17 फरवरी, 2021
प्रिय भाई प्रियंवद जी,
आज दोपहर को ‘अकार-56’ मिला। पहले तो ‘अकथ’ पढ़कर आपको फोन
करने जा रहा था कि गिरिराज जी एवं अन्य लेखकों (फिलहाल ज्ञानरंजन) के पत्रों के
बहाने हिंदी लेखकों के निजी और सार्वजनिक संसार पर नई और जरूरी रोशनी डालने का बड़ा
काम उठाकर आपने बहुत सराहनीय काम किया है। फिर शैलेश मटियानी के पत्र और पूरा
हिस्सा पढ़कर लगा कि आपको पत्र ही लिखूं। किसी को चिट्ठी लिखे अरसा भी हुआ। चाहता
था कि कलम पकड़कर कागज पर लिखूं और लिफाफे पर टिकट लगाकर डाक-डिब्बे में डालूं
लेकिन फिर लैपटॉप पर ही बैठ गया।
शैलेश मटियानी को याद करना, उनके रचे विपुल साहित्य
के साथ-साथ उनके जीवन-संघर्षों, लेखकीय स्वाभिमान की रक्षा
के लिए लड़ी गई लम्बी लड़ाइयों, उनके साथ हुई साजिशों, उपेक्षाओं, आदि को सामने लाना और नई पीढ़ी तक
पहुंचाना बहुत आवश्यक है। उनके जैसे जीवनानुभवों और वंचितों पर अत्यंत मार्मिक एवं
बेहतरीन कहानियां-उपन्यास लिखने वाले साहित्यकार को जो स्थान मिलना चाहिए था,
वह तो नहीं ही मिला, उलटे उनकी जिस तरह उपेक्षा
की गई, एक तरह से साहित्यिक हत्या, उस
पर कोई बात भी नहीं करता। ‘अमेठी के दिन बहुरे’ और ‘धर्मयुग’ प्रकरण पर
मटियानी जी ने लेखकीय स्वाभिमान की जो लड़ाई सुप्रीम कोर्ट तक अकेले लड़ी, उस प्रसंग पर जितने पत्र एवं लेख लिखे और स्वयं कोर्ट में जो बहसें की,
उस पर हिंदी की पूरी लेखकीय जमात को गर्व करना चाहिए था, उसे पुस्तकाकार प्रकाशित कराकर सहेजना चाहिए था, बार-बार
और जगह-जगह एक नज़ीर की तरह प्रस्तुत करना चाहिए था। लेकिन देखिए कि उनका मजाक
उड़ाया गया, उनका अपमान किया गया और एक ‘संघी लेखक की सनक’ कहकर उसे खारिज किया गया।
कैसे-कैसे ‘बड़े’ लेखक इस साजिश में
शामिल थे! आज उनका बड़ा नाम लिया जाता है लेकिन कौन मटियानी जी को याद करता है?
घोर गरीबी एवं एकाकीपन में जीने और दर-दर की ठोकरें खाकर भी
लेखक बने रहने की ज़िद ठानने और उसे सही साबित कर दिखाने वाला मटियानी जी जैसा और
कौन लेखक हिंदी में हुआ? अग्रिम पारिश्रमिक लेकर और इसीलिए हड़बड़ी
में लिखा गया उनका काफी कुछ खारिज करने लायक भी होगा लेकिन जो कुछ श्रेष्ठ
कहानियां-उपन्यास उन्होंने हिंदी को दिए, उनकी बराबरी में कितनी रचनाएं हमारे ‘बड़े-बड़े’ लेखकों ने दीं? मटियानी जी की ‘दो दुखों का एक सुख,’ ‘मैमूद,’ ‘अर्द्धांगिनी’ जैसी कई कहानियों और कुछ उपन्यासों की
क्या सिर्फ इसलिए उपेक्षा की जा सकती है कि विचारों से वे हिंदुत्ववादी थे और संघ
व भाजपा के पाले में खड़े हो जाते थे? प्रगतिशील या जनवादी
झण्डा उठाने के कारण ही बड़े लेखक कहाने वाले कितने लेखकों की रचनाएं उस टक्कर की
हैं? यह क्यों नहीं देखा जाता कि अपनी रचनाओं में वे किसके
साथ खड़े थे, किसके बारे में लिख रहे थे, संघ एवं भाजपा के बारे में या दीन-हीन, दलित,
वंचित, शोषित जन के बारे में? हिंदू राष्ट्र की वकालत करने के लिए उनकी आलोचना कीजिए लेकिन उनके साहित्य
के मूल्य, जनपक्षधरता, भाषा और लेखन
कौशल को तो चर्चा कीजिए। उसे कैसे कूड़ेदान में डाला जा सकता है?
