़ा सवाल है
कि ‘कांग्रेस नेतृत्व’ है कौन? सोनिया
गांधी कार्यवाहक अध्यक्ष होने के बावजूद सर्वोच्च नेता की तरह सक्रिय नहीं हैं और
राहुल अध्यक्ष पद छोड़ चुकने के बावजूद उसके प्रभामण्डल से बाहर नहीं निकल पा रहे।
दो साल से पार्टी नेतृत्वविहीन है। पुराने कांग्रेसी नेताओं की बेचैनी अकारण नहीं है।
सोनिया को लिखे उनके पत्र पर मौन लम्बा होता जा रहा है। ऐसे में कांग्रेसी नेताओं
की बेचैनी स्वाभाविक है। जितिन के जाने के बाद वफादार कांग्रेसियों की यह चिंता अकारण
नहीं कि कुछ और भी नेता पार्टी छोड़ सकते हैं।
राजस्थान में सचिन पायलट कब से बेकरार हैं। उनकी कुछ
शिकायतें हैं जिनसे सोनिया और राहुल भली-भांति परिचित हैं लेकिन उसके समाधान के
लिए आज तक कुछ नहीं किया गया। यह कैसा ‘नेतृत्व’ है जो अपनी
पार्टी की समस्याओं का सामना करके उनका समाधान करने की बजाय आंखें मूंद लेता है?
सचिन पायलट ने इधर फिर अपना गुस्सा व्यक्त किया है। सचिन पायलट,
जितिन प्रसाद की तरह प्रभावहीन नेता नहीं हैं। राजस्थान में उनका
अच्छा असर है। एक दर्जन से अधिक विधायक उनके साथ हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया भी
मध्य प्रदेश में प्रभावशाली कांग्रेसी नेता थे। नेतृत्व की निष्क्रियता के कारण ही
वे भाजपा में चले गए। क्या ‘नेतृत्व’ अब
सचिन के जाने की प्रतीक्षा कर रहा है?
एक बात बहुत साफ है कि भाजपा भले सत्ता विरोधी रुझान का
सामना कर रही हो लेकिन कांग्रेस किसी भी तरह उसका लाभ लेने की स्थिति में नहीं दिखती।
(प्रभात खबर, 14 जून, 2021)
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