शायद 1997 या 1998 की बात है। मटियानी जी लखनऊ मेडिकल कॉलेज
के मनोचिकित्सा विभाग में भर्ती थे और पागलपन के दौरे से जूझ रहे थे। हमने ‘स्वतंत्र
भारत’ में उनकी एक-दो पुरानी रचनाएं छापीं और पारिश्रमिक
लेकर अस्पताल पहुंचे। एक रसीद बनाकर ले गए थे कि अगर वे कर सके हस्ताक्षर करा
लेंगे। मटियानी जी ने पहचाना, अपनी मानसिक व्याधि की चर्चा
की और कांपते हाथों से यह कहते हुए पावती पर हस्ताक्षर किए कि अब तो कलम का पकड़ना
स्वप्न हो गया। फिर अपने हस्ताक्षर देखकर खुश हुए थे। अगली सुबह मेरे दफ्तर
पहुंचने तक एक लड़का मटियानी जी का भेजा लिफाफा लिए खड़ा था। उसमें अखबार के लिए दो
पेज का एक राजनैतिक लेख था और एक नोट कि ‘प्रिय नवीन,
कल तुम्हारे सामने रसीद पर हस्ताक्षर बन पड़े तो लगा शायद फिर लिख
सकता हूं। देखो, कोशिश की है...।’ कांपते
हाथों की वह टेढ़ी-मेढ़ी लिखावट हमें उनकी लेखकीय जीजीविषा से अचम्भित और प्रसन्न भी
कर गई थी। और किस लेखक में रही ऐसी घनीभूत लेखकीय शक्ति? अस्पताल
के मानसिक रोगी वार्ड में पागलपन के दौरे से तनिक राहत पाने पर भी लिखने बैठ जाना।
ऐसी ही अवस्था में ही उन्होंने ‘नदी किनारे का गांव’ और ‘उपरांत’ जैसी कहानियां
लिखी होंगी। ऐसे जीवट के लेखक को हिंदी जगत कैसे बिसार सकता है?
अपने अंतिम वर्षों में सत्ता-प्रतिष्ठान से ‘याचना’
करने वाले मटियानी जी पर हंसने वाली लेखक बिरादरी यह याद नहीं करती
कि उन्होंने कैसे-कैसे दिन देखे और परिवार ने क्या-क्या भुगता। घर आए मेहमान के
लिए चाय-पानी का जुगाड़ करने के लिए रद्दी बेचने भागने वाले मटियानी जी एक समय में
सरकारी अनुदान ठुकरा देते थे। ठाकुर प्रसाद सिंह बताते थे कि हिंदी संस्थान का निदेशक
रहते उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी से मटियानी जी को किसी
बहाने पच्चीस हजार रु का चेक दिलवाया तो कैसे उन्होंने लेने से इनकार कर दिया था।
कितने लेखक या लेखक संगठन उनकी सहायता को आगे आए? जब उनके
मकान पर गुण्डे कब्जा कर रहे थे और वे अकेले लड़ रहे थे, कितने
लेखकों-पत्रकारों ने उनका साथ दिया? संघ और भाजपा वालों ने
ही उन्हें क्या दे दिया? बेटे की हत्या, बड़ी बेटी के अविवाहित रह जाने और परिवार की दुर्दशा ने अंतत: उन्हें तोड़
दिया, अत्यंत दयनीय और याचक बना दिया। यह उनकी कमजोरी थी कि
वे टूट कर बुरी तरह बिखर गए। लेखक के रूप में उपेक्षा और अपमान ने उन्हें इस
बिखराव की तरफ कम नहीं धकेला होगा।
हिंदुत्त्व की उनकी वकालत से किसी तरह की सहमति नहीं है, लेकिन
उनके लेखकीय योगदान का मूल्यांकन होना चाहिए, विशेष रूप से
इसलिए कि अपनी विचारधारा के बावजूद वे कहानी-उपन्यासों में समाज के सबसे उपेक्षित,
दीन-हीन मानवों के साथ पूरी सम्वेदना और जुझारूपन के साथ खड़े दिखते
हैं। उनके विचलनों और लेखन की भी खूब तीखी आलोचना हो लेकिन उनके लिखे को पूरी तरह
भुला देना हिंदी साहित्य को गरीब बनाना ही है। वैसे, पाठकों
में शैलेश मटियानी जितने लोकप्रिय रहे, उन्हें भुला पाना आसान
नहीं होगा। घनघोर असहमतियों के बावजूद राजेंद्र यादव ने उन पर जिस दृष्टि से लिखा
है, वह संतोष देता है।
आपने ‘अकार’ के इस अंक में गिरिराज किशोर जी से उनके पत्र-व्यवहार के बहाने यह विमर्श शुरू करके बहुत अच्छी पहल की है।
-नवीन जोशी, लखनऊ
(अकार-57 में प्रकाशित सम्पादक प्रियंवद के नाम एक चिट्ठी)
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